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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 24
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - सूर्यविद्वांसौ देवते छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    स्व॒राड॑सि सपत्न॒हा स॑त्र॒राड॑स्यभिमाति॒हा ज॑न॒राड॑सि रक्षो॒हा स॑र्व॒राड॑स्यमित्र॒हा॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। स॒त्र॒राडिति॑ सत्र॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। ज॒न॒राडिति॑ जन॒ऽराट्। अ॒सि॒। र॒क्षो॒हेति॑ रक्षः॒ऽहा। स॒र्व॒राडिति॑ सर्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒मि॒त्र॒हेत्य॑मित्र॒ऽहा ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वराडसि सपत्नहा सत्रराडस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वराडस्यमित्रहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वराडिति स्वऽराट्। असि। सपत्नहेति सपत्नऽहा। सत्रराडिति सत्रऽराट्। असि। अभिमातिहेत्यभिमातिऽहा। जनराडिति जनऽराट्। असि। रक्षोहेति रक्षःऽहा। सर्वराडिति सर्वऽराट्। असि। अमित्रहेत्यमित्रऽहा॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 24
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    भावार्थ -

     हे राजन् ! तू (स्वराट् ) स्वयं सर्वोपरि विराजमान, ( सपत्नहा ) शत्रुओं का नाश करने वाला ( असि ) है । 'तू ( अभिमातिहा ) अभिमान करने वाले, गर्वाले शत्रुओं का हन्ता और ( सत्रराट् ) सत्रों, यज्ञों में विदव्सभाओं, या एकत्र परस्पर की रक्षा करने वाले संघों में सर्वोपरि विराजमान ( अति ) होता है । हे राजन् ! तू ( रक्षोहा ) राक्षम, विह्नकारी पुरुषों का नाशक होकर ( जनराड् असि ) समस्त जनों पर राजा के समान विराजता है। तू ( अमित्रहा ) अमित्र, न स्नेह करने वाले शत्रुओं का नाशक होकर सर्वराट् असि ) समस्त प्रजाओं व राजा के रूप में विराजमान होता है ॥ ' 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     प्रजापतिःऋषिः।उपरवाः सूर्यविद्वांसौ वा देवता । भुरिगार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥

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