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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 20
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - याजुषी जगती सूक्तम् - गौ सूक्त
    53

    इन्द्रः॒ प्राङ्तिष्ठ॑न्दक्षि॒णा तिष्ठ॑न्य॒मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । प्राङ् । तिष्ठ॑न् । द॒क्षि॒णा । तिष्ठ॑न् । य॒म: ॥१२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः प्राङ्तिष्ठन्दक्षिणा तिष्ठन्यमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । प्राङ् । तिष्ठन् । दक्षिणा । तिष्ठन् । यम: ॥१२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 20
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [वह परमेश्वर] (प्राङ्) पूर्व वा सन्मुख (तिष्ठन्) ठहरा हुआ (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान्, (दक्षिणा) दक्षिण वा दाहिनी ओर (तिष्ठन्) ठहरा हुआ (यमः) न्यायकारी (प्रत्यङ्) पश्चिम वा पीछे की ओर (तिष्ठन्) ठहरा हुआ (धाता) धारण करनेवाला और (उदङ्) उत्तर वा बाईं ओर (तिष्ठन्) ठहरा हुआ (सविता) सब का चलानेवाला [है] ॥२०, २१॥

    भावार्थ

    वह प्रजापति परमेष्ठी परमेश्वर ही सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता और सर्वव्यापक है ॥२०, २१॥

    टिप्पणी

    २०, २१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (प्राङ्) प्र+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। पूर्वस्यां स्वाभिमुखीभूतायां वा दिशि (तिष्ठन्) प्रादुर्भवन् (दक्षिणा) दक्षिणस्यां दक्षिणहस्तस्थितायां वा दिशि (यमः) नियामकः (प्रत्यङ्) पश्चिमायां पश्चाद् भागे स्थितायां वा दिशि (धाता) सर्वधारकः (उदङ्) उत्तरस्यां वामहस्तस्थितायां वा दिशि (सविता) सर्वप्रेरकः ॥

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    विषय

    वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'प्रभु'

    पदार्थ

    १. वेदवाणी में सभी पदार्थों, जीव के कर्तव्यों व आत्मस्वरूप का वर्णन है। इनका मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रभु हैं। यह प्रभु हमारे हृदय में (आसीन:) = आसीन हुए-हुए (अग्नि:) = अग्नि हैं हमें निरन्तर आगे ले-चलनेवाले हैं [भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्राद्धानि मायया], (उत्थितः) = हमारे हृदय में उठे हुए ये प्रभु (अश्विना) = प्राणापान हैं, जब प्रभु की भावना हमारे हृदयों में सर्वोपरि होती है तब हमारी प्राणापान की शक्ति का वर्धन होता है। (प्राङ् तिष्ठन्) = पूर्व में [सामने] ठहरे हुए वे प्रभु (इन्द्र:) = हमारे लिए परमैश्वर्यशाली व शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं। (दक्षिणा तिष्ठन) = दक्षिण में स्थित हुए-हुए वे (यमः) = यम हैं, हमारे नियन्ता हैं, (प्रत्यङ् तिष्ठन) = पश्चिम में ठहरे हुए वे प्रभु (धाता) = हमारा धारण करनेवाले हैं। (उदङ् तिष्ठन्) = उत्तर में ठहरे हुए (सविता) = हमें प्रेरणा देनेवाले हैं। २. ये ही प्रभु (तृणानि प्राप्त:) = तृणों को प्राप्त हुए-हुए (सोमः राजा) = देदीप्यमान [राज् दीसौ] सोम होते हैं। ये तृण भोजन के रूप में उदर में प्राप्त होकर 'सोम' के जनक होते हैं। (ईक्षमाण:) = हमें देखते हुए, ये प्रभु (मित्र:) = हमें प्रमीति [मृत्यु] से बचानेवाले हैं [प्रमीते: त्रायते मित्रः], (आवृत्त:) = हममें व्याप्त हुए-हुए वे प्रभु (आनन्द:) = हमारे लिए आनन्दरूप हो जाते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे लिए 'अग्नि, अश्विना, इन्द्र, यम, धाता, सविता, सोम' मित्र व आनन्दरूप है।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) रश्मिरूपी ऐश्वर्यवाला सूर्य है, (प्राङ् तिष्ठन्) पूर्व की ओर मुख कर खड़ा बैल। (यमः) रश्मियों को नियन्त्रित किया हुआा सूर्य है, (दक्षिणा तिष्ठन्) दक्षिण की ओर मुख कर खड़ा बैल।

