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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विश्वेदेवा ऋषयः देवता - प्रजापत्यादयो देवताः छन्दः - निचृद्ब्राह्मी पङ्क्तिः,शक्वरी स्वरः - पञ्चमः, धैवतः
    1

    मू॒र्धा वयः॑ प्र॒जाप॑ति॒श्छन्दः॑ क्ष॒त्रं वयो॒ मय॑न्दं॒ छन्दो॑ विष्ट॒म्भो वयोऽधि॑पति॒श्छन्दो॑ वि॒श्वक॑र्मा॒ वयः॑ परमे॒ष्ठी छन्दो॑ ब॒स्तो वयो॑ विब॒लं छन्दो॒ वृष्णि॒र्वयो॑ विशा॒लं छन्दः॒ पु॑रुषो॒ वय॑स्त॒न्द्रं छन्दो॑ व्या॒घ्रो वयोऽना॑धृष्टं॒ छन्दः॑ सि॒ꣳहो वय॑श्छ॒दिश्छन्दः॑ पष्ठ॒वाड् वयो॑ बृह॒ती छन्द॑ऽ उ॒क्षा वयः॑ क॒कुप् छन्द॑ऽ ऋष॒भो वयः॑ स॒तोबृ॑ह॒ती छन्दः॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्धा। वयः॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। छन्दः॑। क्ष॒त्रम्। वयः॑। मय॑न्दम्। छन्दः॑। वि॒ष्ट॒म्भः। वयः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। छन्दः॑। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। वयः॑। प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। छन्दः॑। ब॒स्तः। वयः॑। वि॒ब॒लमिति॑ विऽब॒लम्। छन्दः॑। वृष्णिः॑। वयः॑। वि॒शा॒लमिति॑ विऽशा॒लम्। छन्दः॑। पुरु॑षः। वयः॑। त॒न्द्रम्। छन्दः॑। व्या॒घ्रः। वयः॑। अना॑धृष्टम्। छन्दः॑। सि॒ꣳहः। वयः॑। छ॒दिः। छन्दः॑। प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। वयः॑। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। उ॒क्षा। वयः॑। क॒कुप्। छन्दः॑। ऋ॒ष॒भः। वयः॑। स॒तोबृ॑ह॒तीति॑ स॒तःऽबृ॑हती। छन्दः॑ ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धा वयः प्रजापतिश्छन्दः क्षत्रँवयो मयन्दञ्छन्दो विष्टम्भो वयोधिपतिश्छन्दो विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छन्दो बस्तो वयो विवलञ्छन्दो वृष्णिर्वयो विशालञ्छन्दः पुरुषो वयस्तन्द्रञ्छन्दो व्याघ्रो वयो नाधृष्टञ्छन्दः । सिँहो वयश्छदिश्छन्दः पष्ठवाड्वयो बृहती छन्दऽउक्षा वयः ककुप्छन्दऽऋषभो वयः सतोबृहती छन्दोनड्वान्वयः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्धा। वयः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। छन्दः। क्षत्रम्। वयः। मयन्दम्। छन्दः। विष्टम्भः। वयः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। छन्दः। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्म्मा। वयः। परमेष्ठी। परमेस्थीति परमेऽस्थी। छन्दः। बस्तः। वयः। विबलमिति विऽबलम्। छन्दः। वृष्णिः। वयः। विशालमिति विऽशालम्। छन्दः। पुरुषः। वयः। तन्द्रम्। छन्दः। व्याघ्रः। वयः। अनाधृष्टम्। छन्दः। सिꣳहः। वयः। छदिः। छन्दः। पष्ठवाडिति पष्ठऽवाट्। वयः। बृहती। छन्दः। उक्षा। वयः। ककुप्। छन्दः। ऋषभः। वयः। सतोबृहतीति सतःऽबृहती। छन्दः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 9
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    भावार्थ -
