Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 5

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    84

    दे॒व॒श्रुतौ॑ दे॒वेष्वाघो॑षतं॒ प्राची॒ प्रेत॑मध्व॒रं क॒ल्पय॑न्तीऽऊ॒र्ध्वं य॒ज्ञं न॑यतं॒ मा जि॑ह्वरतम्। स्वं गो॒ष्ठमाव॑दतं देवी दुर्ये॒ऽआयु॒र्मा निर्वा॒दिष्टं प्र॒जां मा निर्वा॑दिष्ट॒मत्र॑ रमेथां॒ वर्ष्म॑न् पृथि॒व्याः॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व॒श्रुता॒विति॑ देव॒ऽश्रुतौ॑। दे॒वेषु॑। आ। घो॒ष॒त॒म्। प्राची॒ऽइति॒ प्राची॑। प्र। इ॒त॒म्। अ॒ध्व॒रम्। क॒ल्पय॑न्तीऽइति॑ क॒ल्पय॑न्ती। ऊ॒र्ध्वम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒म्। मा। जि॒ह्व॒र॒त॒म्। स्वम्। गो॒ष्ठम्। गो॒स्थमिति॑ गो॒ऽस्थम्। आ। व॒द॒त॒म्। दे॒वी॒ऽइति॑ देवी। दु॒र्ये॒ऽइति॑ दुर्ये। आयुः॑। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। अत्र॑। र॒मे॒था॒म्। वर्ष्म॑न्। पृ॒थि॒व्याः ॥१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतम्प्राची प्रेतमध्वरङ्कल्पयन्तीऽऊर्ध्वं यज्ञन्नयतम्मा जिह्वरतम् । स्वङ्गोष्ठमा वदतन्देवी दुर्येऽआयुर्मा निर्वादिष्टम्प्रजाम्मा निर्वादिष्टमत्र रमेथाँ वर्ष्मन्पृथिव्याः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवश्रुताविति देवऽश्रुतौ। देवेषु। आ। घोषतम्। प्राचीऽइति प्राची। प्र। इतम्। अध्वरम्। कल्पयन्तीऽइति कल्पयन्ती। ऊर्ध्वम्। यज्ञम्। नयतम्। मा। जिह्वरतम्। स्वम्। गोष्ठम्। गोस्थमिति गोऽस्थम्। आ। वदतम्। देवीऽइति देवी। दुर्येऽइति दुर्ये। आयुः। मा। निः। वादिष्टम्। प्रजामिति प्रऽजाम्। मा। निः। वादिष्टम्। अत्र। रमेथाम्। वर्ष्मन्। पृथिव्याः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यथा यौ देवेषु देवश्रुतौ घोषतं व्यक्तं शब्दं कुरुतो ये प्राची कल्पयन्त्यूर्ध्वं यज्ञमेतो नयतस्ते च रोदसी यथा मा जिह्वरतं कुटिले न भवेतां तथा कुरुतम्। ये देवी दुर्ये स्वं गोष्ठं समन्तात् प्राप्नुतस्ताभ्यां कस्याप्यायुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टं विनष्टाम्मा कुरुतं पृथिव्यामन्तरिक्षस्य च मध्ये वर्ष्मणि जगति रमेथां तथानुतिष्ठत॥१७॥

