अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - द्विपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तमि॒दं निग॑तं॒ सहः॒ स ए॒ष एक॑ एक॒वृदेक॑ ए॒व ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒दम् । निऽग॑तम् । सह॑: । स: । ए॒ष: । एक॑: । ए॒क॒ऽवृत् । एक॑: । ए॒व ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इदम् । निऽगतम् । सह: । स: । एष: । एक: । एकऽवृत् । एक: । एव ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( सः ) = वह परमेश्वर ( सर्वस्मै ) = सब संसार को ( विपश्यति ) = विविध प्रकार से देखता है । ( यत् प्राणति ) = जो श्वास लेता है ( यत् च न ) = और जो सांस नहीं लेता ( तम् इदम् ) = उस परमात्मा को यह सब ( सहः ) = सामर्थ्य ( निगतम् ) = निश्चय करके प्राप्त है। ( स एषः ) = वह आप ( एकः ) = एक ( एकवृत् ) = अकेला वर्त्तमान ( एक एव ) = एक ही है । ( अस्मिन् ) = इस परमेश्वर में ( सर्वे देवा: ) = पृथिवी आदि सब लोक ( एकवृतः भवन्ति ) = एक परमात्मा में वर्त्तमान रहते हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमात्मा प्राणी-अप्राणी सबको देख रहे हैं। वह परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सब लोकों का आधार हो कर सदा एक रस, एक रूप वर्त्तमान है । वेद ने कैसे सुन्दर स्पष्ट शब्दों में बार-बार परमेश्वर की एकता का निरूपण किया है ।
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