अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
सर्वे॑ अस्मिन्दे॒वा ए॑क॒वृतो॑ भवन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑ । अ॒स्मि॒न् । दे॒वा: । ए॒क॒ऽवृत॑: । भ॒व॒न्ति॒ ॥५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे अस्मिन्देवा एकवृतो भवन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वे । अस्मिन् । देवा: । एकऽवृत: । भवन्ति ॥५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( सः ) = वह परमेश्वर ( सर्वस्मै ) = सब संसार को ( विपश्यति ) = विविध प्रकार से देखता है । ( यत् प्राणति ) = जो श्वास लेता है ( यत् च न ) = और जो सांस नहीं लेता ( तम् इदम् ) = उस परमात्मा को यह सब ( सहः ) = सामर्थ्य ( निगतम् ) = निश्चय करके प्राप्त है। ( स एषः ) = वह आप ( एकः ) = एक ( एकवृत् ) = अकेला वर्त्तमान ( एक एव ) = एक ही है । ( अस्मिन् ) = इस परमेश्वर में ( सर्वे देवा: ) = पृथिवी आदि सब लोक ( एकवृतः भवन्ति ) = एक परमात्मा में वर्त्तमान रहते हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमात्मा प्राणी-अप्राणी सबको देख रहे हैं। वह परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सब लोकों का आधार हो कर सदा एक रस, एक रूप वर्त्तमान है । वेद ने कैसे सुन्दर स्पष्ट शब्दों में बार-बार परमेश्वर की एकता का निरूपण किया है ।
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