अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
शीर्ष॒क्तिं शी॑र्षाम॒यं क॑र्णशू॒लं वि॑लोहि॒तम्। सर्वं॑ शीर्ष॒ण्यं ते॒ रोगं॑ ब॒हिर्निर्म॑न्त्रयामहे ॥
स्वर सहित पद पाठशी॒र्ष॒क्तिम् । शी॒र्ष॒ऽआ॒म॒यम् । क॒र्ण॒ऽशू॒लम् । वि॒ऽलो॒हि॒तम् । सर्व॑म् । शी॒र्ष॒ण्य᳡म् । ते॒ । रोग॑म् । ब॒हि: । नि: । म॒न्त्र॒या॒म॒हे॒ ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शीर्षक्तिं शीर्षामयं कर्णशूलं विलोहितम्। सर्वं शीर्षण्यं ते रोगं बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥
स्वर रहित पद पाठशीर्षक्तिम् । शीर्षऽआमयम् । कर्णऽशूलम् । विऽलोहितम् । सर्वम् । शीर्षण्यम् । ते । रोगम् । बहि: । नि: । मन्त्रयामहे ॥१३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
विषय - शिरोरोग निराकरण
पदार्थ -
१. (शीर्षक्तिम्) = शिरः पीड़ा को (शीर्षामयम्) = सिर के अन्य रोग को [मस्तकशूल व शिरोव्यथा को] (कर्णशूलम्) = कान के दर्द व (विलोहितम्) = जिसमें रुधिर की कमी आ जाती है तथा विकृत रुधिरवाले (ते) = तेरे सर्वम् सब प्रकार के (शीर्षण्यं रोगम्) = सिर में होनेवाले रोग को (बहिः निर्मन्त्रयामहे) = बाहर आमन्त्रित करते हैं-दूर करते हैं। (कर्णाभ्याम्) = कानों से तथा (ते कङ्क्षेभ्यः) = तेरे कानों के अन्दर व्याप्त नाड़ियों से (विसल्पकम्) = नाना प्रकार से रेंगनेवाली चीस चलानेवाली (कर्णशूलम्) = कान की पीड़ा को बाहर करते है। (यस्य हेतो:) = जिस कारण से (कर्णत:) = कान से और (आस्यत:) = मुख से (यक्ष्मः) = रोगकारी, पीडाजनक मवाद (प्रच्यवते) = बहता है, उस समस्त शिरोरोग को हम दूर करते हैं। २. (य:) = जो रोग (प्रमोतं कृणोति) = बहरा कर देता है और (पूरुषम् अन्धं करोति) = पुरुष को अन्धा कर देता है, उस सब रोग को दूर करते हैं। (अङ्गभेदम्) = शरीर के अङ्गों को तोड़ डालनेवाले, (अङ्गज्वरम्) = शरीर के अङ्गों में ज्वर उत्पन्न करनेवाले, (विश्वाङ्यम्) = सब अङ्गों में व्यापनेवाले (विसल्पकम) = विशेषरूप से तीव्र वेदना के साथ फैलनेवाले (सर्व शीर्षण्यम्) = सब शिरोरोग को हम तुझसे दूर करते हैं।
भावार्थ -
सब शिरोरोगों को दूर करके हम स्वस्थ मस्तिष्क बन जाएँ।
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