यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 40
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
137
अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूर्मय्यभू॑दे॒षा सा त्वयि॒ यो मम॑ त॒नूस्त्वय्यभू॑दि॒यꣳ सा मयि॑। य॒था॒य॒थं नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒रम॒ꣳस्तानु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः॥४०॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। ते॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। मयि॑। अभू॑त्। ए॒षा। सा। त्वयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। तनूः। त्वयि॑। अभू॑त्। इ॒यम्। सा। मयि॑। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। नौ। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॑ दीक्षाऽप॑तिः। अमं॑स्त। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने व्रतपास्त्वे व्रतपा या तव तनूर्मय्यभूदेषा सा त्वयि यो मम तनूस्त्वय्यभूदियँ सा मयि । यथायथन्नौ व्रतपते व्रतान्यनु मे दीक्षान्दीक्षापतिरमँस्तानु तपस्तपस्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। व्रतपा इति व्रतऽपाः। ते। व्रतपा इति व्रतऽपाः। या। तव। तनूः। मयि। अभूत्। एषा। सा। त्वयि। योऽइति यो। मम। तनूः। त्वयि। अभूत्। इयम्। सा। मयि। यथायथमिति यथाऽयथम्। नौ। व्रतपत इति व्रतऽपते। व्रतानि। अनु। मे। दीक्षाम्। दीक्षापतिरिति दीक्षाऽपतिः। अमंस्त। अनु। तपः। तपस्पतिरिति तपःऽपतिः॥४०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
व्रतपा अग्ने विद्वांस्त्वं यथा मे व्रतपा अभूत्, यथा तेऽहं व्रतपा भवेयम्। या तव तनूः सा मयि भवतु, यैषा त्वयि मतिरस्ति सा मयि स्यात्। यो या मम तनूः सा त्वयि भवतु। हे व्रतपते! यथाऽयं जनो व्रतपतिर्भवति तथा त्वं चाहं च नौ सखायौ भूत्वा यथायथं व्रतानि सत्याचरणान्यनुचरेव। हे मित्र! यथा तव दीक्षापतिस्तुभ्यं दीक्षाममंस्त तथा मे मम दीक्षामन्वमंस्त। यथा ते तव तपस्पतिस्त्वदर्थं तपोऽन्वमंस्त तथा मे ममापि तपस्पतिर्मदर्थं तपोऽमंस्त॥४०॥
पदार्थः
(अग्ने) विज्ञानोन्नत (व्रतपाः) यथा सत्यपालको विद्वांस्तथा तत्सम्बुद्धौ (ते) तव (व्रतपाः) पूर्ववत् (या) (तव) (तनूः) व्याप्तिनिमित्तं शरीरम् (मयि) त्वत्सखे (अभूत्) भवतु (एषा) समक्षे वर्त्तमाना (सा) (त्वयि) मन्मित्रे (यो) या (मम) (तनूः) विद्याविस्तृतिः (त्वयि) मदध्यापके (अभूत्) भवति (इयम्) गोचरा (सा) (मयि) त्वच्छिष्ये (यथायथम्) यथार्थम् (नौ) आवाम् (व्रतपते) यथा सत्यानां रक्षकस्तथा तत्सम्बुद्धौ (व्रतानि) नियतानि सत्याचरणानि (अनु) पश्चादर्थे (मे) मम (दीक्षाम्) व्रतोपदेशम् (दीक्षापतिः) यथाव्रतादेशपालकः (अमंस्त) मन्यते तथा पश्चाद्योगे (तपः) प्राक्क्लेशमुत्तरानन्दं ब्रह्मचर्य्यम् (तपस्पतिः) यथा ब्रह्मचर्य्यादिपालकः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। ३। २१) व्याख्यातः॥४०॥
भावार्थः
यथा पूर्वं विद्वत्कारिणोऽध्यापका अभूवन् तथाऽस्मदादिभिरपि भवितव्यम्। यावन्मनुष्याः सुखदुःखहानिलाभव्यवस्थायां परस्परं स्वात्मवन्न वर्त्तन्ते, न तावत्पूर्णं सुखं लभन्ते तस्मादेतत्सर्वं मनुष्यैः कुतो नानुष्ठेयमिति॥४०॥
विषयः
पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
व्रतपाः यथा सत्यपालको विद्वांस्तथा तत्सम्बुद्धौ अग्ने! विज्ञानोन्नत! विद्वांस्त्वं यथा मे व्रतपाः सत्यपालको विद्वान् अभूत् भवतु तथा ते तव अहं व्रतया भवेयम्। या तव तनूः व्याप्तिनिमित्तं शरीरं सा मयि त्वत्सखे भवतु,यैषा समक्षे वर्त्तमाना त्वयि मन्मित्रे मतिरस्तीयं गोचरा सा मयि स्यात्। यो=या मम तनूःविद्याविस्तृतिः सा त्वयि मदध्यापके भवतु। हे व्रतपते ! यथा सत्यानां रक्षकस्तथा तत्सम्बुद्धौ यथाऽयं जनो व्रतपतिरभूत्=भवति तथा त्वं चाहं च नौ आवां सखायौ भूत्वा यथायथं यथार्थं व्रतानि=सत्याचरणानि नियतानि सत्याचरणानि अनुचरेव। हे मित्र ! यथा तव दीक्षापतिः यथा व्रतादेशपालकः तुभ्यं दीक्षां व्रतोपदेशम् अमँस्त मन्यते तथा मे=मम व्रतोपदेशम् दीक्षां अन्वमँस्त । यथा ते=तव तपस्पतिःयथा ब्रह्मचर्यादिपालकः त्वदर्थं तपः प्राक्क्लेशमुत्तरानन्दं ब्रह्मचर्य्यम् अन्वमंस्त पश्चान्मन्यते यथा मे= ममापि तपस्पतिः ब्रह्मचर्यादिपालक: मदर्थं तपः प्राक्क्लेशमुत्तरानन्दं ब्रह्मचर्यम् अमँस्त।। ५ । ४० ।। [व्रतपाअग्ने विद्वांस्त्वं यथा मे व्रतपा अभूत्, तथा ते ऽहं व्रतपा भवेयम्]
पदार्थः
(अग्ने) विज्ञानोन्नत (व्रतपाः) यथा सत्यपालको विद्वांस्तथा तत्सम्बुद्धौ (ते) तव (व्रतपाः) पूर्ववत् (या) (तव) (तनूः) व्याप्तिनिमित्तं शरीरम् (मयि) त्वत्सखे (अभूत्) भवतु (एषा) समक्षे वर्त्तमाना (सा) (त्वयि) मन्मित्रे (यो) या (मम) (तनूः) विद्याविस्तृतिः (त्वयि) मदध्यापके (अभूत्) भवति (इयम्) गोचरा (सा) (मयि) त्वच्छिष्ये (यथायथम्) यथार्थम् (नौ) आवाम् (व्रतपते) यथा सत्यानां रक्षकस्तथा तत्सम्बुद्धौ (व्रतानि) नियतानि सत्याचरणानि (अनु) पश्चादर्थे (मे) मम (दीक्षाम्) व्रतोपदेशम् (दीक्षापतिः) यथाव्रतादेशपालकः (अमंस्त) मन्यते तथा (अनु) पश्चाद्योगे (तपः) प्राक्क्लेशमुत्तरानन्दं ब्रह्मचर्य्यम् (तपस्पतिः) यथा ब्रह्मचर्य्यादिपालकः॥ अयं मन्त्रः शत० ३। ६। ३। २१ व्याख्यातः॥ ४० ॥
भावार्थः
यथा पूर्वं विद्वत्कारिणोऽध्यापका अभूवन् तथाऽस्मदादिभिरपि भवितव्यम्। [त्वं चाहं च नौ सखायौ भूत्वा यथायथं व्रतानि=सत्याचरणान्यनुचरेव] यावन्मनुष्याः सुखदुःखहानिलाभव्यवस्थायां परस्परं स्वात्मवन्न वर्त्तन्ते न तावत् पूर्णं सुखं लभन्ते, तस्मादेतत्सर्वं मनुष्यैः कुतो नानुष्ठेयम्।।५ । ४० ।।
विशेषः
अगस्त्यः। अग्निः=आचार्यः शिष्यश्च । निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(व्रतपाः) जैसे सत्य का पालने हारा विद्वान् हो वैसे (अग्ने) हे विशेष ज्ञानवान् पुरुष! जो मेरा (व्रतपाः) सत्यविद्या गुणों का पालने हारा आचार्य्य (अभूत्) हुआ था, वैसे मैं (ते) तेरा होऊं (या) जो (तव) तेरी (तनूः) विद्या आदि गुणों में व्याप्त होने वाला देह है (सा) वह (मयि) तेरे मित्र मुझ में भी हो (एषा) यह (त्वयि) मेरे मित्र मुझ में भी हो (यो) जो (मम) मेरी (तनूः) विद्या की फैलावट है (सा) वह (त्वयि) मेरे पढ़ाने वाले तुझ में हो (इयम्) यह (मयि) तेरे शिष्य मुझ में बुद्धि हो। (व्रतपते) हे सत्य आचरणों के पालने हारे! जैसे सत्य गुण, सत्य उपदेश का रक्षक विद्वान् होता है, वैसे मैं और तू (यथायथम्) यथायुक्त मित्र होकर (व्रतानि) सत्य आचरणों का वर्त्ताव वर्त्तें। हे मित्र! जैसे (तव) तेरा (दीक्षापतिः) यथोक्त उपदेश का पालने हारा तेरे लिये (दीक्षाम्) सत्य का उपदेश (अमंस्त) करना जान रहा है, वैसे मेरा मेरे लिये (अनु) जाने। जैसे तेरा (तपस्पतिः) अखण्ड ब्रह्मचर्य्य को पालनेहारा आचार्य तेरे लिये (तपः) पहिले क्लेश और पीछे सुख देने हारे ब्रह्मचर्य्य को करना जान रहा है, वैसे मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य्य का पालने हारा मेरे लिये जाने॥४०॥
भावार्थ
जैसे पहिले विद्या पढ़ाने वाले अध्यापक लोग हुए वैसे हम लोगों को भी होना चाहिये। जब तक मनुष्य सुख-दुःख, हानि और लाभ की व्यवस्था में परस्पर अपने आत्मा के तुल्य दूसरे को नहीं जानते, तब तक पूर्ण सुख को प्राप्त नहीं होते, इस से मनुष्य लोग श्रेष्ठ व्यवहार ही किया करें॥४०॥
विषय
व्रत-पूरण [ पूर्ति ]
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में पाशमुक्त होने का उल्लेख है। इस पाशमुक्ति के लिए इसी अध्याय के छठे मन्त्र में व्रत ग्रहण की अनुमति ली थी। अब उद्देश्य पूरा हो जाने पर ऐसा कहते हैं कि प्रभु ने मुझे व्रत-पालन की अनुमति दी। प्रभु के साहाय्य से मैंने व्रतों का पालन किया और मुझे मोक्ष का लाभ हुआ।
२. मन्त्र में कहते हैं कि ( अग्ने ) = हे अग्ने! आगे ले-चलनेवाले प्रभो! ( व्रतपाः ) = आप व्रतों का पालन करनेवाले हो। वस्तुतः व्रतों का पालन करनेवाला ही आगे बढ़ा करता है।
३. हे प्रभो! ( ते ) = आपमें रहनेवाले व्यक्ति ही ( व्रतपाः ) = व्रतों की रक्षा करनेवाले होते हैं। व्रतों को धारण करने से ही प्रभु के अधिक और अधिक समीप होते जाते हैं। ( या तव तनूः ) = जो तेरा स्वरूप है ( एषा सा त्वयि ) = यह तुझमें होनेवाला स्वरूप ( मयि ) = मुझमें ( अभूत् ) = होता है। ( उ ) = और ( या मम तनूः ) = जो मेरा स्वरूप है ( इयं सा मयि ) = यह मुझमें रहनेवाला रूप ( त्वयि अभूत् ) = तुझमें होता है। व्रतों के पालन से मैं इस प्रकार ऊपर उठता हूँ कि तुझसे अभिन्न-सा हो जाता हूँ। मैं ‘तू’ और तू ‘मैं’ की स्थिति हो जाती है।
४. हे ( व्रतपते ) = व्रतों के रक्षक प्रभो! ( यथायथं नौ व्रतानि ) = हमारे व्रत बिल्कुल ठीक-ठीक हों। ( दीक्षापतिः ) = व्रत ग्रहण के पति प्रभु ने ( मे दीक्षाम् ) = मेरे व्रत ग्रहण की ( अन्वमंस्त ) = अनुमति दी। उस ( तपस्पतिः ) = तप के पति प्रभु ने ( तपः अन्वमंस्त ) = तप की अनुमति दी। इस तप के द्वारा ही मैं व्रतों को पूरा कर पाया हूँ।
भावार्थ
भावार्थ —प्रभु ‘व्रतपा’ है। उनका उपासक मैं भी व्रतपा बनूँ।
विषय
गुरु शिष्य और राजा और प्रजा के परस्पर व्रत पालन की प्रतिज्ञा ।
भावार्थ
नियुक्त शासक जन राजा से अधिकार पद की दीक्षा इस प्रकार लेते हैं - हे अग्ने ! राजन् ! हे (व्रतपाः) समस्त व्रत अर्थात् राज्य कार्यों को पालन करनेहारे ( त्वाम् ) । तुझको हम वचन देते हैं कि (या) जो ( एवं ) तेरे (व्रतपाः ) व्रतों, राज्य कार्यों और परस्पर के सत्य प्रतिज्ञाओं के पालन करनेवाला (तनूः ) स्वरूप ( मयि ) सुख में ( अभूत् ) है ( एषा सा ) यह वह ( त्वयि ) तुझ में भी हो । ( यो=या उ ) और जो ( मम) मेरा ( तनूः ) स्वरूप ( त्वयि ) तुझ में ( अभूद् ) विद्यमान है ( सा इयम् ) वह यह (मयि) मेरे में हो, अर्थात् राजा के शासकरूप से सोंपे अधिकार जो वह अपने अधीन अधिकारियों को प्रदान करता है वे राजा के ही समझे जांय । और जो अधिकार राजा के हैं वे कार्यनिर्वाह के अवसर पर अधिकारियों के समझे जांय, इस प्रकार राजा और राजकर्मचारी एक दूसरे के अधीन होकर रहें । हे (व्रतपते) व्रतों के पालक राजन् ! हम दोनों के ( व्रतानि ) कर्तव्य कर्म ( यथायथम् ) ठीक ठीक प्रकार से, उचित अधिकारों के अनुरूप रखें। ( दीक्षापतिः ) दीक्षा अर्थात् अधिकारदान का स्वामी तू राजा ( मे )मुझे ( दीक्षाम् ) योग्य पदाधिकार की प्राप्ति की ( अनु अमंस्व) अनुमति दे। और (तपस्पतिः) तप अर्थात् अपराधियों को सन्तप्त करने या दण्ड देने के सब अधिकारों का स्वामी राजा मुझको ( तपः ) दण्ड देने के भी अधिकार की ( अनु अमंस्त ) उचित रीति से अनुमति दे ॥
राजा और उसके अधीन शासकों का सा ही सम्बन्ध गुरु शिष्य का है । वे भी परस्पर इसी प्रकार प्रतिज्ञा करते हैं । हे अग्ने ! आचार्य ! तू व्रतका पालक है । तेरे भीतर जो विद्या का विस्तार है वह मुझे प्राप्त हो । मेरा विद्याभ्यास एवं हृदय तेरे भीतर रहे। हम दोनों के व्रत ठीक २ रहें । समस्त दीक्षाओं के लिये दीक्षापति, आचार्य एवं परमेश्वर अनुमति दे । तपस्पती, हमारे तपों की अनुमति दे। हमें वह दीक्षाएं दे और तपस्याएं करने का आदेश दे ॥
टिप्पणी
४० -- ० सात्वापि यामम० इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।अग्निदेवता । निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
फिर वे आचार्य और शिष्य कैसे बर्ताव करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
(व्रतपाः) सत्य का पालन करने वाले (अग्ने) विज्ञान से समुन्नत विद्वान्! आप जैसे मेरे (व्रतपाः) सत्य व्रतों का पालन करने वाले आचार्य (अभूत्) हो, वैसे मैं (ते) आपके बतलाये व्रतों का पालन करने वाला बनूँ। और-- जो आपका (तनूः) विद्यादि कार्यों में व्याप्ति का निमित्त शरीर है, वह (मयि) आपके सखा मुझ में रहे। और जो (एषा) यह (त्वयि) मेरे मित्र आप में बुद्धि है, वह (मयि) मुझ में हो। और-- (यो) जो (मम) मेरा (तनूः) विद्या का विस्तार है (सा) वह (त्वयि) मेरे अध्यापक में हो । हे (व्रतपते) सत्य भाषण आदि व्रतों के रक्षक! जैसे यह व्यक्ति व्रतपति है, वैसे आप और मैं एवं दोनों मित्र मिलकर (यथायथम्) वास्तव में उसके (व्रतानि) सत्य व्यवहार आदि व्रतों का अनुकरण करें। हे मित्र ! जैसे आपका (दीक्षापतिः) व्रतादेशों का पालन करने वाला आचार्य तुझे (दीक्षाम्) व्रतोपदेश को (अमँस्त) समझता है, वैसे (मे) मेरे (दीक्षाम्) व्रतोपदेश को भी बतलाये। जैसे (ते) आपका (तपस्पतिः) ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने वाला आचार्य आपको (तपः) पहले कष्ट और बाद में आनन्द देने वाले ब्रह्मचर्य की (अन्वमँस्त) शिक्षा देता है, वैसे (मे) मेरा (तपस्पतिः) ब्रह्मचर्य्य आदि का पालन करने वालाआचार्य मेरे (तपः) पहले कष्ट और बाद में आनन्द देने वाले ब्रह्मचर्य की (अमँस्त) शिक्षा करे। ५ । ४० ।।
भावार्थ
जैसे पहले विद्वानों को बनाने वाले अध्यापक लोग हुये हैं वैसे हम भी बनें । जब तक सब मनुष्य सुख-दुःख तथा हानि-लाभ की व्यवस्था में परस्पर अपनी आत्मा के समान वर्ताव नहीं करते हैं तब तक पूर्ण सुख को प्राप्त नहीं होते। इसलिये इस वेदोक्त सत्यव्यवहार का आचरण सब मनुष्य क्यों न करें ।। ५ । ४० ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।६।३।२१) में की गई है ।। ५ । ४० ।।
भाष्यसार
आचार्य और शिष्य कैसे हों--विद्वान् आचार्य सत्य-भाषण आदि सत्य व्रतों का पालन करने वाला और विज्ञान में समुन्नत होता है। वह अपने पूर्वज अध्यापकों के समान व्रतपालक बनकर अपने शिष्यों को भी व्रतपालक बनाता है। शिष्य लोग आचार्य की शारीरिक सेवा करते हैं तथा आचार्य के पास विद्यमान बुद्धि, विद्या आदि गुणों को उनके प्रिय होकर ग्रहण करते हैं। शिष्य भी अपने शरीर को तथा अपनी विद्या को भी आचार्य में अर्पित कर देते हैं। प्राप्त की हुई विद्या को आचार्य की ही कृपा समझते हैं। आचार्य और शिष्य किसी अन्य व्रतपति को देखकर बड़े उत्साहित होते हैं। उससे दोनों यह प्रेरणा लेते हैं कि जैसे यह व्यक्ति व्रतपति बना है इसी प्रकार हम दोनों परस्पर सखा होकर यथार्थ रूप में इस व्रतपति के सत्याचरण रूप व्रतों का अनुकरण करें । शिष्य आचार्य से प्रार्थना करता है कि हे आचार्य ! आप मेरे हितकारी मित्र हो। जैसे आपके दीक्षापति (व्रतादेशों के पालक) आचार्य ने आपको दीक्षा दी है वैसे आप मुझे भी दीक्षित कीजिये। और जैसे आपके तप-पति (ब्रह्मचर्य आदि व्रतों के पालक) आचार्य ने आपको प्रारम्भ में कष्टदायक प्रतीत होने वाले तथा परिणाम में आनन्द देने वाले ब्रह्मचर्य आदि तप की शिक्षा दी है वैसे आप मेरे तप पति बन कर मुझे आनन्द-प्रद ब्रह्मचर्य आदि तप-आचरण की शिक्षा कीजिये । भाव यह है कि आचार्य और शिष्य के समान सब मनुष्य सुख-दुःख हानि-लाभ में परस्पर आत्मवत् प्रेम-पूर्वक व्यवहार करके पूर्ण सुख को प्राप्त करें ।। ५ । ४० ।।
मराठी (2)
भावार्थ
प्राचीन काळी जसे विद्वान अध्यापक होऊन गेले तसेच आपणही बनावे. जोपर्यंत माणसे आपल्याप्रमाणेच इतरांचे सुखदुःख, हानी-लाभ जाणत नाहीत तोपर्यंत ते पूर्ण सुखी होऊ शकत नाहीत. त्यामुळे माणसांनी श्रेष्ठ व्यवहारच करावा.
