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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुतः॒ सम्भृ॑तं पृषदा॒ज्यम्।प॒शूँस्ताँश्च॑क्रे वाय॒व्यानार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मा॑त्। य॒ज्ञात्। स॒र्व॒हुत॒ इति॑ सर्व॒ऽहुतः॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पृ॒ष॒दा॒ज्यमिति॑ पृषत्ऽआ॒ज्यम्। प॒शून्। तान्। च॒क्रे॒। वा॒य॒व्या᳖न्। आ॒र॒ण्याः। ग्रा॒म्याः। च॒। ये ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतम्पृषदाज्यम् । पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मात्। यज्ञात्। सर्वहुत इति सर्वऽहुतः। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। पृषदाज्यमिति पृषत्ऽआज्यम्। पशून्। तान्। चक्रे। वायव्यान्। आरण्याः। ग्राम्याः। च। ये॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 6
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    भावार्थ -
    ( तस्मात् ) उस (सर्वहुतः ) सर्वपूज्य, सर्वसम्मत ( यज्ञात् ) सर्वोपास्य, सबको प्राण आदि सब कुछ देने हारे परमेश्वर, प्रजापति से ( पृषद् - आज्यम् ) दधि, घृत आदि भोग्य पदार्थ (सम्भृतम् ) उत्पन्न हुआ और वह ही ( तानू ) उन ( वायव्यान् ) वायु के समान गुण वाले, तीव्र वेगवान् अथवा (वायव्यान् ) वायु से जीने हारे (पशून् ) पशुओं के ( ये ) जो (आरण्याः) जंगल के सिंह, शूकर आदि और (ग्राम्याः च) ग्राम के गौ, अश्व आदि सबको ( चक्रे ) उत्पन्न करता है ।अथवा - ( पृषदाज्यं सम्भृतम् ) (पृषंत्-आज्यम्) शरीर में पालक और पूरक रूप से विद्यमान वीर्य या शुक्र को व्यक्त रूप में प्रकट करने वाला, अथवा जिस वीर्यं से प्राणियों के नाना देह यथाक्रम सन्तान रूप में बराबर उत्पन्न होते हैं वह वीर्य भी उसी परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुरुषः । विराडनुष्टुप् । गांधारः ॥

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