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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् आर्षी बृहती,निचृत् आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः
    120

    या ते॑ऽअग्नेऽयःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने रजःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने हरिश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। ते॒। अ॒ग्ने॒। अ॒यःशये॒त्य॑यःऽश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒ऽधी॒त्। स्वाहा॑। या। ते॒। अ॒ग्ने॒। र॒जः॒श॒येति॑ रजःश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। स्वाहा॑ ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या तेऽअग्ने यःशया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रँ वचो अपावधीत्त्वेषँ वचो अपावधीत्स्वाहा । या ते अग्ने रजः शया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रँ वचो अपावधीत्त्वेषँ वचो अपावधीत्स्वाहा । या ते अग्ने हरिशया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रँ वचो अपावधीत्त्वेषं वचो अपावधीत्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। अग्ने। अयःशयेत्ययःऽशया। तनूः। वर्षिष्ठा। गह्वरेष्ठा। गह्वरेस्थेति गह्वरेऽस्था। उग्रम्। वचः। अप। अवधीत्। त्वेषम्। वचः। अप। अवऽधीत्। स्वाहा। या। ते। अग्ने। रजःशयेति रजःशया। तनूः। वर्षिष्ठा। गह्वरेष्ठा। गह्वरेस्थेति गह्वरेऽस्था। उग्रम्। वचः। अप। अवधीत्। त्वेषम्। वचः। अप। अवधीत्। स्वाहा॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः सा विद्युत् कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यूयं या तेऽग्नेऽस्या विद्युतो वर्षिठा गह्वरेष्ठा तनूरुग्रं वचोऽपावधीदपहन्ति त्वेषं वचः स्वाहा सुहुतं हविरन्नं चापावधीत्। या तेऽग्नेऽस्या विद्युतो वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा रजःशया तनूरुग्रं वचोऽपावधीत् त्वेषं वचः स्वाहा सुहुतां वाचं चापावधीद्धन्ति तां सम्यक् विदित्वोपकुरुत॥८॥

    पदार्थः

    (या) वक्ष्यमाणा (ते) अस्याः (अग्ने) विद्युतः (अयःशया) याऽयस्सु सुवर्णादिषु शेते सा। अय इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰१। २) (तनूः) व्याप्तं विस्तृतं शरीरम् (वर्षिष्ठा) अतिशयेन वृद्धा (गह्वरेष्ठा) गह्वरे गहने गभीर आभ्यन्तरे तिष्ठतीति (उग्रम्) क्रूरं भयङ्करम् (वचः) वचनम् (अप) व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यम्। (निरु॰१। ३) (अवधीत्) हन्ति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लुङ्। (त्वेषम्) प्रदीप्तम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतं हविरन्नम् (या) (ते) (अग्ने) (रजःशया) या रजःसु सूर्य्यादिलोकेषु शेते सा (तनूः) व्याप्तिः (वर्षिष्ठा) (गह्वरेष्ठा) (उग्रम्) दुःसहम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) (त्वेषम्) प्रकाशितम् (वचः) वचनम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ४। २३-२५) व्याख्यातः॥८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्युतो या व्याप्तिर्मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यस्था वर्त्तते तां युक्त्या सम्यक् विदित्वोपसंप्रयोज्य सर्वाणि दुःखान्यपहन्तव्यानि॥८॥

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    विषयः

    पुनः सा विद्युत् कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या: ! यूयं या वक्ष्यमाणा तेऽग्ने=अस्या विद्युतो वर्षिष्ठा अतिशयेन वृद्धा गह्वरेष्ठा गह्वरे=गहने गभीर आभ्यन्तरे तिष्ठतीति [अयःशया] या अयस्सु=सुवर्णादिषु शेते सा तनूः व्याप्तं=विस्तृतं शरीरम् उग्रं क्रूरं भयङ्करं वचः वचनम् अपावधीत्= अपहन्ति, त्वेषं प्रदीप्तं वचः परिभाषणं स्वाहा=सुहुतं हविरन्नं चापावधीत्अपहन्ति। या वक्ष्यमाणा तेऽग्ने=अस्या विद्युतो वर्षिष्ठा अतिशयेन वृद्धा गह्वरेष्ठा गह्वरे=गहने गभीर आभ्यन्तरे तिष्ठतीति रजःशया या रजःसु=सूर्यादिलोकेषु शेते सा तनूः व्याप्तिः उग्रं दुःसहम् वचः परिभाषणम् अपावधीत् अपहन्ति त्वेषं प्रकाशितंवचः वचनं स्वाहा=सुहुतां वाचं चापावधीत्=हन्तिया वक्ष्यमाणा तेऽग्ने=अस्याविद्युतो वार्षिष्ठा अतिशयेन वृद्धा गह्वरेष्ठा गह्वरे=गहने गभीर अभ्यन्तरे तिष्ठन्तीति हरिशया हरिषु=सूर्यादिष्वश्यादिषु वा शेते सा तनूः व्याप्तिः उग्रं तीव्रंवचः वचनम् अपावधीत्अपहन्ति,त्वेषं प्रकाशकंवचः शब्दनं स्वाहा=स्वां वाचं स्वा स्वकीया वागाहेति च अपावधीत्=हन्ति तां सम्यग् विदित्वोपं कुरुत ॥ ५ । ८॥ [हे मनुष्या! यूयं या तेऽग्ने=अस्या विद्युतो.....तनूरुग्रं वचोऽपावधीत्=अपहन्ति........तां सम्यग् विदित्वोपकुरुत]