विषय
पुनश्च, त्या दोघांनी (अध्यापक आणि शिष्य यांनी) कसे आचरण करावे, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादिला आहे -
शब्दार्थ
(एक विद्यार्थी शिष्य आचार्यास म्हणत आहे) ^शब्दार्थ - हे (व्रतपा) सत्यव्रताचे पालन करणार्या (अग्ने) विशेष ज्ञानमय मनुष्या, (व्रतपाः) सत्यविद्या आणि गुणांचे व्रत वा संकल्प देणारा जो माझा एक आचार्य (अभूत्) होऊन गेला (ज्याने मला सत्य विद्या व सद्गुणांचे शिक्षण दिले, त्याच्या प्रमाणे मी (ते) तुझा शिष्य होऊ इच्छितो. (या) जो (तव) तुझा (तनुः) विद्यादी गुणांनी व्याप्त देह आहे, (सा) तो (मयि) माझ्यात देखील होवो (तुझ्या शरीराप्रमाणे माझे शरीर देखील सद्गुणमय होवो) (एषा) ही (त्वयि) तुझी बुद्धी माझ्याकरिता व्हावी. (या) जो (मम) माझा (तनूः) विद्येचा विस्तार आहे, जेवढे काही ज्ञान मला आहे) (सा) त्या ज्ञानाचा अधिक विस्तार व विकास (त्वयि) तुझ्यामुळे माझ्यात होवो (आचार्य म्हणतात) (इय) ही बुद्धी (मयि) हे माझ्या शिष्या, तुझ्यात येवो. (व्रतपते) सत्याचरण करणारा सत्यगुण शिकणारा आणि सत्य उपदेश देणारा जसा एक विद्वान आचार्य व शिष्य असतो, त्याप्रमाणे मी व तू (यथायथं) यथोचित वर्तन करणारे मित्र होऊन (व्रतामि) सत्याचरण आदी व्रतांचे पालन करू या. हे मित्रा (हे माझ्या प्रिय शिष्या) (तव) तुझा (दीक्षापतिः) यथोचित उपदेश देणारा मी तुझ्यासाठी (दीक्षां) सत्याचा उपदेश (अमंस्त) करीत आहे किंवा करण्याची रीती जाणत आहे. माझ्याप्रमाणे तूदेखील माझ्याविषयी अशीच (अनु) भावना ठेव. (व्रत ग्रहणासाठी खरी इच्छा असू दे) ज्याप्रमाणे (तपस्पतिः) अखंड ब्रह्मचर्याचे पालन करणार्या तुझ्या पूर्वीच्या आचार्याने तुला (तपः) तप करण्याची म्हणजे आधी कष्ट कारक पण नंतर सुखदायक अशा ब्रह्मचर्याची दीक्षा दिली आहे, त्याप्रमाणे हे शिष्या, तू मला देखील जाण वा माझ्याकडून तशीच दृढ दीक्षा घे. ॥40॥
भावार्थ
भावार्थ - पूर्वीच्या काळी विद्या शिकविणारे जसे अध्यापकगण होऊन गेले, आम्ही देखील तसेच व्हायला हवेत. जोपर्यंत माणसें सुख-दुःख, हानी-लाभ याविषयीं आपल्याप्रमाणे इतरांच्या बाबत आत्मवत् वृत्ती ठेवणार नाहीत, आपल्याप्रमाणेच दुसर्याच्याही सुख-दुःख, लाभ-हानी आदीचा विचार करणार नाहीत, तोपर्यंत कुणालाच पूर्ण सुखाची प्राप्ती होणार नाही. यासाठी मनुष्यांनी सदा एकमेकाशी श्रेष्ठ आचरण करावे.
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned teacher, thou art the guardian of my vow. Let thy vast knowledge be mine. Let my learning be subordinate to thee. Let my wisdom depend upon thine. O Lord of vows, let our vows of noble conduct be accomplished friendly. O lord of initiation, teach me truth. O lord of austerity, teach me to lead an austere life.