    टिप्पणी

    [सूर्य जब विषुवरेखा अर्थात् भूमध्यरेखा पर होता है, तब सूर्य रश्मिरूपी ऐश्वर्य वाला होता है, उधर मुख कर खड़ा बैल मानो सूर्यरूप है। सूर्य पूर्वदिशा से जब दक्षिण की ओर जाता है तब शीतकाल होता है, मानो उस समय सूर्य यमरूप होता है, यतः वह निज रश्मियों को नियन्त्रित कर शैत्याधिक्य के कारण मृत्युरूप होता है, दक्षिण की ओर का सूर्य, मानो दक्षिण की ओर मुख कर खड़ा बैल है। "यमः यच्छतीति सतः" (निरुक्त १०।१२।१७)। इन्द्र और यम विश्व के अङ्ग हैं। इन्द्र और यम के द्युलोक में खड़े होने को, पूर्व और दक्षिण की ओर खड़ा बैल कहा है। इसके द्वारा दर्शा दिया है कि सूर्य वास्तव में एक स्थान में खड़ा है। उस में गति पृथिवी की गति के कारण प्रतीत होती है। तिष्ठन् = "ष्ठा गतिनिवृत्तौ"]

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    विषय

    विश्वका गोरूप से वर्णन॥

    भावार्थ

    (प्राङ् तिष्ठन्) प्राची दिशा में विराजमान वह (इन्द्रः) इन्द्र है। (दक्षिणा तिष्ठन्) दक्षिण दिशा में विराजमान वह (यमः) यम है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। गोदेवता। १ आर्ची उष्णिक्, ३, ५, अनुष्टुभौ, ४, १४, १५, १६ साम्न्यौ बृहत्या, ६,८ आसुयौं गायत्र्यौ। ७ त्रिपदा पिपीलिकमध्या निचृदगायत्री। ९, १३ साम्न्यौ गायत्रौ। १० पुर उष्णिक्। ११, १२,१७,२५, साम्नयुष्णिहः। १८, २२, एकपदे आसुरीजगत्यौ। १९ आसुरी पंक्तिः। २० याजुषी जगती। २१ आसुरी अनुष्टुप्। २३ आसुरी बृहती, २४ भुरिग् बृहती। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। इह अनुक्तपादा द्विपदा। षड्विंशर्चं एक पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cow: the Cosmic Metaphor

    Meaning

    Abiding eastwards, it is Indra, abiding south¬ wards, it is Yama.

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    Translation

    Standing eastward (prantistham) he is the resplendent Lord, standing southward (daksina) the controlling Lord (Yama).

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    Translation

    This Universal-Cow standing eastwards is Indra and standing southward is yama.

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    Translation

    Standing eastwards God is full of glory, standing southwards He is full of justice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०, २१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (प्राङ्) प्र+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। पूर्वस्यां स्वाभिमुखीभूतायां वा दिशि (तिष्ठन्) प्रादुर्भवन् (दक्षिणा) दक्षिणस्यां दक्षिणहस्तस्थितायां वा दिशि (यमः) नियामकः (प्रत्यङ्) पश्चिमायां पश्चाद् भागे स्थितायां वा दिशि (धाता) सर्वधारकः (उदङ्) उत्तरस्यां वामहस्तस्थितायां वा दिशि (सविता) सर्वप्रेरकः ॥

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