अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 26
उपै॑नं वि॒श्वरू॑पाः॒ सर्व॑रूपाः प॒शव॑स्तिष्ठन्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । ए॒न॒म् । वि॒श्वऽरू॑पा: । सर्व॑ऽरूपा: । प॒शव॑: । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
उपैनं विश्वरूपाः सर्वरूपाः पशवस्तिष्ठन्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठउप । एनम् । विश्वऽरूपा: । सर्वऽरूपा: । पशव: । तिष्ठन्ति । य: । एवम् । वेद ॥१२.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 26
विषय - 'विश्वरूप, सर्वरूप' गोरूप
पदार्थ -
१. (एतत्) = यह उपरिनिर्दिष्ट वर्णन (वै) = निश्चय से विश्वरूपम् वेदधेनु का सब पदार्थों का [संसार का] निरूपण करनेवाला विराट्प है, (सर्वरूपम्) = यह 'सर्व' [सब में समाये] प्रभु का निरूपण करनेवाला-सा है, (गोरूपम्) = वेदवाणी का गौ के रूप में निरूपण है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है, (एनम्) = इसे (विश्वरूपा:) = भिन्न-भिन्न वर्गों व आकृतियोंवाले, (सर्वरूपा:) = 'सर्व' प्रभु की महिमा का प्रतिपादन करनेवाले–व्यक्त व अव्यक्त वाक् सब प्राणी-मनुष्य व पशु-पक्षी आदि (उपतिष्ठन्ति) = पूजित करते हैं। यह उन सब प्राणियों से जीवन के लिए आवश्यक लाभ प्राप्त करता हुआ उनमें प्रभु की महिमा देखता है।
भावार्थ -
वेदवाणी में विश्व के सब पदार्थों का निरूपण है। इसमें 'सर्व' [सबमें समाये हुए] प्रभु का भी निरूपण है। वेदधेनु के इस विराट्रूप को देखनेवाला व्यक्ति सब प्राणियों से उचित लाभ प्राप्त करता है, सब प्राणियों में उस सर्व' प्रभु की महिमा को देखता है।
विशेष -
विशेष-इसप्रकार वेदधेनु को अपनानेवाला यह व्यक्ति ज्ञानरूप अग्नि में परिपक्व होकर "भृगु' बनता है, अङ्ग-अङ्ग में रसवाला [नीरोग] यह व्यक्ति 'अङ्गिरस' होता है। यह भृग्वाङ्गिरा ही अगले सूक्त का ऋषि है।