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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तामू॒र्जां दे॒वा उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । ऊ॒र्जाम् । दे॒वा: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तामूर्जां देवा उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । ऊर्जाम् । देवा: । उप । जीवन्ति । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा देवान् आगच्छत्) = वह देवों को-ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त हुई। (तां देवाः उपाह्वयन्त) = उसे देवों ने पुकारा कि (उर्जे एहि इति) = हे बल व प्राणशक्ते! आओ तो। (तस्या:) = उस विराट् का (वत्सः) = प्रिय यह देव (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता [जितेन्द्रिय पुरुष] था। (चमस:) = ये सिर ही (पात्रम्) = रक्षासाधन हैं। देवलोग इस (चमस्) = शिरोभाग को ठीक रखने से ही अपने पर शासन करते हुए इन्द्रियों के दास व विषयासक्त नहीं होते। २. (ताम्) = उस विराट् को (देव:) = उस प्रकाशमय जीवनवाले (सविता) = अपने अन्दर सोम का सवन करनेवाले पुरुष ने (अधोक्) = दुहा । उत्तम शासन-व्यवस्था होने पर शान्त वातावरण में देववृत्ति के पुरुष अपने जीवन को विषय-प्रवण न बनाकर जितेन्द्रिय बनें और सोम-सम्पादन में प्रवृत्त हुए। (तां ऊर्जाम्) = उस बल व प्राणशक्ति को (देवा:) = देव (उपजीवन्ति) = अपना जीवन आधार बनाते है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ऊर्जा के महत्व को समझ लेता है वह (उपजीवनीयः भवति) = औरों के जीवन का भी आधार बनता है औरों का उपजीव्य होता है।

    भावार्थ -

    राष्ट्र-व्यवस्था के शान्त होने पर जितेन्द्रिय देववृत्ति के पुरुष सोम का शरीर में रक्षण करते हुए 'बल व प्राणशक्ति' का दोहन करते हैं और अपने जीवन को उत्तम बनाते हुए औरों के लिए भी सहायक एवं मार्गदर्शक होते हैं।

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