अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
वि॒द्युज्जि॒ह्वा म॒रुतो॒ दन्ता॑ रे॒वती॑र्ग्री॒वाः कृत्ति॑का स्क॒न्धा घ॒र्मो वहः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्युत् । जि॒ह्वा । म॒रुत॑: । दन्ता॑: । रे॒वती॑: । ग्री॒वा: । कृत्ति॑का: । स्क॒न्धा: । घ॒र्म: । वह॑: ॥१२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्युज्जिह्वा मरुतो दन्ता रेवतीर्ग्रीवाः कृत्तिका स्कन्धा घर्मो वहः ॥
स्वर रहित पद पाठविद्युत् । जिह्वा । मरुत: । दन्ता: । रेवती: । ग्रीवा: । कृत्तिका: । स्कन्धा: । घर्म: । वह: ॥१२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[सृष्टि में] (विद्युत्) [लपक लेनेवाली] बिजुली (जिह्वा) जीभ, (मरुतः) [दोषों के मारनेवाले] पवन (दन्ताः) [दमनशील] दाँत, (रेवतीः) रेवती आदि [चलनेवाले नक्षत्र] (ग्रीवाः) गला, (कृत्तिकाः) कृत्तिका आदि [छेदनशील नक्षत्र] (स्कन्धाः) कन्धे, (घर्मः) ताप [प्रकाश] (वहः) ले चलनेवाले सामर्थ्य [के समान है] ॥३॥
भावार्थ
सृष्टि को एक शरीरविशेष और अवयवी और अवयव का सम्बन्ध समझ कर मन्त्र का भावार्थ पूर्ववत् लगालो ॥३॥
टिप्पणी
३−(विद्युत्) अभिसर्पणी तडित् (जिह्वा) अ० १।१०।३। जि जये−वन् हुक् च। रसना (मरुतः) अ० १।२०।१। दोषनाशकाः पवनाः (दन्ताः) अ० ४।३।६। दशनाः (रेवतीः) भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। रेवृ गतौ-अतच्, ङीष्। रेवत्यादीनि नक्षत्राणि (ग्रीवाः) (कृत्तिकाः) कृतिभिदिलतिभ्यः कित्। उ० ३।१४७। कृती छेदने वेष्टने च-तिकन्, टाप्। कृत्तिकादीनि नक्षत्राणि (स्कन्धाः) (घर्मः) सूर्यप्रकाशः (वहः) वह प्रापणे-अच्। वहनसामर्थ्यम् ॥
विषय
प्रजापति से घर्म तक
पदार्थ
१. वेदधेनु के विराट् शरीर की यहाँ कल्पना की गई है। इस वेदवाणी में उस प्रभु का वर्णन है जोकि सब देवों के अधिष्ठान हैं-('ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः')। = सब देवों को इस गौ के विराट् शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में दिखलाते हैं। प्(रजापतिः च परमेष्ठी च शृंगे) = प्रजापति और परमेष्ठी दोनों इस गौ के सींग है, (इन्द्रः शिर:) = इन्द्र सिर है, (अग्निः ललाटम्) = अग्नि ललाट है, (यमः कृकाटम्) = यम गले की घंटी है। २. (सोमः राजा मस्तिष्क:) = सोम राजा उसका मस्तिष्क है, (द्यौः उत्तरहनु:) = धुलोक उसका ऊपर का जबड़ा है, (पृथिवी अधरहनुः) = पृथिवी उसका नीचे का जबड़ा है। ३. (विद्युत् जिह्वा) = विद्युत् उसकी जिला है। (मरुतः दन्त:) = मरुत् [वायुएँ] उसके दाँत हैं, (रेवती: ग्रीवा:) = रेवतीनक्षत्र उसकी गर्दन है, (कृत्तिकाः स्कन्धा:) = कृत्तिका नक्षत्र कन्धे हैं और (धर्मः वहः) = प्रकाशमान् सूर्य व ग्रीष्मऋतु उसके ककुद के पास का स्थान है।
भावार्थ
वेदवाणी में 'प्रजापति परमेष्ठी' के प्रतिपादन के साथ 'इन्द्र, अग्नि, यम, सोम, द्यौ, पृथिवी, विद्युत, वायु, रेवती व कृत्तिका आदि नक्षत्र व धर्म' का ज्ञान उपलभ्य है।
भाषार्थ
(विद्युत्१) कड़कड़ाती हुई विद्युत् (जिह्वा) जिह्वा है, (मरुतः) मरुत् [बहुवचने] (दन्ताः) दान्त हैं, (रेवतीः) रेवती नक्षत्र तारा (ग्रीवाः) गर्दन की अस्थियां हैं, (कृत्तिकाः) कृत्तिका-तारे (स्कन्धः) कन्धे की अस्थियां हैं, (घर्मः) ग्रीष्मारम्भ (वहः) बैल का वह स्थान है जिस पर शकट का जुआ (yoke) रखा जाता है।
टिप्पणी
[मरुतः = ये ७X७= ४९ प्रकार के मरुत् हैं। यजुर्वेद १७।८०-८५ ये ६ मन्त्र तथा "उग्रश्च भीमश्च" आदि ७ वां मन्त्र। इन ७ मन्त्रों में प्रत्येक में सात-सात मरुतों के नाम दिये हैं। महीधराचार्य लिखते हैं "शुक्रज्यारित्याद्या एकोनपञ्चाशन्मन्त्राः" (यजु० १७।८०)। इन मन्त्रों की व्याख्या में शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि "स यः स वैश्वानरः। असौ सऽआदित्योऽय ये ते मारुता रश्मयस्ते, सप्त-सप्त हि मारुता गणाः" (९।३।१।