    पदार्थः

    (देवश्रुतौ) यथा दिव्यविद्याश्रुतौ विद्वांसौ (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा प्रसिद्धौ (आ) समन्तात् (घोषतम्) घोषं कुर्वन्तौ स्तः (प्राची) प्रकृष्टमञ्चति याभ्यां तेरोदसी। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्॰। [अष्टा॰७.१.३९] इति प्रथमाद्विवचनस्य लुक्। (प्र) प्रकृष्टार्थे (इतम्) प्राप्तौ भवतः (अध्वरम्) अहिंसनीयम् (कल्पयन्ती) समर्थयन्त्यौ (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टगुणम् (यज्ञम्) विज्ञानशिल्पसङ्गमनीयम् (नयतम्) सम्प्राप्नुतम् (मा) निषेधे (जिह्वरतम्) कुटिलौ भवतम् (स्वम्) स्वकीयम् (गोष्ठम्) गवां स्थानम्। अत्र घञर्थे कविधानम्। [अष्टा॰वा॰३.२.५८] इति कः। (आ) समन्तात् (वदतम्) उपदिशतः (देवी) दिव्यगुणसम्पन्ने (दुर्ये) गृहरूपे (आयुः) जीवनं तन्निमित्तं वा (मा) निषेधे (निः) नितराम् (वादिष्टम्) वदतम् (प्रजाम्) उत्पन्नां सृष्टिम् (मा) निषेधे (निः) नितराम् (वादिष्टम्) वदतम् (अत्र) अस्मिन् जगति (रमेथाम्) (वर्ष्मन्) सुखवृष्टियुक्ते (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य मध्ये। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। १३-२०) व्याख्यातः॥१७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावज्जगदन्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तते, तावता सर्वेण बहूनि सुखानि सम्पादनीयानि॥१७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या! यथा यौ देवेषु विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा प्रसिद्धौ देवश्रुतौ यथा दिव्यविद्याश्रुतौ विद्वांसौ [आ] घोषतं=व्यक्तंशब्दं कुरुतः समन्ताद् घोषं कुर्वन्तौ स्तः, ये प्राची प्रकृष्टमञ्चति याभ्यां ते रोदसी कल्पयन्ती समर्थयन्त्यौ ऊर्ध्वम् उत्कृष्टगुणम् [अध्वरम्] अहिंसनीयम् [यज्ञं] विज्ञानशिल्पसंगमनीयम् [प्र] एत=(प्रकृष्टं) प्राप्तौ भवतः [नयतम्]=नयतः सम्प्राप्नुतः, ते च रोदसी यथा माजिह्वरतं=कुटिले न भवेतां न कुटिलौभवतं तथा कुरुतम्। ये देवी दिव्यगुणसम्पन्ने दुर्ये गृहरूपे स्वं स्वकीयंगोष्ठं गवां स्थानं [आवदतम्]=समन्तात् प्राप्नुतः समन्तात् उपदिशतः ताभ्यां कस्याव्यायुःजीवनं तन्निमित्तं वा मा न निर्वादिष्टं नितरां वदतं प्रजाम् उत्पन्नां सृष्टिंमा निर्वादिष्टं=विनष्टां मा कुरुतम् नितरां न वदतम्। [पृथिव्याः] पृथिव्याम् अन्तरिक्षस्य च मध्ये[वर्ष्मन्]=वर्ष्मणि सुखवृष्टियुक्ते [अत्र] जगति अस्मिन् जगति रमेथां तथानुतिष्ठत् ।। ५ । १७ ।। [हे मनुष्या! यथा देवेषु देवश्रुतौ [आ] घोषतं=व्यक्तं शब्दं कुरुतः, ये–-च रोदसी यथा मा जिह्वरतं=कुटिले न भवेतां तथा कुरुतं-- ]

    पदार्थः

    (देवश्रुतौ) यथा दिव्यविद्याश्रुतौ विद्वांसौ (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा प्रसिद्धौ (अः) समंतात् (घोषतम्) घोषं कुर्वन्तौ स्तः (प्राची) प्रकृष्टमञ्चति याभ्यां ते रोदसी । अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति प्रथमाद्विवचनस्य लुक्(प्र) प्रकृष्टार्थे (इतम्) प्राप्तौ भवतः (अध्वरम्) अहिंसनीयम् (कल्पयन्ती) समर्थयन्त्यौ (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टगुणम् (यज्ञम्) विज्ञानशिल्पसंगमनीयम् (नयतम्) संप्राप्नुतम् (मा) निषेधे (जिह्वरतम्) कुटिलौ भवतम् (स्वम्) स्वकीयम् (गोष्ठम्) गवां स्थानम् । अत्र घञर्थे, कविधानमिति कः (आ) समन्तात् (वदतम्) उपदिशतः (देवी) दिव्यगुणसंपन्ने (दुर्ये) गृहरूपे (आयुः) जीवनं तन्निमित्तं वा (मा) निषेधे (निः) नितराम् (वादिष्टम् ) वदतम् (प्रजाम्) उत्पन्नां सृष्टिम् (मा) निषेधे (निः) नितराम् (वादिष्टम् ) वदतम् (अत्र) अस्मिन् जगति (रमेथाम् ) (वर्ष्मन्) सुखवृष्टियुक्ते (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य मध्ये ॥ अयं मंत्र: शत० ३। ५। ३। १३-२० व्याख्यातः ॥ १७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ मनुष्यैर्यावज्जगदन्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तते तावता सर्वेण बहूनि सुखानि सम्पादनीयानि ॥ ५ । १७ ॥

