अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
य ऊ॒रू अ॑नु॒सर्प॒त्यथो॒ एति॑ ग॒वीनि॑के। यक्ष्मं॑ ते अ॒न्तरङ्गे॑भ्यो ब॒हिर्निर्म॑न्त्रयामहे ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ऊ॒रू इति॑ । अ॒नु॒ऽसर्प॑ति । अथो॒ इति॑ । एति॑ । ग॒वीनिके॒ इति॑ । यक्ष्म॑म् । ते॒ । अ॒न्त: । अङ्गे॑भ्य: । ब॒हि: । नि: । म॒न्त्र॒या॒म॒हे॒ ॥१३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऊरू अनुसर्पत्यथो एति गवीनिके। यक्ष्मं ते अन्तरङ्गेभ्यो बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ऊरू इति । अनुऽसर्पति । अथो इति । एति । गवीनिके इति । यक्ष्मम् । ते । अन्त: । अङ्गेभ्य: । बहि: । नि: । मन्त्रयामहे ॥१३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
विषय - ज्वरादि को दूर करना
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिसका (भीमः) = भयानक (प्रतीकाश:) = स्वरूप ही (पूरुषम् उद्वेषयति) = पुरुष को कम्पित कर देता है, ऐसे (तक्मानम्) = दुःखदायी ज्वर को (विश्वशारदम्) = [शार दौर्बल्ये] सब अङ्गों को निर्बल करनेवाले घर को (बहिः निर्मन्त्रयामहे) = बाहर निमन्त्रित करते हैं। (य:) = जो रोग करू (अनुसर्पति) = जंघाओं की ओर बढ़ता है, (अथो) = और (गवीनिके एति) = मूत्राशय के समीप "गवीनिका' नामक नाड़ियों में पहुँच जाता है, उस (यक्ष्मम्) = रोग को (ते अन्त: अड़ेभ्य:) = तेरे अन्दर के अङ्गों से बाहर आमन्त्रित करते हैं। २. (यदि) = यदि (बलासम्) = [बल अस् क्षेपणे] शरीर के बल का नाशक कफ़ रोग (कामात) = हमारे इच्छाकृत कर्मों से (अकामात्) = बिना कामना के बाह्य जलवायु के विकार से (हृदयात् परि) = हृदय के समीप (जायते) = उत्पन्न हो जाए तो उसे (हृदः अनेभ्यः) = हृदय के साथ सम्बद्ध अङ्गों से बाहर निकालते हैं। (ते अङ्गेभ्य:) = तेरै अङ्गों से (हरिमाणम्) = पीलिया रोग को, (उदरात् अन्त:) = पेट के भीतर होनेवाले (अप्वाम) = उदर रोग को (आत्मनः अन्तः) = शरीर के भीतर से (यक्ष्मोधाम्) = यक्ष्मा रोग के अंशों को रखनेवाले रोग को (बहि: निर्मन्त्रयामहे) = बाहर निकाल दें।
भावार्थ -
शरीर के अन्दर उत्पन्न हो जानेवाले 'चर, यक्ष्मा, पीलिया, जलोदर व यक्ष्मोधा' आदि रोगों को दूर करके हम नौरोगता के सुख का अनुभव करें।
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