यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 22
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - साम्नी पङ्क्ति,भूरिक् आर्षी बृहती,
स्वरः - पञ्चमः
197
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑ कृन्तामि। बृ॒हन्न॑सि बृ॒हद्र॑वा बृह॒तीमिन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद॥२२॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्यामिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आद॑दे। नारी॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। बृ॒हन्। अ॒सि॒। बृ॒हद्र॑वा॒ इति॑ बृ॒हत्ऽर॑वाः। बृ॒ह॒तीम्। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒ ॥२२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे नार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवा अपिकृन्तामि । बृहन्नसि बृहद्रवा बृहतीमिन्द्राय वाचँ वद ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्यामिति हस्ताऽभ्याम्। आददे। नारी। असि। इदम्। अहम्। रक्षसाम्। ग्रीवाः। अपि। कृन्तामि। बृहन्। असि। बृहद्रवा इति बृहत्ऽरवाः। बृहतीम्। इन्द्राय। वाचम्। वद॥२२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरयं यज्ञः किमर्थः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्य! यथाऽहं देवस्य सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्यथा बाहुभ्यां पूष्णो यथा हस्ताभ्यां यं यज्ञमाददे त्वा तं त्वमपि तथादत्स्व। यथाऽहं नारिं यज्ञक्रियामिदं यज्ञानुष्ठानं कर्म चाददे तथा त्वमप्यादत्स्व। यथाऽहं रक्षसां ग्रीवाः कृन्तामि तथा त्वमपि कृन्त। यथा चाहमेतदनुष्ठानेन बृहद्रवा बृहन्भवामि तथा त्वमपि भव। यथा चाहमिन्द्राय बृहतीं वाचं वदामि तथा चैतां त्वमपि वद॥२२॥
पदार्थः
(देवस्य) सर्वप्रकाशकस्यानन्दप्रदेश्वरस्य (त्वा) तम् (सवितुः) सकलस्य जगत उत्पादकस्य (प्रसवे) यथा सृष्टौ (अश्विनोः) प्राणापानयारेध्वर्य्योर्वा (बाहुभ्याम्) यथा बलवीर्याभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकारिकायाः पृथिव्याः। पूषोति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰१।१) (हस्ताभ्याम्) यथाऽऽनन्दप्रदाभ्यां धारणाकर्षणाभ्याम् (आ) समन्तात् (ददे) स्वीकरोमि (नारी) नराणामियं क्रिया (असि) अस्ति वा, अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (इदम्) प्रत्यक्षं पालकं कर्म (अहम्) (रक्षसाम्) दुष्टस्वभावानाम् (ग्रीवाः) कण्ठात् (अपि) निश्चये (कृन्तामि) छिन्नद्मि (बृहत्) वर्धमानो वर्धयन् (असि) अस्ति वा (बृहद्रवाः) यथा बृहच्छब्दवान् (बृहतीम्) महतीम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (वाचम्) वाणीम् (वद) उपदिश। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ४। ४-८) व्याख्यातः॥२२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिरीश्वरसृष्टौ विद्यया पदार्थान् सुपरीक्ष्य कार्येषूपयुज्य सुखानि प्राप्यन्ते, तथैव मनुष्यैरिदमनुष्ठाय सर्वाणि सुखानि प्रापणीयानि॥२२॥
विषयः
पुनरयं यज्ञः किमर्थः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते।।
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्य ! यथाऽहंदेवस्य सर्वप्रकाशकस्यानन्दप्रदेश्वरस्य सवितुः सकलस्य जगत उत्पादकस्य प्रसवे यथासृष्टौ अश्विनोः प्राणापानयोरध्वर्य्योर्वायथाबाहुभ्यां यथाबलवीर्याभ्यां पूष्णः पुष्टिकारिकायाः पृथिव्याः यथाहस्ताभ्यां यथाऽऽनन्दप्रदाभ्यां धारणाकर्षणाभ्यां यं यज्ञमाददे समन्तात् स्वीकरोमि त्वा=तं त्वमपि तथादत्स्व। यथाऽहं [नारी]=नारीं यज्ञक्रियां (नराणामियं क्रिया) इदं प्रत्यक्षं पालकं कर्म यज्ञानुष्ठानं कर्म चाददे स्वीकरोमि तथा त्वमपि आदत्स्व। यथाऽहं रक्षसां दुष्टस्वभावानां ग्रीवाः कण्ठान् कृन्तामि छिनद्मितथा त्वमपि कृन्त। यथा चाहमेतदनुष्ठानेन बृहद्रवाः यथा बृहच्छब्दवान् बृहन् वर्धमानो वर्धयन् भवामि तथा त्वमपि भव। यथा चाहमिन्द्राय परमैश्वर्यप्रापकाय बृहतीं महतीं वाचं वाणींवदामि तथा चैतां त्वमपि वद उपदिश ।। ५ । २२ ।। [हे मनुष्य! यथाऽहं देवस्य.......प्रसवे......यषं यज्ञमाददे त्वा =तं त्वमपि तथादत्स्व.....]
पदार्थः
(देवस्य) सर्वप्रकाशकस्यानन्दप्रदेश्वरस्य (त्वा) तम् (सवितुः) सकलस्य जगत उत्पादकस्य (प्रसवे) यथा सृष्टौ (अश्विनोः) प्राणापानयोरध्वर्य्योर्वा (बाहुभ्याम्) यथाबलवीर्याभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकारिकायाः। पृथिव्याः । पूषेति पृथिवी नामसु पठितम् ॥ निघं० १। १ ॥ (हस्ताभ्याम्) यथाऽऽनन्दप्रदाभ्यां धारणाकर्षणाभ्याम् (आ) समन्तात् (ददे) स्वीकरोमि (नारी) नराणामियं क्रिया (असि) अस्ति वा। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (इदम्) प्रत्यक्षं पालकं कर्म (अहम्) (रक्षसाम्) दुष्टस्वभावानाम् (ग्रीवा:) कण्ठान् (अपि) निश्चये (कृन्तामि) छिनद्मि (बृहन्) वर्धमानो वर्धयन् (असि) अस्ति वा (बृहद्रवाः) यथा बृहच्छन्दवान् (बृहतीम्) महतीम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (वाचम्) वाणीम् (वद) उपदिश ॥ अयं मंत्रः शत० ३।५।४ । ४-८ व्याख्यातः ॥ २२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ यथा विद्वद्भिरीश्वरसृष्टौ विद्यया पदार्थान् सुपरीक्ष्य कार्येषूपयुज्य सुखानि प्राप्यन्ते, तथैव मनुष्यैरिदमनुष्ठाय सुखानि प्रापणीयानि ॥ ५ । २२ ।।
विशेषः
औतथ्यो दीर्घतमाः। यज्ञः=स्पष्टम् ॥ पूर्वार्द्धस्य साम्नी पंक्तिः। पंचमः। आदद इत्युत्तरस्य भुरिगार्षी बृहती। मध्यमः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर यह यज्ञ किसलिये करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्य! जैसे मैं (देवस्य) सब को प्रकाश करने आनन्द देने वा (सवितुः) सकल जगत् को उत्पन्न करने वाले ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में जिस यज्ञ को (आददे) ग्रहण करता हूं, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर। जैसे मैं (नारी) यज्ञक्रिया वा (इदम्) यज्ञ के अनुष्ठान का ग्रहण करता हूं, वैसे तू भी ग्रहण कर। जैसे (अहम्) मैं (रक्षसाम्) दुष्ट स्वभाव वाले शुत्रओं के (ग्रीवाः) शिरों को भी (अपिकृन्तामि) छेदन करता हूं, वैसे तुम भी छेदन करो। जैसे मैं इस अनुष्ठान से (बृहद्रवाः) बड़ाई पाया बड़ा होता हूं, वैसे तू भी हो और जैसे मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (बृहतीम्) बड़ी (वाचम्) वाणी का उपदेश करता हूं, वैसे तू भी (वद) कर॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर की सृष्टि में विद्या से पदार्थों की परीक्षा करके कार्य्यों में उपयोग कर सुखों को प्राप्त करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान कर सब सुखों को पहुंचना चाहिये॥२२॥
विषय
बृहती वाक्
पदार्थ
१. गत मन्त्र में जीवन को यज्ञमय बनाने का उल्लेख था। जीवन को यज्ञमय बनानेवाला व्यक्ति संसार में प्रत्येक वस्तु का उपयोग विशेष प्रकार से करता है। वह कहता है कि हे पदार्थ! मैं ( त्वा ) = तुझे ( सवितुः देवस्य ) = उस प्रेरक देव के ( प्रसवे ) = प्रसव में, अनुज्ञा में ( आददे ) = ग्रहण करता हूँ। न अतियोग करता हूँ, न अयोग; अपितु यथायोग करके मैं तुझसे लाभान्वित होता हूँ। ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) = प्राणापानों के प्रयत्न से मैं तेरा ग्रहण करता हूँ। मैं तुझे बिना प्रयत्न के लेना नहीं चाहता, क्योंकि उस स्थिति में प्रत्येक पदार्थ हानिकर होता है। ( पूष्णोः हस्ताभ्याम् ) = मैं पूषा के हाथों से तेरा ग्रहण करता हूँ और तेरे उपयोग में मेरा दृष्टिकोण स्वाद व सौन्दर्य न होकर पोषण होता है।