    विशेषः

    वशिष्ठ:। विष्णु:=ईश्वरः, सूर्यश्च ॥ स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् धैवतः ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे प्राण और अपान कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम जैसे जो (देवेषु) विद्वान् वा दिव्यगुणों में (देवश्रुतौ) विद्वानों से श्रवण किये हुए प्राण, अपान वायु (घोषतम्) व्यक्त शब्द करें और जो (प्राची) प्राप्त करने वा (कल्पयन्ती) सामर्थ्य वाली प्रकाश भूमि (ऊर्ध्वम्) उत्तम गुणयुक्त (यज्ञम्) विज्ञान वा शिल्पमय यज्ञ को (प्रेतम्) जनाते रहें (नयतम्) प्राप्त करें (मा जिह्वरतम्) कुटिल गति वाले न हों, जो (देवी) दिव्यगुण सम्पन्न (दुर्ये) गृहरूप (स्वम्) अपने (गोष्ठम्) किरण और अवयवों के स्थान के (आवदतम्) उपदेश निमित्तक हों (आयुः) आयु को (मा निर्वादिष्टम्) नष्ट न करें (प्रजाम्) उत्पन्न हुई सृष्टि को (मा निर्वादिष्टम्) न नष्ट करें और वे (पृथिव्याः) आकाश के मध्य (अत्र) इस (वर्ष्मन्) सुख से सेवनयुक्त जगत् में (रमेथाम्) रमण करें तथा किया करो॥१७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जितना जगत् अन्तरिक्ष में वर्त्तता है, उतने से बहुत-बहुत उत्तम सुखों का सम्पादन करना चाहिये॥१७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञ का ऊर्ध्वनयन

    पदार्थ

    ‘गत मन्त्र के अनुसार ‘अन्न-दूध’ का ही मननपूर्वक प्रयोग करनेवाले पति-पत्नी कैसे बनते हैं’ यह विषय प्रस्तुत मन्त्र में है — १. ( देवश्रुतौ ) = [ दिव्यविद्याश्रुतौ—द० ] सृष्टि के ३३ देवों के ज्ञान का श्रवण करनेवाले तुम हो। जिन देवों के सम्पर्क में हमें सदा रहना है और वस्तुतः जिन देवों से हमारा शरीर बना है, उनका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक ही है। 

    २. ( देवेषु ) = विद्वानों के चरणों में [ विद्वांसो हि देवाः ] ( आघोषतम् ) = तुम इन ज्ञान की वाणियों का उच्चरण करो। विद्वानों से ३३ देवों का ज्ञान प्राप्त करो। 

    ३. ( प्राची प्रेतम् ) = [ प्र अञ्च् ] इस प्रकार सदा आगे बढ़ते हुए चलते चलो। हम उन्नतिशील हों, क्रियाशील हों, अकर्मण्य न हो जाएँ। 

    ४. हम सदा ( अध्वरं कल्पयन्ती ) = हिंसारहित यज्ञों को करनेवाले हों। ( यज्ञम् ) = यज्ञ को ( ऊर्ध्वम् ) = ऊपर ( नयतम् ) = ले-चलो। हमारे यज्ञों में किसी प्रकार का विकार न आ जाए। ५. ( मा जिह्वरतम् ) = किसी तरह की कुटिलता न करो। हमारा जीवन सरल हो।

    ६. [ क ] ( स्वं गोष्ठम् ) = अपने गोष्ठ को ( आवदतम् ) = चारों ओर प्रख्यात करो। अपने घर की गौशाला को ऐसा सुन्दर बनाओ कि तुम्हारी गौवों की चारों ओर चर्चा हो। [ ख ] अथवा ( स्वम् ) = अपने को ( गोष्ठम् ) = वेदवाणियों का निवासस्थान और परिणामतः देवों का निवासस्थान ( आवदतम् ) = प्रसिद्ध करो। लोगों में तुम्हारे ज्ञान व श्रेष्ठता की ही चर्चा हो। 

    ७. ( देवी ) = तुम दिव्य गुणोंवाले बनो और इस प्रकार ( दुर्ये ) = घर को उत्तम बनानेवाले होओ। 

