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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 1
    ऋषिः - याज्ञवल्क्य ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - अभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
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    अ॒ग्निश्च॑ पृथि॒वी च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दो वा॒युश्चा॒न्तरि॑क्षं च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽ आ॑दि॒त्यश्च॒ द्यौश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽआपश्च॒ वरु॑णश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दः। स॒प्त स॒ꣳस॒दो॑ऽ अष्ट॒मी भू॑त॒साध॑नी। सका॑माँ॒२॥ऽअध्व॑नस्कुरु सं॒ज्ञान॑मस्तु मे॒ऽमुना॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। च॒। पृ॒थि॒वी। च॒। सन्न॑ते॒ऽइति॒ सम्ऽनते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। वा॒युः। च॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आ॒दि॒त्यः। च॒। द्यौः। च॒। सन्नते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आपः॑। च॒। वरु॑णः। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। स॒प्त। स॒ꣳसद॒ इति स॒म्ऽसदः। अ॒ष्ट॒मी। भू॒त॒साध॒नीति॑ भू॒त॒ऽसाध॑नी। सका॑मा॒निति॒ सऽका॑मान्। अध्व॑नः। कु॒रु॒। सं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒स्तु॒। मे॒। अ॒मुना॑ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । वायुश्चान्तरिक्षञ्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआपश्च वरुणश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । सप्त सँसदोऽअष्टमी भूतसाधनी । सकामाँऽअध्वनस्कुरु सञ्ज्ञानमस्तु मे मुना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। च। पृथिवी। च। सन्नतेऽइति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। वायुः। च। अन्तरिक्षम्। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आदित्यः। च। द्यौः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आपः। च। वरुणः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। सप्त। सꣳसद इति सम्ऽसदः। अष्टमी। भूतसाधनीति भृतऽसाधनी। सकामानिति सऽकामान्। अध्वनः। कुरु। संज्ञानमिति सम्ऽज्ञानम्। अस्तु। मे। अमुना॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -
    (अग्निः च पृथिवी च ) अग्नि अर्थात् सूर्य और पृथिवी दोनों (सं-मते) परस्पर एक दूसरे के अनुकूल रहते हैं । (ते) दोनों (अदः) अमुक प्रेम और अभिलाषा के पात्र को ( मे सं नमताम ) मेरे अनुकूल करें, उसे मेरे प्रति प्रेम से झुकावें । (वायुः च अन्तरिक्षं च) वायु और अन्तरिक्ष दोनों (संनते) परस्पर एक दुसरे के उपकार्य-उपकारक होकर एक दूसरे के अनुकूल रहते हैं । वे दोनों अपने दृष्टान्त से (अदः) अमुक को (मे) मेरे लिये ( सं नमताम् ) प्रेम से संगत करें। (आदित्यः च द्यौः च) सूर्य और आकाश दोनों (संनते) एक दूसरे के साथ उपकार्य-उपकारक भाव से संयुक्त हैं। वे (मे) मेरे लिये ( अदः सं नमताम ) अमुक को अपने दृष्टान्त से मेरे अनुकूल प्रेम व्यवहार युक्त करें। (आपः च वरुणः च) जल और वरुण, महान् समुद्र या मेघ दोनों (संनते) एक दूसरे के अनुकूल होकर रहते हैं । (ते) वे दोनों (मे) मेरे लिये (अदः सं नमताम् ) अमुक को मेरे प्रति प्रेमयुक्त, अनुकूल करें । (सप्त संसदः ) ये सात संसत् हैं, इनके आश्रय समस्त जीव स्थिर हैं इनमें (अष्टमी) आठवीं (भुत-साधनी) समस्त भूतों अर्थात् प्राणियों को अपने वश करती है । अर्थात् अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, आपः और वरुण ये सात 'संसत्' हैं । इनके आश्रय समस्त लोक विराजते हैं । और आठवी पृथ्वी सब प्राणियों को अपने वश में करती है । वह सबको उत्पन्न करती और पालती है । हे राजन् ! तू (अध्वनः) समस्त मार्गों को ( सकामान् ) अपने कामनाकूल कर । ( अमुना ) अमुक-अमुक शक्ति और पदार्थ से (मे संज्ञानम् अस्तु) मुझे सम्यक् अर्थात् सत्य,यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [अ० २६ -४० ] विवस्वान् याज्ञवल्क्यश्च ऋषी । अग्न्यादयो देवताः । अभिकृतिः । ऋषभः ॥

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