२. हे पदार्थ! वस्तुतः इसी प्रकार ग्रहण किया हुआ तू नारी [ नराणामियम् ] मनुष्यों का हित करनेवाला होता है। अथवा ( नारिः असि ) = मनुष्यों का [ न अरिः ] शत्रु नहीं है। जब तक दृष्टिकोण पोषण का बना रहता है, यह मनुष्य का हित-ही-हित करता है। दृष्टिकोण स्वाद का बना और ये सृष्टि के पदार्थ उसके अहित का कारण बन जाते हैं। ‘रसमूला हि व्याधयः’ = सब व्याधियाँ इस स्वाद के ही कारण होती हैं। मैं इन पदार्थों का ठीक उपयोग करके इस स्थिति में हो गया हूँ कि ( रक्षसां ग्रीवा अपि ) = इन रोगकृमियों की ग्रीवा को ही ( कृन्तामि ) = काट देता हूँ। इन रोगकृमियों का समूलोन्मूलन हो जाता है।
३. हे प्रभो! आप ( बृहन् असि ) = मेरे इन रोगकृमियों का उद्बर्हण [ विनाश ] करनेवाले हो। इन राक्षसों की ग्रीवा को मैं नहीं काटता, यह काम आप ही करते हो। ( बृहद् रवाः ) = आप हृदयस्थरूपेण वृद्धिकारक उपदेश देनेवाले हैं। ( इन्द्राय ) = मुझ जितेन्द्रिय के लिए इस ( बृहतीम् ) = वृद्धि की कारणभूत ( वाचम् ) = वेदवाणी को ( वद ) = कहिए। आपकी कृपा से मैं इस वेदवाणी को सुनूँ। इसके सुनने से मेरी वासनाओं का उद्बर्हण होता है और यह शरीर, मन व मस्तिष्क—सभी दृष्टिकोणों से मेरी वृद्धि का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ — मैं सब वस्तुओं का ठीक प्रयोग करूँ। राक्षसों को जीतूँ। प्रभु की बृहती वाक् को सुनूँ।
विषय
स्त्री तथा सेना के कर्त्तव्य |
भावार्थ
हे स्त्री ! ( सवितुः ) सर्वोत्पादक ( देवस्य ) परमेश्वर के ( प्रसवे ) इस ऐश्वर्यमय संसार में ( अश्विनोः ) स्त्री पुरुष, जायापति की बाहुओं और (पूष्णः ) पुष्टिकारक पोषक पति के ( हस्ताभ्याम् ) हाथों से ( आददे ) स्वीकार करता हूँ। हे स्त्रि ! तू ( नारी असि ) नारी गृहस्थ के समस्त कार्यों की नेत्री है और (अहं) में पुरुष तेरा पति ( इदम् ) यह इस प्रकार से ( रक्षसां ग्रीवाः अपि कृन्तामि ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों की गर्दनों को काटू । हे विद्वान् पुरुष ! तू ( बृहन् असि ) हम में सबसे बड़ा, ज्ञानवृद्ध | तू ( बृहद् -रवा ) बड़ा भारी उपदेशक है। तू (इन्द्राय ) इन्द ऐश्वर्यवान् राजा को ( बृहतीं वाचम् वद ) बृहती वेदवाणी का उपदेश कर ॥
सेना के पक्ष में - राजा के राज्य में मैं सेनापति उस 'नारी' अर्थात् मनुष्यों को बनी सेना को अपने वश करूं । मैं दुष्ट पुरुषों की गर्दन काटूं । विद्वान पुरुष राजा को वेदवाणी या राज नीति का उपदेश करें ॥
टिप्पणी
२२ - ० रक्षसो ग्रीवा०' इति काण्व० । १ देवस्य। २ आददे।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।सविताभ्रि-रक्षौघ्नंभुपरवाश्च यज्ञो वा देवता । ( १ ) साम्नीपंक्तिः । पञ्चमः॥
