अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदा साम्नी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा स॒र्पानाग॑च्छ॒त्तां स॒र्पा उपा॑ह्वयन्त॒ विष॑व॒त्येहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । स॒र्पान् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । स॒र्पा: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । विष॑ऽवति । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा सर्पानागच्छत्तां सर्पा उपाह्वयन्त विषवत्येहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । सर्पान् । आ । अगच्छत् । ताम् । सर्पा: । उप । अह्वयन्त । विषऽवति । आ । इहि । इति ॥१४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 13
विषय - सर्पों द्वारा विष-दोहन
पदार्थ -
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा सर्पान् आगच्छत्) = वह [सप गती] गतिशील व्यक्तियों को प्राप्त हुई। (ताम्) = उस विराट् को (सर्पाः उपाह्वयन्त) = इन गतिशील पुरुषों ने पुकारा कि (विषवति एहि इति) = [विषम्-जलम्] हे प्रशस्त जलवाली! आओ तो। उत्तम राष्ट्र व्यवस्था में पानी का समुचित प्रबन्ध होता है। (तस्याः) = उस विराट् का (वत्स:) = प्रिय वह क्रियाशील व्यक्ति (तक्षक:) = [तक्षक त्विषेर्वा] ज्ञान की दीप्सिवाला व (वैशालेय:) = उदार चित्तवृत्तिवाला [विशाला का पुत्र] (आसीत्) = था। इसका (पात्रम्) = यह रक्षणीय शरीर (अलाबुपात्रम्) = [लबि अवलंसने] न चूनेवाली शक्ति का पात्र होता है। इसके शरीर से शक्ति का अवलंसन नहीं होता। २. (ताम्) = उस विराट् को (धृतराष्ट्र:) = शरीररूप राष्ट्र का धारण करनेवाले (ऐरावतः) = [इरा-Water] प्रशस्त जलवाले-प्रशस्त जल से शरीर को नीरोग रखनेवाले ने (अधोक्) = दुहा। (तां विषम् एव अधोक्) = उसने प्रशस्त जल का ही दोहन किया। (सर्पा:) = ये क्रियाशील जीवनवाले व्यक्ति (तत् विषम् उपजीवन्ति) = उस जल के आधार से जीवन-यात्रा को सुन्दरता से निभाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार जल के महत्व को समझता है, वह अपने तथा (उपजीवनीयः भवति) = औरों के लिए जीवन में सहायक होता है।
भावार्थ -
उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था होने पर क्रियाशील व्यक्ति प्रशस्त जल पाकर जीवन को स्वस्थ बना पाते हैं। ये शरीररूप राष्ट्र का उस प्रशस्त जल द्वारा धारण करते हुए औरों के लिए भी सहायक होते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें