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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 20
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - याजुषी जगती सूक्तम् - गौ सूक्त

    इन्द्रः॒ प्राङ्तिष्ठ॑न्दक्षि॒णा तिष्ठ॑न्य॒मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । प्राङ् । तिष्ठ॑न् । द॒क्षि॒णा । तिष्ठ॑न् । य॒म: ॥१२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः प्राङ्तिष्ठन्दक्षिणा तिष्ठन्यमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । प्राङ् । तिष्ठन् । दक्षिणा । तिष्ठन् । यम: ॥१२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 20

    पदार्थ -

    १. वेदवाणी में सभी पदार्थों, जीव के कर्तव्यों व आत्मस्वरूप का वर्णन है। इनका मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रभु हैं। यह प्रभु हमारे हृदय में (आसीन:) = आसीन हुए-हुए (अग्नि:) = अग्नि हैं हमें निरन्तर आगे ले-चलनेवाले हैं [भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्राद्धानि मायया], (उत्थितः) = हमारे हृदय में उठे हुए ये प्रभु (अश्विना) = प्राणापान हैं, जब प्रभु की भावना हमारे हृदयों में सर्वोपरि होती है तब हमारी प्राणापान की शक्ति का वर्धन होता है। (प्राङ् तिष्ठन्) = पूर्व में [सामने] ठहरे हुए वे प्रभु (इन्द्र:) = हमारे लिए परमैश्वर्यशाली व शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं। (दक्षिणा तिष्ठन) = दक्षिण में स्थित हुए-हुए वे (यमः) = यम हैं, हमारे नियन्ता हैं, (प्रत्यङ् तिष्ठन) = पश्चिम में ठहरे हुए वे प्रभु (धाता) = हमारा धारण करनेवाले हैं। (उदङ् तिष्ठन्) = उत्तर में ठहरे हुए (सविता) = हमें प्रेरणा देनेवाले हैं। २. ये ही प्रभु (तृणानि प्राप्त:) = तृणों को प्राप्त हुए-हुए (सोमः राजा) = देदीप्यमान [राज् दीसौ] सोम होते हैं। ये तृण भोजन के रूप में उदर में प्राप्त होकर 'सोम' के जनक होते हैं। (ईक्षमाण:) = हमें देखते हुए, ये प्रभु (मित्र:) = हमें प्रमीति [मृत्यु] से बचानेवाले हैं [प्रमीते: त्रायते मित्रः], (आवृत्त:) = हममें व्याप्त हुए-हुए वे प्रभु (आनन्द:) = हमारे लिए आनन्दरूप हो जाते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु हमारे लिए 'अग्नि, अश्विना, इन्द्र, यम, धाता, सविता, सोम' मित्र व आनन्दरूप है।

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