(२) भुरिगार्षी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
फिर यह यज्ञ किसलिये करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे मनुष्य ! जैसे मैं विद्वान्(देवस्य) सर्वप्रकाशक, आनन्ददाता (सवितुः) सब जगत् के उत्पादक परमेश्वर की (प्रसवे) सृष्टि में (अश्विनोः) प्राण और अपान के वा अध्वर्युओं के (बाहुभ्याम्) बलवीर्य से (पूष्ण:) पुष्टि देने वाली पृथिवी के (हस्ताभ्याम्) आनन्ददायक धारण आकर्षणों से जिस यज्ञ को (आददे) चहुँ ओर से स्वीकार करता हूँ (त्वा) उसे तू भी वैसे ही ग्रहण कर। और- जैसे मैं (नारी) नरों के शुभ कार्यों को तथा (इदम्) इस सबके पालक यज्ञानुष्ठान कर्म को (आददे) स्वीकार करता हूँ, वैसे तू भी ग्रहण कर । और- जैसे मैं (रक्षसाम्) दुष्ट स्वभाव वाले राक्षसों के (ग्रीवा:) कण्ठों का (कृन्तामि) छेदन करता हूँ, वैसे तू भी छेदन कर। और- जैसे मैं इन उक्त कार्यों को करने से (बृहद्रवा:) बड़ा स्तुति भाजन एवं (बृहन्) बड़ा कहलाता हूँ, वैसे तू भी बन। और- जैसे मैं (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के दाता को (बृहतीम्) महती बड़ी (वाचम्) वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे इसका तू भी (वद) उपदेश कर ।। ५ । २२ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर की सृष्टि में विद्या के द्वारा पदार्थों की भली भाँति परीक्षा करके, उनका कार्यों में उपयोग कर सुखों को प्राप्त करते हैं, वैसे ही सब मनुष्य इस यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखों को प्राप्त करें ।। ५ । २२ ।।
प्रमाणार्थ
(पूष्ण:) 'पूषा' शब्द निघं० ( १ । १) में पृथिवी नामों में पढ़ा है। (असि) अस्ति । इस मन्त्र में 'असि' पद पर सर्वत्र व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।४।४-८) में की गई है ॥ ५ । २२ ।।
भाष्यसार
१. यज्ञ किसलिये करें-- सबके प्रकाशक, आनन्द के दाता, सकल जगत् के उत्पादक ईश्वर की सृष्टि में विद्वान् लोग प्राण-अपान के बल और वीर्य से, पुष्टिकारक पृथिवी के धारण और आकर्षण शक्ति से यज्ञ को ग्रहण करते हैं, नरों की की हुई क्रिया होने से यज्ञ क्रिया को नारी कहते हैं जो सबका पालन करने वाली है। इसलिये विद्वान् लोग इसे ग्रहण करते हैं। विद्वान् लोग राक्षसों की ग्रीवा का छेदन करते हैं क्योंकि यह भी यज्ञ है। विद्वान् बहुत उपदेश करने वाला होता है जिससे वह सर्वत्र वृद्धि को प्राप्त होता है। उपदेश करना यज्ञ है। जो विद्वान् को परम-ऐश्वर्य प्रदान करता है। विद्वान् उसके लिए वाणी (विद्या) का उपदेश करता है। विद्यादान यज्ञ है। ईश्वर की इस सृष्टि में विद्वानों के समान सब मनुष्य मन्त्रोक्त यज्ञानुष्ठान से सब सुखों को प्राप्त करें ॥ ५ । २२ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक विश्वातील (सृष्टीतील) पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करून घेतात, त्यांची परीक्षा करून त्यांचा कार्यात उपयोग करून घेतात व सुखी होतात. त्याप्रमाणेच सर्व माणसांनी या प्रकारच्या यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्वांना सुख द्यावे.
