यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 5
प्र॒जाप॑तिः सम्भ्रि॒यमा॑णः स॒म्राट् सम्भृ॑तो वैश्वदे॒वः स॑ꣳस॒न्नो घ॒र्मः प्रवृ॑क्त॒स्तेज॒ऽउद्य॑तऽआश्वि॒नः पय॑स्यानी॒यमा॑ने पौ॒ष्णो वि॑ष्य॒न्दमा॑ने मारु॒तः क्लथ॑न्। मै॒त्रः शर॑सि सन्ता॒य्यमा॑ने वाय॒व्यो ह्रि॒यमा॑णऽआग्ने॒यो हू॒यमा॑नो॒ वाग्घु॒तः॥५॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। स॒म्भ्रि॒यमा॑ण॒ इति॑ सम्ऽभ्रि॒यमा॑णः। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। सम्भृ॑त॒ इति॒ सम्ऽभृ॑तः। वैश्व॒दे॒व इति॑ वैश्वऽदे॒वः। स॒ꣳस॒न्न इति॑ सम्ऽस॒न्नः। घ॒र्मः। प्रवृ॑क्त॒ इति प्रऽवृ॑क्तः। तेजः॑। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। आ॒श्वि॒नः। प॑यसि। आ॒नी॒यमा॑न॒ इत्या॑ऽनी॒यमा॑ने। पौ॒ष्णः। वि॒ष्य॒न्दमा॑ने। वि॒स्य॒न्दमा॑न॒ इति॑ विऽस्य॒न्दमा॑ने। मा॒रु॒तः। क्लथ॑न् ॥ मै॒त्रः। शर॑सि। स॒न्ता॒य्यमा॑न॒ इति॑ सम्ऽता॒य्यमा॑ने। वा॒य॒व्यः᳖। ह्रि॒यमा॑णः। आ॒ग्ने॒यः। हू॒यमा॑नः। वाक्। हु॒तः ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिः सम्भ्रियमाणः सम्राट्सम्भृतो वैश्वदेवः सँसन्नो घर्मः प्रवृक्तस्तेजऽउद्यतऽआश्विनः पयस्यानीयमाने पौष्णो विष्पन्दमाने मारुतः क्लथन् । मैत्रः शरसि संताय्यमाने वायव्यो हि््रयमाण आग्नेयो हूयमानो वाग्घुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। सम्भ्रियमाण इति सम्ऽभ्रियमाणः। सम्राडिति सम्ऽराट्। सम्भृत इति सम्ऽभृतः। वैश्वदेव इति वैश्वऽदेवः। सꣳसन्न इति सम्ऽसन्नः। घर्मः। प्रवृक्त इति प्रऽवृक्तः। तेजः। उद्यत इत्युत्ऽयतः। आश्विनः। पयसि। आनीयमान इत्याऽनीयमाने। पौष्णः। विष्यन्दमाने। विस्यन्दमान इति विऽस्यन्दमाने। मारुतः। क्लथन्॥ मैत्रः। शरसि। सन्ताय्यमान इति सम्ऽताय्यमाने। वायव्यः। ह्रियमाणः। आग्नेयः। हूयमानः। वाक्। हुतः॥५॥
विषय - प्रजापति प्रभु और परमेश्वर के नाना गुण कर्म स्वभावानुसार नाना नाम ।
भावार्थ -
( संर्भियमाणः ) प्रजाएं जब राजा को नाना ऐश्वर्यों से पुष्ट करती हैं तब वह (प्रजापतिः ) प्रजा का पालक होने से 'प्रजापति' है । (सम्भृताः सम्राट ) वह अच्छी प्रकार परिपुष्ट हो जाता है तब वह प्रजा में उत्तम रीति से सर्वत्र ऐश्वर्य से प्रकाशित होने से 'सम्राट् ' है । (संसन्नः वैश्वदेवः) अच्छी प्रकार राजसभा में विराज कर समस्त विद्वानों से आदर पाने के कारण 'वैश्वदेव' है । (प्रविक्तः धर्मः) ऊंचे आसन को प्राप्त होकर वह तेजस्वी होने से 'धर्म' है । (उद्यतः तेजः) उन्नत पद पर स्थिर होकर वह तेजस्वी एवं तीक्ष्ण स्वभाव होने से 'तेज' या सूर्य के समान है । ( पयसि आश्विनः ) जल द्वारा अभिषेक कर लेने पर स्त्री पुरुष अथवा राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों द्वारा अभिषित होने के कारण वह 'आश्विन' है | ( विस्यन्दमाने पौष्ण: ) विशेषरूप से वेग से गमन करते हुए वह राजा पृथिवी के हित के लिये प्रवृत्त होने के कारण 'पौष्ण' है । (क्लथन् मारुत्) जब वह शत्रुओं का नाश कर रहा होता है तब वह मारने वाले सैनिकों का स्वामी होने से 'मारुत' है । (शरसि संताय्यमाने मैत्रः) शत्रुनाशक सेनाबल के स्थान स्थान पर विस्तृत कर देने पर अथवा जलाशय, तड़ाग आदि कृषि के साधनों के फैला देने पर वह (मैत्रः) प्रजा के प्रति स्नेहवान् और प्रजा को भरण पोषण से रक्षा करने वाला होने से वह सूर्य के समान तेजस्वी राजा 'मित्र' है । (वायव्य : हियमाणः ) वेग से युद्धक्षेत्र में स्थादि साधनों से जाता हुआ वह 'वायु' के समान तीव्रगामी होकर शत्रु की जड़ों को हिला देने वाला होने से 'वायव्य ' है । (हूयमानः आग्नेयः) वह बराबर शत्रु के ऐश्वर्यों से उनके शरीर से मानो आहुति पाता हुआ, अनि के समान प्रचण्ड होने के कारण 'आग्नेय' है । (हुत: चाक् ) सब प्रजाओं द्वारा अपना राजा स्वीकार किया जाकर, सबको आज्ञा देने वाला होने से 'वाक्' स्वरूप है । वह सबको आज्ञा देता है । इस प्रकार ये १२ स्वरूप राजा के समझने चाहिये ।
टिप्पणी -
५ – विष्कन्दयाव० इतं काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्महावीरः । कृतिः । निषादः ॥
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