    ८. ( आयुः ) = अपने जीवन को ( मा ) = मत ( निर्वादिष्टम् ) = [ निर् = निन्दायाम् ] निन्दितरूप में उच्चारित कराओ, अर्थात् आपके जीवन की निन्दा न हो। ( प्रजाम् ) = अपनी सन्तान का भी ( मा ) = मत ( निर्वादिष्टम् ) = निन्दित रूप में उच्चारण कराओ, अर्थात् तुम्हारी सन्तान की चारों ओर निन्दा न हो। 

    ९. इस प्रकार प्रशस्त जीवन व प्रशस्त सन्तानवाले बनकर ( पृथिव्याः ) = इस पृथिवी के ( वर्ष्मन् ) = शरीरभूत देवयजन के स्थान में ( रमेथाम् ) = आनन्द का अनुभव करो, अर्थात् तुम्हारा जीवन यज्ञमय हो। तुम यज्ञस्थान को ही पृथिवी का शरीर समझो। अथवा [ वर्ष्मन् = handsome form ] पृथिवी के सुन्दर रूप में ( रमेथाम् ) = आनन्द का अनुभव करो, पृथिवी = शरीर। तुम दोनों के शरीर बड़े सुन्दर हों। पृथिवी के देवयजन में स्थित होकर ये प्रभु का स्तवन करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम देवश्रुत बनें, जीवन में यज्ञ को ऊँचा स्थान दें, कुटिलता से दूर रहें, इस प्रकार अपने जीवन व प्रजा को सुन्दर बनाएँ और अपने सुन्दर शरीरों में आनन्द का अनुभव करें अथवा इस पृथिवी के देवयजनों में ही आनन्द का अनुभव करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्त्री पुरुषों को उपदेश |

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों (देवश्रुतौ ) दिव्य विद्याओं में प्रसिद्ध, विद्वानों के बीच प्रसिद्ध, अथवा विद्वानों से बहुत शिक्षा प्राप्त होकर ( देवेषु आ घोषतम् ) देव, विद्वानों के बीच में अपने गृहस्थ धारण करने के उत्तम संकल्प को  आघोषित करो, ऊंचे स्वर से निवेदित करो | आप दोनों (प्राची) सदा उत्तम, ऊंचे मार्ग पर प्रकाश की ओर जाते हुए ( प्र इतम ) आगे बढ़ो और ( अध्वरं ) हिंसा रहित शुभ कर्म का ( कल्प- यन्ती ) अनुष्ठान करते हुए आप दोनों ( यज्ञम् ) यज्ञ को, आत्मा को, या गृहस्थ कार्य को, या परस्पर की संगति को ( ऊर्ध्वम् ) ऊंचे पदतक ( नय- तम् ) पहुंचा दो और परस्पर ( मा जिह्वरतम् ) कभी कुटिलता का व्यवहार मत करो। और ( स्वं ) अपने ( गोष्ठं ) बात चीत  आवदतम् ) एक दूसरे को कहो, परस्पर सुख से वार्तालाप करो। या ( स्वं गोष्ठं अवदत्तम् ) दोनों के अपने धन और गौशाला आदि स्थानों को अपना स्वीकार करो ! ( देवी दुर्ये ) दिव्य रमण योग्य, सुखदायी घरमें रहते हुए ( आयु: ) अपने जीवन को ( मा निर्वादिष्टम् ) नष्ट मत करो । ( प्रजाम् ) अपनी प्रजा सन्तान को ( मा निर्वादिष्टम् ) नष्ट मत करो । ( अत्र ) इस संसार में । पृथिव्याः ) पृथिवी के ( वर्ष्मन्) वृष्टि युक्त, हरे, भरे लम्बे चोडे. प्रदेश में ( रमेथाम् ) दोनों आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करें । राजा प्रजा, गुरु शिष्य आदि सब युगलों को यह उपदेश समान है | 

