अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 22
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
सं ते॑ शी॒र्ष्णः क॒पाला॑नि॒ हृद॑यस्य च॒ यो वि॒धुः। उ॒द्यन्ना॑दित्य र॒श्मिभिः॑ शी॒र्ष्णो रोग॑मनीनशोऽङ्गभे॒दम॑शीशमः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ते॒ । शी॒र्ष्ण: । क॒पाला॑नि । हृद॑यस्य । च॒ । य: । वि॒धु॒: । उ॒त्ऽयन् । आ॒दि॒त्य॒ । र॒श्मिऽभि॑: । शी॒र्ष्ण: । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒म॒: । अङ्गऽभेदम् । अशीशम: ॥१३.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं ते शीर्ष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः। उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्गभेदमशीशमः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ते । शीर्ष्ण: । कपालानि । हृदयस्य । च । य: । विधु: । उत्ऽयन् । आदित्य । रश्मिऽभि: । शीर्ष्ण: । रोगम् । अनीनशम: । अङ्गऽभेदम् । अशीशम: ॥१३.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 22
विषय - 'सिर व हृदय की पीड़ा' की चिकित्सा सूर्यरश्मियाँ
पदार्थ -
१.हे रोगिन् ! (ते) = तेरे (शीर्ण: कपालानि) = सिर के कपाल-भाग (च) = और (हृदयस्य यः विभुः) = जो हृदय की विशेष प्रकार की पीड़ा थी, उस सबको (सम्) = [अनीनशम्] मैंने नष्ट कर दिया है। हे (आदित्य) = [आदानात, दाप लवणे] सब रोगों को उखाड़ फेंकनेवाले सूर्य (उद्यन्) = उदय होता हुआ तू (रश्मिभि:) = अपनी किरणों से (शीर्ण: रोगम) = सिर के रोग को (अनीनश:) = नष्ट कर देता है तथा (अङ्गभेदम्) = अङ्गों की वेदना को तूने (अशीशम:) = शान्त कर दिया है।
भावार्थ -
उदय होते हुए सूर्य की किरणें शिरोरोग व हत्-पीड़ाओं को शान्त कर देती हैं। इसी से सूर्याभिमुख होकर ध्यान करने का महत्त्व है।
विशेष -
विशेष-नीरोग बनकर प्रभु-स्तवन करनेवाला यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है और उस सुन्दर ही-सुन्दर 'वाम' प्रभु का स्मरण करता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि यही है।