    १. ( मूर्धा ) 'मूर्धा', शिर (वयः) बल, पद या स्थिति है तो ( प्रजापतिः छन्दः ) 'प्रजापति' उसका 'छन्द' अर्थात् स्वरूप है । अर्थात् शिर जिस प्रकार शरीर में सब के ऊपर विराजमान है उसी प्रकार समाज में जो सबसे ऊंचे पद पर स्थित हो उसका कर्त्तव्य प्रजापति का है । वह प्रजापति के समान समस्त प्रजाओं का पालन करे । २. ( क्षत्रं वयः मयन्दं छन्दः ) 'क्षत्र' वय है और 'मयन्द' छन्द है । अर्थात् जो 'क्षत्र' या वीर्यवान् पद पर स्थित है उसका कर्त्तव्य प्रजा को सुख प्रदान करना है । ३. ( विष्टम्भः वयः अधिपतिः छन्दः ) 'विष्टम्भ' वय है और अधिपति छन्द है । अर्थात् जो विविध प्रजाओं को विविध प्रकारों और उपायों से स्तम्भन कर सके, पाल सके वे वैश्य या जो शत्रुओं को विविध दिशाओं से थाम या रोकने में समर्थ हो उसका कर्तव्य 'अधिपति होने का है। वह सबका अधिपति हो कर रहे । ४. ( विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छन्दः ) विश्वकर्मा 'वय' है और 'परमेष्टी' छन्द है । अर्थात् जो पुरुष 'विश्वकर्मा' राज्य के समस्त कार्यों के प्रवर्तक श्रम विभाग के मुख्य पदपर स्थित हैं वे 'परमेष्टी' परम उच्च पद पर स्थित होने योग्य हैं । ५. ( बस्तः वयः विवलं छन्दः ) बस्त 'वय:' है और 'विवल' छन्द । अर्थात् सबको आच्छादित करने वाले पदाधिकारी का कर्त्तव्य है कि वह विविध प्रकार से संवरण, शरीरगोपन के पदार्थों को उपस्थित करे । ६. ( वृष्णि: वयः विशालं छन्दः ) वृष्णि 'वय' है और 'विशाल' छन्द है । अर्थात् जो पुरुष बलवान् सब सुखों को प्रदान करने में समर्थ है उसका कर्तव्य है कि वह विविध ऐश्वर्यों से शोभायमान हो । और अन्यों को भी विविध ऐश्वर्य प्रदान करे । ७. ( पुरुषः वयः तन्द्रं छन्दः ) 'पुरुष' वय है 'तन्द्र' छन्द है । अर्थात् जिसमें पुरुष होने का सामर्थ्य है उसका 'तन्द्र' अर्थात् तन्त्र कुटुम्ब को धारण पोषण करने का कर्त्तव्य है । ८. ( व्याघ्रं वयः अनाधृष्टं छन्दः ) 'व्याघ्र' वय है और 'अनाधृष्ट' छन्द है । जो पुरुष व्याघ्र के समान शूरवीर है उसका कर्त्तव्य है कि वह शत्रु से कभी पराजित न हो । ९. ( सिंहः वयः छदिः छन्दः) 'सिंह' वय है और 'छदि' छन्द है । अर्थात् सिंह के समान बढे २ बलवान् शत्रुओं को भी जो हनन करने में समर्थ है वह प्रजा पर 'छदि' अर्थात् गृह के छत के समान सब को आश्रय देने वाला होकर अपनी छत्र-छाया में रक्खे । १०. ( पृष्ठवाड् वयः बृहती छन्दः ) 'पृष्ठ वाड्' वय है और 'बृहती' छन्द है । अर्थात् जो पीठ से बोझा लादने वाले पशु के समान राष्ट्र के कार्य भार को वहन करने में समर्थ है वह 'बृहती' पृथ्वी के समान बडे कार्य भार को अपने ऊपर ले । ११. ( उक्षा वयः ककुप् छन्दः ) 'उक्षा' वय है और 'ककुप् छन्द है । वीर्य सेचन में समर्थ वृषभ के समान वीर्यवान् पुरुष का कर्त्तव्य 'ककुपू' अर्थात् अपने अधीन प्रजाओं को आच्छादन करना और सब से अपने सरल सत्य व्यवहार से वर्त्तना है । १२. (ऋषभोः वयः सतो बृहती छन्दः ) 'ऋषभ' वय है और 'सतो- बृहती छन्द है । अर्थात् जो सर्वश्रेष्ठ ज्ञानमान से प्रकाशित है उसका कर्त्तव्य 'सतः बृहती' अर्थात् प्राप्त हुए बड़े २ कार्यों का उठाना है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - लिंगोक्ताः प्रजापत्यादयो देवता: । ( १ ) निचृद् ब्राह्मी पंक्ति: । ( २ ) ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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