    टिप्पणी

    १७ वसिष्ठ ऋषिः । विष्णुर्देवता । द० । देवश्रुतावक्षघुरौ ।सर्वा ०

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।अक्षधुरौ हविर्धाने, विष्णुर्वादेवता | स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वे ईश्वर और सूर्य कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे जो ईश्वर और सूर्य (देवेषु) विद्वानों वा दिव्य गुणों में (देवश्रुतौ ) दिव्य विद्या के श्रोता विद्वान् (अघोषतम्) सब ओर घोषणा करें कि जो (प्राची) प्रकृष्ट गति वाले द्युलोक और पृथिवी लोक (कल्पयन्ती) सामर्थ्य वाले, (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्ट गुण वाले (यज्ञम्) विज्ञान और शिल्प विद्या को (प्र-एत) प्राप्त हों और (नयतम्) दूसरों को भी प्राप्त करें और वे दोनों (रोदसी) द्युलोक और पृथिवी लोक जिससे (मा-जिह्वरतम्) कुटिलता युक्त न हों, वैसा करें । और- जो (देवी) दिव्य गुणों से सम्पन्न (दुर्ये) घर में (स्वम्) अपनी(गोष्ठम्) गोशाला में (आवदतम् ) सब ओर से प्राप्त हों, और हमें उपदेश करें। उनसे किसी का भी (आयुः) जीवन वा जीवनसाधन (मा निर्वादिष्टम्) नष्ट मत करो (प्रजाम्) उत्पन्न सृष्टि को (मा निर्वादिष्टम्) नष्ट मत करो। (पृथिव्याः) पृथिवी और अन्तरिक्ष में (वर्ष्मन्)सुखकारक वृष्टि से युक्त (अत्र) इस जगत् में रमण करें, वैसा करो ॥ ५ । १७ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ जितना जगत् अन्तरिक्ष के मध्य में वर्तमान है उस सबसे मनुष्य बहुत-से सुखों को सिद्ध करें ।। ५ । १७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (प्राची) यहाँ'सुपां सुलुक्' [अ० ७।१।३९] इस सूत्र से प्रथमा विभक्ति के द्विवचन 'औ' प्रत्यय का लुक् है । (गोष्ठम्) यहाँ'घञर्थे कविधानम्' [अ० ३। ३।५८] इस वार्तिक 'क' प्रत्यय हुआ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।३ ।१३-२०) में की गई है ।। ५ । १७ ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    अंतरिक्षात जेवढे जग विस्तारलेले आहे त्यापासून सर्वांनी उत्तम प्रकारचे सुख प्राप्त करून घ्यावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ते प्राण आणि अपान कसे आहेत, त्यांचे स्वरूप पुढील मंत्रात निशद केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (देवेधु) विद्वानांमधे वा दिव्य गुणांमधे त्यांची वस्ती आहे व (देवश्रुतौ) विद्वज्जन ज्यांचे सेवन व अनुभव करतात, ते प्राण आणि अपान वायू (घोषतम्) सतत सर्वांसाठी व्यक्त वा प्रकट होत राहोत (विद्वज्जनांनी प्राणवायू व अपानवायूचे लाभ-हानी सर्वांना सांगावात) ते प्राण व अपान (प्राची) प्राप्त करण्याचे सामर्थ्य असलेल्या (कल्पयन्ती) या प्रमाशमयीभूमीला (ऊर्ध्वम्) उत्तम गुणांनी मुक्त करोत आणि (यज्ञम्) विज्ञानाला व शिल्पमय यज्ञाला (प्रेतम्) सतत अधिक ज्ञानयुक्त करोत. (दयतम्) प्रगतीकडे नेवोत (जगामधे विज्ञान, शिल्प व तंत्रज्ञानाची वृद्धी होत राहो) (मा जिहृरतम्) प्राण व अपान कधीही कोणासाठी कुटिलगती देणारे व अधोगतीकडे नेणारे न होवोत ते प्राण व अपान (देवी) दिव्यगुणांनी युक्त राहोत आणि (दुर्ये) आपापल्या स्थानात राहून (स्वम्) स्वत:च्या (गोष्ठ्य्) निश्‍चित अवयवांमधे (आवदतम्) प्रेरणा असोत (शरीरातील प्राण व अपान आपल्या स्वभाव व गतीप्रमाणे सुखकारक होवोत) (आयूः) कणाच्या आयुष्याला (मा निर्वादिष्टम्) नष्ट न करोत (प्राण व अपान वायू दूषित वा विचलित होऊन प्राणहारी होऊ नयेत) (प्रच्याम्) ते उत्पन्न या सृष्टीला (मा निर्वदिष्टम) नष्ट करणारे होऊ नयेत (शांत असावेत) ते (पृथिव्याः) या आकाशामधे (अत्र) या (वर्ष्मन्) भूमी वा जगात सुखाने सेवनीय असोत व अशा (रमेथाम्) रीतीने प्राण व अपान सर्वासाठी सर्वत्र सुखकारक असोत. तसेच सर्व मनुष्यांनी प्राण व अपानशक्तीचा असाच सुखकारक उपयोग घ्यावा. ॥17॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेवढे जग या अंतरिक्षात विद्यमान आहे, मनुष्यांनी उत्तम सुखांचा अधिकाधिक उपयोग घ्यावा ॥17॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man and woman, having acquired knowledge from the learned, proclaim amongst the wise the fact of your intention of entering the married life. Attain to fame, observing the noble virtue of non-violence, and uplift your soul. Shun crookedness. Converse together happily. in a peaceful home, spoil not your life, spoil not your progeny. In this world, pass your life happily, on this wide earth full of enjoyment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Scholars well-versed in the science of yajna go forward to the noble people and proclaim that they strengthen and extend the yajna over the earth and to the sky so that they receive, like the two fold movements of prana and apana, the fragrance of the yajna of love and non-violence and send it onward to the heavens. Take the yajna high, never take it down. Pious men of virtue stay in their home and look after the cows fully well. Abuse not life. Revile not the people. Enjoy life on the earth under the showers of peace and joy.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May both of you declare among the enlightened ones so that they may hear it. (1) Both of you move eastward, making the sacrifice. Carry this sacrifice high. Do not falter. (2) Reach your own divine home of rest. Do not speak ill of my life. Do not speak ill of my offspring. (3) May both of you rejoice here on the summit of earth. (4)

