अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - पुरउष्णिक्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
बृह॒स्पति॑रू॒र्जयोद्गा॑यति॒ त्वष्टा॒ पुष्ट्या॒ प्रति॑ हरति॒ विश्वे॑ दे॒वा नि॒धन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । ऊ॒र्जया॑ । उत् । गा॒य॒ति॒ । त्वष्टा॑ । पुष्ट्या॑ । प्रति॑ । ह॒र॒ति॒ । विश्वे॑ । दे॒वा: । नि॒ऽधन॑म् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिरूर्जयोद्गायति त्वष्टा पुष्ट्या प्रति हरति विश्वे देवा निधनम् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । ऊर्जया । उत् । गायति । त्वष्टा । पुष्ट्या । प्रति । हरति । विश्वे । देवा: । निऽधनम् ॥१०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 2
विषय - भूति, प्रजा, पशु
पदार्थ -
१. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार अतिथियज्ञ के महत्त्व को समझता है, (तस्मै) = उसके लिए (उषा) = उषा (हिङ्कृणोति) = आनन्द का सन्देश देती है, (सविता प्रस्तौति) = सूर्य विशेष प्रशंसा करता है, (बृहस्पति:) = प्राण (ऊर्जया उद्गायति) = बल के साथ उसके गुणों का गान करता है, (त्वष्टा पुष्टया प्रतिहरति) = त्वष्टा उसे पुष्टि प्रदान करता है, (विश्वे देवा निधनम्) = अन्य सब देव उसे आश्रय प्रदान करते हैं, अतः वह (भूत्या: प्रजायाः पशूनाम्) = सम्पत्ति, प्रजा व पशुओं का (निधनं भवति) = आश्रयस्थान बनता है।
भावार्थ -
अतिथि सत्कार करनेवाला सम्पत्ति, प्रजा व पशुओं का आश्रयस्थान बनता है।
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