अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
तस्मा॑ उ॒द्यन्त्सूर्यो॒ हिङ्कृ॑णोति संग॒वः प्र स्तौ॑ति।
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । उ॒त्ऽयन् । सूर्य॑: । हिङ् । कृ॒णो॒ति॒ । स॒म्ऽग॒व: । प्र । स्तौ॒ति॒ ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मा उद्यन्त्सूर्यो हिङ्कृणोति संगवः प्र स्तौति।
स्वर रहित पद पाठतस्मै । उत्ऽयन् । सूर्य: । हिङ् । कृणोति । सम्ऽगव: । प्र । स्तौति ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 4
विषय - सूर्य के द्वारा अतिथियज्ञ करनेवाले का शंसन
पदार्थ -
१. अतिथि-सत्कार करनेवाले (तस्मै) = उस यज्ञमय जीवनवाले पुरुष के लिए (उद्यन् सूर्य: हिड्कृणोति) = उदय होता हुआ सूर्य आनन्द का सन्देश देता है, (संगवः प्रस्तौति) = संगवकाल [सूर्य जब पर्याप्त ऊपर आ जाता है] उसकी विशेष प्रशंसा [स्तुति] करता है। २. (माध्यन्दिन: मध्याह्न उद्गायति) = उसके गुणों का गान करता है, (अपराह्नः प्रतिहरति) = अपराह्न काल का सूर्य उसके लिए 'प्रतिहार' करता है-उसे पुष्टि देता है। (अस्तंयन् निधनम्) = अस्त को जाता हुआ सूर्य उसे आश्रय देता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार आतिथ्य सत्कार करता है, वह (भूत्या: प्रजाया: पशूनाम्) = सम्पत्ति, प्रजा और पशुओं का (निधनं भवति) = आश्रयस्थान बनता है।
भावार्थ -
सूर्य दिन की पाँच अवस्थाओं में अतिथि सत्कार करनेवाले के यश को उज्ज्वल करता, विस्तृत करता, गायन करता, उसे सब पदार्थ प्राप्त कराता और उसे सब पदार्थों से सम्पन्न करता है। इसप्रकार यह अतिथियज्ञ करनेवाला 'सम्पत्ति, प्रजा व पशुओं का आश्रय स्थान बनता है
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