Meaning
Agni, man of light and brilliance, man of truth, man of knowledge, teacher, man of discipline on oath as you are, so may I be as your disciple. Your body of knowledge, truth and faith may be in me too. And my body of growing knowledge may be in you. Man of discipline and commitment, you and I both shall observe common vows corresponding to each other. May my initiation and dedication on oath be accepted and approved by my master of initiation. May my discipline and austerity be in accord with the discipline and austerity of the master of tapas, austere discipline.
Translation
fire divine, you are the protector of vows. Let your this form, which protects the vows, become mine and let my this form, which I have got, be yours. O Lord of vows, let your and my vows proceed side by side. May the Lord of consecrations approve of my consecration and the Lord of austerities approve of my austerities. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তৌ কথং বর্ত্তেয়াতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় তাহারা কেমন ব্যবহার করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(ব্রতপাঃ) যেমন সত্যপালক বিদ্বান্ হইবে, সেইরূপ (অগ্নে) হে বিশেষ জ্ঞানবান্ পুরুষ ! যেমন আমার (ব্রতপাঃ) সত্যবিদ্যা গুণের পালক আচার্য্য (অভুৎ) হইয়াছিলেন সেইরূপ আমি (তে) তোমার হইব, (য়া) যে (তব) তোমার (তনূঃ) বিদ্যাদি গুণে ব্যাপ্ত হওয়ার এই দেহ (মা) সে (ময়ি) তোমার মিত্র তোমার মধ্যেও হউক, (এষা) এই (ত্বয়ি) আমার মিত্র তোমার মধ্যেও হউক, (য়া) যে (মম) আমার (তনূঃ) বিদ্যার বিস্তৃতি (সা) উহা (ত্বয়ি) আমার পাঠনকারী তোমার মধ্যে হউক, (ইয়ম্) এই (ময়ি) তোমার শিষ্য আমাতে বুদ্ধি হউক, (ব্রতপতে) হে সত্য আচরণ পালক! যেমন সত্যগুণ সত্য উপদেশ রক্ষক বিদ্বান্ হয় সেইরূপ আমি ও তুমি (য়থায়থম্) যথাযুক্ত মিত্র হইয়া (ব্রতানি) সত্য আচরণের ব্যবহার করি । হে মিত্র! যেমন (তব) তোমার (দীক্ষাপতিঃ) যথোক্ত উপদেশক পালক তোমার জন্য (দীক্ষাম্) সত্যের উপদেশ (অমংস্ত) করা জানিতেছে সেইরূপ আমার জন্য (অনুঃ) জানুক, যেমন তোমার (তপস্পতিঃ) অখণ্ড ব্রহ্মচর্য্যের পালক আচার্য্য তোমার জন্য (তপঃ) প্রথমে ক্লেশ এবং পশ্চাৎ সুখদাতা ব্রহ্মচর্য্যকে করা জানিতেছে সেইরূপ আমার অখণ্ড ব্রহ্মচর্য্যের পালক আমার জন্য জানুক ॥ ৪০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যেমন প্রথম বিদ্যাপাঠকারী অধ্যাপকগণ হইয়াছিলেন সেইরূপ আমাদিগকেও হইতে হইবে । যতক্ষণ মনুষ্য সুখ-দুঃখ, ক্ষতি ও লাভের ব্যবস্থায় পরস্পর নিজ আত্মাতুল্য অন্যকে না জানেন ততক্ষণ পূর্ণসুখ প্রাপ্ত হইতে পারে না । অতএব, মনুষ্যগণ শ্রেষ্ঠ ব্যবহারই করিতে থাকুক ॥ ৪০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অগ্নে॑ ব্রতপা॒স্তে ব্র॑তপা॒ য়া তব॑ ত॒নূর্ময়্যভূ॑দে॒ষা সা ত্বয়ি॒ য়ো মম॑ ত॒নূস্ত্বয়্যভূ॑দি॒য়ꣳ সা ময়ি॑ । য়॒থা॒য়॒থং নৌ॑ ব্রতপতে ব্র॒তান্যনু॑ মে দী॒ক্ষাং দী॒ক্ষাপ॑তি॒রম॒ꣳস্তানু॒ তপ॒স্তপ॑স্পতিঃ ॥ ৪০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নে ব্রতপা ইত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
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Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
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