यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 16
उ॒च्चा ते॑ जा॒तमन्ध॑सो दि॒वि सद्भूम्याद॑दे। उ॒ग्रꣳशर्म॒ महि॒ श्रवः॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒च्चा। ते॒। जा॒तम्। अन्ध॑सः। दि॒वि। सत्। भूमि॑। आ। द॒दे॒। उ॒ग्रम्। शर्म॑। महि॑। श्रवः॑ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रँ शर्म महि श्रवः ॥
स्वर रहित पद पाठ
उच्चा। ते। जातम्। अन्धसः। दिवि। सत्। भूमि। आ। ददे। उग्रम्। शर्म। महि। श्रवः॥१६॥
विषय - उत्तम विद्वानों, नायकों और शासकों से भिन्न-भिन्न कार्यों की कामना ।
भावार्थ -
तेरे हे (सोम) ऐश्वर्यसम्पन्न सूर्य के समान सबके प्रेरक राजन् ! (अन्धसः ते) अखिल विश्व को धारण करने वाले (ते) तेरा जो ( उच्चा दिवि) ऊंचे आकाश में ( सत् ) सत् शक्ति रूप वही ( उग्रम् ) बड़ा बल, ( शर्म ) सुखकारी शरण और ( महि श्रवः ) बड़ा ऐश्वर्यं ( जातम् ) प्रकट होता है उसको (भूमि आददे) भूमि स्वयं ग्रहण करती है, अथवा उसको मैं प्रजाजन (भूमि इव) सर्वोत्पादक सर्वाश्रय रूप से स्वीकार करता हूँ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ १६ - १६ ] आमहीय ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
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