    Notes

    Ма jihvaratam, do not falter. From ह्वल चलने, to move from its place. Varsman, at the summit of. Nirvadistam, speak ill of.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই প্রাণ ও অপান কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহা (দেবেষু) বিদ্বান্ বা দিব্যগুণে (দেবশ্রুতৌ) বিদ্বান্দিগের নিকট শ্রবণকৃত প্রাণ, অপান বায়ু (ঘোষতম্) ব্যক্ত শব্দ করে এবং যাহা (প্রাচী) প্রাপ্ত করিবার বা (কল্পয়ন্তী) সামর্থ্যযুক্ত প্রকাশ ভূমি (ঊর্ধ্বম্) উত্তম গুণযুক্ত (য়জ্ঞম্) বিজ্ঞান্ বা শিল্পময় যজ্ঞকে (প্রেতম্) জানাইতে থাকে (নয়তম্) প্রাপ্ত করে (মা জিহ্বরতম্) কুটিল গতিযুক্ত না হয়, যাহা (দেবী) দিব্যগুণসম্পন্ন (দুর্য়ে) গৃহরূপ (স্বয়ং) স্বীয় (গোষ্ঠম্) কিরণ ও অবয়বের স্থানের (আবদতম্) উপদেশ নিমিত্তক হয়, (আয়ুঃ) আয়ুকে (মা নির্বাদিষ্টম্) নষ্ট না করে, (প্রজাম্) উৎপন্ন সৃষ্টিকে (মা নির্বাদিষ্টম্) নষ্ট না করে এবং তাহারা (পৃথিব্যাঃ) আকাশের মধ্যে (অত্র) এই (বর্ষ্মন্) সুখপূর্বক সেবনযুক্ত জগতে (রমেথাম্) রমণ করে তথা করিতে থাক ॥ ১৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের যতখানি জগৎ অন্তরিক্ষে আছে ততখানি দ্বারা বহু উত্তম সুখের সম্পাদন করা উচিত ॥ ১৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒ব॒শ্রুতৌ॑ দে॒বেষ্বা ঘো॑ষতং॒ প্রাচী॒ প্রেত॑মধ্ব॒রং ক॒ল্পয়॑ন্তীऽঊ॒র্ধ্বং য়॒জ্ঞং ন॑য়তং॒ মা জি॑হ্বরতম্ । স্বং গো॒ষ্ঠমা ব॑দতং দেবী দুর্য়ে॒ऽআয়ু॒র্মা নির্বা॒দিষ্টং প্র॒জাং মা নির্বা॑দিষ্ট॒মত্র॑ রমেথাং॒ বর্ষ্ম॑ন্ পৃথি॒ব্যাঃ ॥ ১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবশ্রুতাবিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top