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यजुर्वेद अध्याय - 39

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  • यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - दिगादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    दि॒ग्भ्यः स्वाहा॑ च॒न्द्राय॒ स्वाहा॒ नक्ष॑त्रेभ्यः॒ स्वाहा॒ऽद्भ्यः स्वाहा॒ वरु॑णाय॒ स्वाहा॑। नाभ्यै॒ स्वाहा॑ पू॒ताय॒ स्वाहा॑॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒ग्भ्य इति॑ दि॒क्ऽभ्यः। स्वाहा॑। च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑। नक्ष॑त्रेभ्यः। स्वाहा॑। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। स्वाहा॑। वरु॑णाय। स्वाहा॑ ॥ नाभ्यै॑। स्वाहा॑। पू॒ताय॑। स्वाहा॑ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिग्भ्यः स्वाहा चन्द्राय स्वाहा नक्षत्रेभ्यः स्वाहा अद्भ्यः स्वाहा वरुणाय स्वाहा । नाभ्यै स्वाहा पूताय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिग्भ्य इति दिक्ऽभ्यः। स्वाहा। चन्द्राय। स्वाहा। नक्षत्रेभ्यः। स्वाहा। अद्भ्य इत्यत्ऽभ्यः। स्वाहा। वरुणाय। स्वाहा॥ नाभ्यै। स्वाहा। पूताय। स्वाहा॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 39; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    (दिग्भ्यः) दिशाओं और उनके वासी प्रजाओं को (चन्द्राय ) चन्द्र के समान आह्लादक राजा को (नक्षत्रेभ्यः स्वाहा ) नक्षत्रों के समान अपने स्थान से विचलित न होने वाले वीर पुरुषों को (भदुद्भ्यः) जलों के समान शीतल स्वभाव, मल, पाप के दूर करने वाले आप्त पुरुषों को अपने में (वरुणस्य) मेघ और समुद्र के समान सर्वश्रेष्ठ राजा को (नाभ्यै) सबको बांध लेने वाले, नाभि के समान केन्द्रस्थ पुरुष को ( पूताय) पवित्र करने वाले स्वयं पवित्र पुरुष को (स्वाहा ) मान, आदर, अन्न, यश प्राप्त हो । (२) अथवा - ( १ ) मन सहित समस्त प्राणों को बलवान् करने के लिये उत्तम साधन करो । पृथिवी, अग्नि, अन्तरिक्ष, वायु, आकाश और सूर्य इनको सुखकारी बनाने के लिये उत्तम साधन करो। (२) दिशाएं, चन्द्र, नक्षत्र, जल, समुद्र, नाभि और शरीर की पवित्रता के लिये भी उत्तम साधनों का प्रयोग करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दिगादयः । भुरिग् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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