२५)। रश्मियां नोकीली होती हैं। इस साम्य से मरुतों को मन्त्र ३ में "दन्ताः" कहा है। रेवतीः, कृत्तिकाः– रेवतीः नक्षत्र है मीन राशि में, और कृत्तिका नक्षत्र है मेष राशि में। मन्त्र में रेवतीः को "ग्रीवा" कहा है, और कृत्तिकाः को "स्कन्धः"। गौ में ग्रीवाः पूर्ववर्ती होती है, और स्कन्ध अर्थात् कन्धे पश्चाद्वर्ती। जैसे कि अस्मदादि में ग्रीवाः के पश्चात् दो स्कन्ध वर्तमान हैं। यह ही पूर्वापरभाव रेवतीः [मीनराशि] में और कृत्तिकाः [मेषराशि] में दर्शाया है। रेवतीः नक्षत्र या मीनराशि पर राशिचक्र की समाप्ति होती है, तत्पश्चात् [मेषराशि को छोड़ कर] कृत्तिकाः नक्षत्र या वृषराशि आती है। मेषराशि में अश्विनी और भरणी नक्षत्र विद्यमान हैं। इन्हें इसलिये उपेक्षित किया है कि अथर्ववेदानुसार राशि चक्र की अन्तिम राशि मीन न हो कर मेषराशि पड़ती है, क्योंकि अथर्ववेदानुसार कृत्तिकाः या वृषराशि से राशि चक्र का या वर्ष का आरम्भ माना है। यथा “सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी च" (१९।७।२)। मन्त्र में कृत्तिका और रोहिणी का देवता "अग्नि" कहा है। वर्ष के प्रारम्भ में सूर्य जब कृत्तिका पर आता है तब अधिक प्रकाश और गर्मी अनूभूत होने लगती है, और शीतकाल के शैत्य की समाप्ति हो जाती है। इस अग्नि को व्याख्येय मन्त्र ३ में घर्मः अर्थात् घाम गर्मी या कहा है। इस प्रकार कृत्तिकाः नक्षत्र या वृषराशि, सौर रथ के वहन में "वहः" का काम करती है। "वहः” है बैल का ककुद् [hump] जिस के अग्रभाग पर शकट का 'जुआ [yoke] स्थापित किया जाता है]
विषय
विश्वका गोरूप से वर्णन॥
भावार्थ
(विद्युत्) विद्युत् (जिह्वा) उसकी जीभ है, (महतो) मरुत् अर्थात् प्राणगण और नाना प्रकार की वायुएं (दन्ताः) उसके दांत हैं, (रेवतीः ग्रीवाः) रेवती नक्षत्र उसकी ग्रीवा-गर्दन है. (कृत्तिकाः स्कन्धाः) कृत्तिकाएं उसके कन्धे हैं, (धर्मः) प्रकाशमान सूर्य या ग्रीष्म (वहः) उसका ‘वह’ ककुद के पास का स्थान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गोदेवता। १ आर्ची उष्णिक्, ३, ५, अनुष्टुभौ, ४, १४, १५, १६ साम्न्यौ बृहत्या, ६,८ आसुयौं गायत्र्यौ। ७ त्रिपदा पिपीलिकमध्या निचृदगायत्री। ९, १३ साम्न्यौ गायत्रौ। १० पुर उष्णिक्। ११, १२,१७,२५, साम्नयुष्णिहः। १८, २२, एकपदे आसुरीजगत्यौ। १९ आसुरी पंक्तिः। २० याजुषी जगती। २१ आसुरी अनुष्टुप्। २३ आसुरी बृहती, २४ भुरिग् बृहती। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। इह अनुक्तपादा द्विपदा। षड्विंशर्चं एक पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cow: the Cosmic Metaphor
Meaning
Lightning is the tongue, Maruts, winds, are the teeth, Revati, the star, is the neck, Krttikas are the shoulder, and Gharma, heat and light energy, the withers.
Translation
Lighting is his tongue (jihva); the cloud-bearing winds are his teeth (dantih); Revatis are his tendons (grivah) of the neck; Krttikas are his shoulders (skandhah); the cauldron (ghuma) of hot drink is his withers or shoulder-bar (vahah).
Translation
The worldly electricity is like the tongue of this Cow, the Marutah are like the teeth while Revati is like neck, Kritika like shoulder and Gharma like the shoulder-bar.
Translation
Lightning is the tongue, the Winds are the teeth, Revati is the neck, the Krittikās are the shoulders, the Summer is the shoulder-bar.
Footnote
Revati; A star, a lunar mansion.;Kritika: The third of the lunar mansions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(विद्युत्) अभिसर्पणी तडित् (जिह्वा) अ० १।१०।३। जि जये−वन् हुक् च। रसना (मरुतः) अ० १।२०।१। दोषनाशकाः पवनाः (दन्ताः) अ० ४।३।६। दशनाः (रेवतीः) भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। रेवृ गतौ-अतच्, ङीष्। रेवत्यादीनि नक्षत्राणि (ग्रीवाः) (कृत्तिकाः) कृतिभिदिलतिभ्यः कित्। उ० ३।१४७। कृती छेदने वेष्टने च-तिकन्, टाप्। कृत्तिकादीनि नक्षत्राणि (स्कन्धाः) (घर्मः) सूर्यप्रकाशः (वहः) वह प्रापणे-अच्। वहनसामर्थ्यम् ॥
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