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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वयो॑निर्ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वं योनि॒मासी॑द साधु॒या। उख्य॑स्य के॒तुं प्र॑थ॒मं जु॑षा॒णाऽ अ॒श्विना॑ऽध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒वक्षि॑ति॒रिति॑ ध्रु॒वऽक्षि॑तिः। ध्रु॒वयो॑नि॒रिति॑ ध्रु॒वऽयो॑निः। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध्रु॒वम्। योनि॑म्। आ। सी॒द॒। सा॒धु॒येति॑ साधु॒ऽया। उख्य॑स्य। के॒तुम्। प्र॒थ॒मम्। जु॒षा॒णा। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धु्रवक्षितिर्ध्रुवयोनिर्ध्रुवासि धु्रवँयोनिमासीद साधुया । उख्यस्य केतुम्प्रथमञ्जुषाणाश्विनाध्वर्यू सादयतामिह त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवक्षितिरिति ध्रुवऽक्षितिः। ध्रुवयोनिरिति ध्रुवऽयोनिः। ध्रुवा। असि। ध्रुवम्। योनिम्। आ। सीद। साधुयेति साधुऽया। उख्यस्य। केतुम्। प्रथमम्। जुषाणा। अश्विना। अध्वर्यूऽइत्यध्वर्यू। सादयताम्। इह। त्वा॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -
    हे पृथिवि ! तू ( ध्रुवक्षितिः ) स्थिर निवास स्थान या स्थिर जनपद वाली है। तु (ध्रुवयोनिः ) स्थिर गृह और स्थान वाली है। तू स्वयं भूमि और आश्रय होकर ( ध्रुवा ) ध्रुव, अप्रकम्प, बसने वाली प्रजा का स्थिर आश्रय है। तू ( ध्रुवं योनिम् ) अपने स्थिर आश्रय पर ही ( साधुया ) उत्तम राज्यप्रबन्ध से (आसीद ) आश्रित होकर रह । तू ( प्रथमं ) सर्वश्रेष्ट, सब से प्रथम (उख्यस्य) 'उखा' पृथिवी के योग्य केतुं ज्ञान को (जुषाणा) सेवन करने वाली ( अध्वर्यू ) स्थिर, नित्य राष्ट्र यज्ञ के सम्पादक हो । ( अश्विना ) विद्या के पर पारंगत ज्ञानी और कर्मिष्ठ विद्वान् शासनादि के दोनों ( त्वा ) तुझको (इह ) इस आश्रय पर ( सादयताम् ) स्थिर करें । स्त्री के पक्ष में - तू स्थिर निवास स्थान वाली, स्थिर आश्रय वाली होने से ध्रुवा है । तू ( साधुया ) उत्तम आचरण पूर्वक और स्थिर पति का आश्रय लेकर विराज । ( उख्यस्य केतुम् ) उखा अर्थात् स्थाली के योग्य पाक आदि विद्या को (प्रथमं जुषाणा) अति प्रेम से करने वाली होकर रह । तुझे (अध्वर्यू अश्विनौ ) अध्वर अर्थात् गृहस्थ यज्ञ या अविनाशी प्रजा तन्तु रूप यज्ञ के अभिलाषी माता पिता विद्वान् जन ( इह सादयताम् ) इस गृहाश्रम में स्थिर करें ॥ शत० ८ । २ । १ । ४॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ देवते । विराड् अनुष्टुप् त्रिष्टुप् वा । गान्धारो धैवतोः वा ॥

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