यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 33
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
1
स॒मु॒द्रोऽसि वि॒श्वव्य॑चाऽअ॒जोऽस्येक॑पा॒दहि॑रसि बु॒ध्न्यो वाग॑स्यै॒न्द्रम॑सि॒ सदोऽ॒स्यृत॑स्य द्वारौ॒ मा मा॒ सन्ता॑प्त॒मध्व॑नामध्वपते॒ प्र मा॑ तिर स्व॒स्ति मे॒ऽस्मिन् प॒थि दे॑व॒याने॑ भूयात्॥३३॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। अ॒जः। अ॒सि॒। एक॑पा॒दित्येक॑ऽपात्। अहिः॑। अ॒सि॒। बु॒ध्न्यः᳖। वाक्। अ॒सि॒। ऐ॒न्द्रम्। अ॒सि॒। स॒दः॑। अ॒सि॒। ऋत॑स्य। द्वा॒रौ॒। मा। मा॒। सम्। ता॒प्त॒म्। अध्व॑नाम्। अ॒ध्व॒प॒त॒ इत्य॑ध्वऽपते। प्र। मा॒। ति॒र। स्व॒स्ति। मे॒। अ॒स्मिन्। प॒थि। दे॒व॒यान॒ इति॑ देव॒ऽयाने॑। भू॒या॒त् ॥३३॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रोसि विश्वव्यचाऽअजो स्येकपादहिरसि बुध्न्यो वागस्यैन्द्रमसि सदोस्यृतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तमध्वनामध्वपते प्र मातिर स्वस्ति मेस्मिन्पथि देवयाने भूयान्मित्रस्य मा॥
स्वर रहित पद पाठ
समुद्रः। असि। विश्वव्यचा इति विश्वऽव्यचाः। अजः। असि। एकपादित्येकऽपात्। अहिः। असि। बुध्न्यः। वाक्। असि। ऐन्द्रम्। असि। सदः। असि। ऋतस्य। द्वारौ। मा। मा। सम्। ताप्तम्। अध्वनाम्। अध्वपत इत्यध्वऽपते। प्र। मा। तिर। स्वस्ति। मे। अस्मिन्। पथि। देवयान इति देवऽयाने। भूयात्॥३३॥
विषय - राजा के कुछ उच्च अधिकारसूचक पद ।
भावार्थ -
हे विद्वन् ! और हे ईश्वर ! तू ( विश्वव्यचा ) समस्त विश्व में व्यापक अपने समस्त राष्ट्रवासी जनों में व्यापक, उनको प्राप्त, और ( समुद्रः असि ) समुद्र के समान, अगाध ज्ञान और ऐश्वर्य से सम्पन्न . और समुद्र के समान गंभीर और अक्षय है। हे ईश्वर ! तू ( एकपात् ) एकस्वरूप, एकमात्र अद्वितीय, या अपने एक चेतन रूप में ही समस्त विश्वको धारण करने हारा और ( अजः असि ) कभी शरीर में बद्ध होकर उत्पन्न न होने वाला, अनादि है। हे राजन् ! तू भी ( एकपात् अजः असि ) एकछत्र राजा के रूप में ज्ञात और राष्ट्र में व्यापक है । हे ईश्वर ! सू ( बुध्न्यः ) सब के मूल आश्रय में विराजमान और ( अहिः यसि ) अवि- नाशी कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता । हे सेनापते ! तू राष्ट्र का (बुध्न्यः ) आश्रय और (अहिः) किसी से न मारने योग्य, सब से अधिक बलवान् है । हे ईश्वर ! तू (ऐन्द्रम् असि, वाग् असि ) इन्द्र, ऐश्वर्यमय है और तू वाणी, ज्ञान मन वेदरूप है । हे विद्वन् ! तू इन्द्र के पद का स्वामी और वाक्, सबका उपदेष्टा आज्ञापक है । हे ईश्वर ! तू ( सदः ) सबका आश्रय स्थान है । हे विद्वत्सभे ! तू भी ( सद: असे ) स्वयं परिषद् या विद्वानों का आश्रय स्वरूप है | हे ( ऋतस्य ) सत्य व्यवहार के ( द्वारौ ) द्वार भूत दण्ड कर्त्ता और न्यायकर्त्ता ! तुम दोनों ! ( मा ) मुझ सत्यवादी प्रजाजन को ( मा संताप्तम् ) कष्ट मत दो, पीड़ित मत करो। है ( अध्वपते ) समस्त मार्गों के स्वामिन् ! ( मा ) मुझको (अध्वनाम् ) सब मार्गों के ( प्र तिर ) पार उतार दे । ( अस्मिन् ) इस ( देवयाने ) देव विद्वानों के चलने योग्य ( पथि ) मोक्ष मार्ग में (मे) मेरा ( स्वस्ति भूयात् ) सदा कल्याण हो । हे राजन् ! तेरे इस ( देवयान ) विद्वानों के जाने योग्य सदाचार रूप मार्ग में या राजोचित मार्ग में चलते हुए मेरा सदा कल्याण हो।
टिप्पणी -
३३- “ बुध्न्यः सम्राडसि० ० सूदनः [३२] समूझोसिविश्ववेदा उठातिरिक्तस्य प्रतिष्ठा ।' इति० काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्रजापतिःऋषिः।ब्रह्मासनं, शालाद्वार्यः, प्राजहितः, सदः, द्वार्ये, सूर्यश्व अग्निर्वा देवता । ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
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