विषय
यज्ञ का करावा, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, (देवस्य) सर्वांना प्रकाश, प्रेरणा व आनंद देणार्या आणि (सवतिुः) सकल जगदुत्पादक परमेश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या संसारामधे ज्याप्रमाणे मी यज्ञाचा (आवदे) स्वीकार केला आहे, त्याप्रमाणे तू देखील स्वीकार कर (माझ्याप्रमाणे तूही यज्ञ करीत जा) (त्या) त्या यज्ञाचे ग्रहण करून मी (नारी) यज्ञ-क्रियेचे आणि (इदम्) या यज्ञाचे अनुष्ठान करतो, त्याप्रमाणे तूही कर. (अहम्) मी (रक्षसाम्) (यज्ञकार्यात विघ्न व विनाश आणणार्या) दुष्ट स्वभाव असलेल्या शत्रूंचे (ग्रीवा) शिर वा गळा (अपिकृनतामि) कापून टाकतो, त्याप्रमाणे तूही विघ्नकारी दुष्टांचे कंठछेदन करण्यात संकोच करूं नकोस ज्याप्रमाणे या यज्ञाचे अनुष्ठान केल्यामुळे मला (बृहद्रवाः) मोठेपणा वा प्रतिष्ठा मिळत आहे, त्याप्रमाणे तूही या कार्यामुळे प्रतिष्ठित हो, आणि जसे मी (इन्द्रय) परम ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी (बृहतीम्) महान् (वाचम्) वाणीचा उपदेश देतो वा देत आहे, त्याप्रमाणे तूदेखील (वेद) श्रेष्ठ वाणीचे उच्चारण करीत जा अथवा वेदवाणीचा उपदेश करीत जा ॥22॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक परमेश्वराच्या या सृष्टीत शिल्प व पदार्थ विद्येद्वारा पदार्थाचे परीक्षण, निरीक्षण शोध आदी द्वारे प्राप्त ज्ञानाचा कार्य सिद्धीकरिता उपयोग करतात व सुखी होतात, त्याप्रमाणे सर्व मनुष्यांनीही यज्ञानुष्ठान करून सर्वांना सुखी केले पाहिजे ॥22॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O man, just as I perform the sacrifice yajna) in this world of God, the Creator of the universe, by the force and strength of vital breaths, and the earths power of attraction and retention, so do thou. Just as I observe the details of the performance of the sacrifice, so do thou. Just as I cut the necks of the sinners and punish them, so do thou. Just as I through this yajna, attain to eminence, and become a big preacher of the Vedas, so do thou. Just as I preach to the king the lofty teachings of the Vedas. so do thou.
Meaning
In this world of Lord Savita’s creation and blessedness, with the double strength of Ashwini’s arms (nature’s powers of health, prana and apana) and the double gifts of nourishment from Pusha (earth’s powers of gravitation and stability), I accept and undertake to do yajna. Yajna is a noble work for humanity. With this, we can drive away the forces of evil even by the neck. It is great and growing. It is the voice of divinity loud and clear. Proclaim this great voice of truth for the glory of Indra, ruler of the earth.
Translation
At the impulsion of the creator God, I take you with the arms of the healers and with the hands of the nourisher. (1) Woman you are. (2) Here I verily sever the necks of the wicked. (3) You are mighty; mighty is your roar. Speak glorious praises for the resplendent Lord. (4)
Notes
Naryasi, नारी असि, woman you аге. Raksasam, of the wicked. Brhaf, mighty.
बंगाली (1)
विषय
পুনরয়ং য়জ্ঞঃ কিমর্থঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় এই যজ্ঞ কীজন্য করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ মনুষ্য! যেমন আমি (দেবস্য) সকলের প্রকাশক, আনন্দ দায়ক বা (সবিতুঃ) সকল জগতের উৎপন্নকারী ঈশ্বরের (প্রসবে) উৎপন্নকৃত সংসারে যে যজ্ঞকে (আদদে) গ্রহণ করি সেইরূপ তুমিও (ত্বা) উহা গ্রহণ কর, যেমন আমি (নারী) যজ্ঞক্রিয়া বা (ইদম) যজ্ঞের অনুষ্ঠানের গ্রহণ করি সেইরূপ তুমিও গ্রহণ কর, যেমন (অহম) আমি (রক্ষসাম্) দুষ্ট স্বভাবযুক্ত শত্রুদিগের (গ্রীবাঃ) শিরগুলিকেও (অপিকৃন্তামি) ছেদন করি সেই রূপ তুমিও ছেদন কর । যেমন আমি এই অনুষ্ঠান দ্বারা (বৃহদ্রবাঃ) প্রশংসা পাইয়া বড় হই সেইরূপ তুমিও হও এবং যেমন আমি (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্যের প্রাপ্তি হেতু (বৃহতীম্) বৃহৎ (বাচম্) বাণীর উপদেশ করি সেইরূপ তুমিও (বদ) কর ॥ ২২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ ঈশ্বরের সৃষ্টিতে বিদ্যা দ্বারা পদার্থের পরীক্ষা করিয়া কার্য্যে উপযোগ করিয়া সুখ প্রাপ্ত করেন সেইরূপ সকল মনুষ্যকে এই যজ্ঞের অনুষ্ঠান করিয়া সকল সুখ পৌঁছান উচিত ॥ ২২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ ।
আ দ॑দে॒ নার্য়॑সী॒দম॒হꣳ রক্ষ॑সাং গ্রী॒বাऽঅপি॑ কৃন্তামি ।
বৃ॒হন্ন॑সি বৃ॒হদ্র॑বা বৃহ॒তীমিন্দ্রা॑য়॒ বাচং॑ বদ ॥ ২২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবস্য ত্বেত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । পূর্বার্দ্ধস্য সাম্নী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । আদদ ইত্যুত্তরস্য ভুরিগার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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