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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - चतुष्पदा साम्नी जगती सूक्तम् - विराट् सूक्त

    सोद॑क्राम॒त्सा दे॒वानाग॑च्छ॒त्तां दे॒वा उपा॑ह्वय॒न्तोर्ज॒ एहीति॑।

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । दे॒वान् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । दे॒वा: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । ऊर्जे॑ । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोदक्रामत्सा देवानागच्छत्तां देवा उपाह्वयन्तोर्ज एहीति।

    स्वर रहित पद पाठ

    सा । उत् । अक्रामत् । सा । देवान् । आ । अगच्छत् । ताम् । देवा: । उप । अह्वयन्त । ऊर्जे । आ । इहि । इति ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा देवान् आगच्छत्) = वह देवों को-ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त हुई। (तां देवाः उपाह्वयन्त) = उसे देवों ने पुकारा कि (उर्जे एहि इति) = हे बल व प्राणशक्ते! आओ तो। (तस्या:) = उस विराट् का (वत्सः) = प्रिय यह देव (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता [जितेन्द्रिय पुरुष] था। (चमस:) = ये सिर ही (पात्रम्) = रक्षासाधन हैं। देवलोग इस (चमस्) = शिरोभाग को ठीक रखने से ही अपने पर शासन करते हुए इन्द्रियों के दास व विषयासक्त नहीं होते। २. (ताम्) = उस विराट् को (देव:) = उस प्रकाशमय जीवनवाले (सविता) = अपने अन्दर सोम का सवन करनेवाले पुरुष ने (अधोक्) = दुहा । उत्तम शासन-व्यवस्था होने पर शान्त वातावरण में देववृत्ति के पुरुष अपने जीवन को विषय-प्रवण न बनाकर जितेन्द्रिय बनें और सोम-सम्पादन में प्रवृत्त हुए। (तां ऊर्जाम्) = उस बल व प्राणशक्ति को (देवा:) = देव (उपजीवन्ति) = अपना जीवन आधार बनाते है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ऊर्जा के महत्व को समझ लेता है वह (उपजीवनीयः भवति) = औरों के जीवन का भी आधार बनता है औरों का उपजीव्य होता है।

    भावार्थ -

    राष्ट्र-व्यवस्था के शान्त होने पर जितेन्द्रिय देववृत्ति के पुरुष सोम का शरीर में रक्षण करते हुए 'बल व प्राणशक्ति' का दोहन करते हैं और अपने जीवन को उत्तम बनाते हुए औरों के लिए भी सहायक एवं मार्गदर्शक होते हैं।

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