यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 40
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
1
अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूर्मय्यभू॑दे॒षा सा त्वयि॒ यो मम॑ त॒नूस्त्वय्यभू॑दि॒यꣳ सा मयि॑। य॒था॒य॒थं नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒रम॒ꣳस्तानु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः॥४०॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। ते॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। मयि॑। अभू॑त्। ए॒षा। सा। त्वयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। तनूः। त्वयि॑। अभू॑त्। इ॒यम्। सा। मयि॑। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। नौ। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॑ दीक्षाऽप॑तिः। अमं॑स्त। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने व्रतपास्त्वे व्रतपा या तव तनूर्मय्यभूदेषा सा त्वयि यो मम तनूस्त्वय्यभूदियँ सा मयि । यथायथन्नौ व्रतपते व्रतान्यनु मे दीक्षान्दीक्षापतिरमँस्तानु तपस्तपस्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। व्रतपा इति व्रतऽपाः। ते। व्रतपा इति व्रतऽपाः। या। तव। तनूः। मयि। अभूत्। एषा। सा। त्वयि। योऽइति यो। मम। तनूः। त्वयि। अभूत्। इयम्। सा। मयि। यथायथमिति यथाऽयथम्। नौ। व्रतपत इति व्रतऽपते। व्रतानि। अनु। मे। दीक्षाम्। दीक्षापतिरिति दीक्षाऽपतिः। अमंस्त। अनु। तपः। तपस्पतिरिति तपःऽपतिः॥४०॥
विषय - गुरु शिष्य और राजा और प्रजा के परस्पर व्रत पालन की प्रतिज्ञा ।
भावार्थ -
नियुक्त शासक जन राजा से अधिकार पद की दीक्षा इस प्रकार लेते हैं - हे अग्ने ! राजन् ! हे (व्रतपाः) समस्त व्रत अर्थात् राज्य कार्यों को पालन करनेहारे ( त्वाम् ) । तुझको हम वचन देते हैं कि (या) जो ( एवं ) तेरे (व्रतपाः ) व्रतों, राज्य कार्यों और परस्पर के सत्य प्रतिज्ञाओं के पालन करनेवाला (तनूः ) स्वरूप ( मयि ) सुख में ( अभूत् ) है ( एषा सा ) यह वह ( त्वयि ) तुझ में भी हो । ( यो=या उ ) और जो ( मम) मेरा ( तनूः ) स्वरूप ( त्वयि ) तुझ में ( अभूद् ) विद्यमान है ( सा इयम् ) वह यह (मयि) मेरे में हो, अर्थात् राजा के शासकरूप से सोंपे अधिकार जो वह अपने अधीन अधिकारियों को प्रदान करता है वे राजा के ही समझे जांय । और जो अधिकार राजा के हैं वे कार्यनिर्वाह के अवसर पर अधिकारियों के समझे जांय, इस प्रकार राजा और राजकर्मचारी एक दूसरे के अधीन होकर रहें । हे (व्रतपते) व्रतों के पालक राजन् ! हम दोनों के ( व्रतानि ) कर्तव्य कर्म ( यथायथम् ) ठीक ठीक प्रकार से, उचित अधिकारों के अनुरूप रखें। ( दीक्षापतिः ) दीक्षा अर्थात् अधिकारदान का स्वामी तू राजा ( मे )मुझे ( दीक्षाम् ) योग्य पदाधिकार की प्राप्ति की ( अनु अमंस्व) अनुमति दे। और (तपस्पतिः) तप अर्थात् अपराधियों को सन्तप्त करने या दण्ड देने के सब अधिकारों का स्वामी राजा मुझको ( तपः ) दण्ड देने के भी अधिकार की ( अनु अमंस्त ) उचित रीति से अनुमति दे ॥
राजा और उसके अधीन शासकों का सा ही सम्बन्ध गुरु शिष्य का है । वे भी परस्पर इसी प्रकार प्रतिज्ञा करते हैं । हे अग्ने ! आचार्य ! तू व्रतका पालक है । तेरे भीतर जो विद्या का विस्तार है वह मुझे प्राप्त हो । मेरा विद्याभ्यास एवं हृदय तेरे भीतर रहे। हम दोनों के व्रत ठीक २ रहें । समस्त दीक्षाओं के लिये दीक्षापति, आचार्य एवं परमेश्वर अनुमति दे । तपस्पती, हमारे तपों की अनुमति दे। हमें वह दीक्षाएं दे और तपस्याएं करने का आदेश दे ॥
टिप्पणी -
४० -- ० सात्वापि यामम० इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्रजापतिःऋषिः।अग्निदेवता । निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । गांधारः ॥
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