    पदार्थः

    (या) वक्ष्यमाणा (ते) अस्याः (अग्ने) विद्युतः (अयःशया) याऽयस्सु=सुवर्णादिषु शेते सा। अय इति हिरण्यनामसु पठितम् ॥ निघं० १। २ ॥ (तनूः) व्याप्तं=विस्तृतं शरीरम् (वर्षिष्ठा) अतिशयेन वृद्धा (गह्वरेष्ठा) गह्वरे=गहने गभीर आभ्यन्तरे तिष्ठतीति (उग्रम्) क्रूरं=भयङ्करम् (वचः) वचनम् (अप) व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यम् ॥ निरु० १। ३॥(अवधीत्) हन्ति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लुङ् (त्वेषम्) प्रदीप्तम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतं हविरन्नम् (या) (ते) (अग्ने) (रजःशया) या रजःसु=सूर्य्यादिलोकेषु शेते सा (तनूः) व्याप्तिः (वर्षिष्ठा) (गह्वरेष्ठा) (उग्रम्) दुःसहम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) (त्वेषम्) प्रकाशितम् (वचः) वचनम् (अप) पृथक्ककरणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतां वाचम् (या) (ते) (अग्ने) इत्युक्तार्थ: (हरिशया) हरिषु=सूर्यादिष्वश्वादिषु वा शेते सा (तनूः) (वर्षिष्ठा) (गह्वरेष्ठा) इत्युक्तार्थः (उग्रं) तीव्रम् (वचः) वचनम् (अप) (अवधीत्) (त्वेषम्) प्रकाशकम् (वचः) शब्दनम् (अप) (अवधीत्) (स्वाहा) स्वा= स्वकीया वागाहेति ॥ अयं मंत्र: शत० ३ । ४ । ४ । २३-२५ व्याख्यातः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्युतो या व्याप्तिर्मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यस्था वर्त्तते तां युक्त्या सम्यक् विदित्वोपसंप्रयुज्य सर्वाणि दुःखान्यपहन्तव्यानि ॥५। ८ ॥

    विशेषः

    गोतमः। अग्निः=विद्युत् । पूर्वस्य विराडार्षी बृहती। या त इति द्वितीयस्य निचृदार्षी बृहती। मध्यमः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो! तुम को (या) जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (अयःशया) सुवर्णादि में सोने (वर्षिष्ठा) अत्यन्त बड़ा (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में रहने वाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर भयङ्कर (वचः) वचन को (अपावधीत्) नष्ट करता और (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) शब्द वा (स्वाहा) उत्तमता से हवन किये हुए अन्न को (अपावधीत्) दूर करता और जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (वर्षिष्ठा) अत्यन्त विस्तीर्ण (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में स्थित होने (रजःशया) लोकों में सोने वाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर (वचः) कथन को (अपावधीत्) नष्ट करता है (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) कथन वा (स्वाहा) उत्तम वाणी को (अपावधीत्) नष्ट करता है, उसको जान के उससे कार्य्य लेना चाहिये॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि सब स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों में रहने वाली जो बिजुली की व्याप्ति है, उस को अच्छे प्रकार जानकर उपयुक्त करके सब दुःखों का नाश करें॥८॥

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    विषय

    ‘अयःशया-रजःशया-हरिशया तनूः’

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में सोम = वीर्यशक्ति का उल्लेख था। यही वीर्य शरीर को ‘पत्थर [ अश्मा ] व वज्र-[ steel अयः ]’-तुल्य बनाता है, मन को उत्साह-सम्पन्न करके नाना प्रकार के कर्मसंकल्पों से भरता है और मस्तिष्क को दुःखों का हरण करनेवाले ज्ञान से भरता है। शरीर, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से उन्नत होकर यह सोम के आप्यायनवाला व्यक्ति बड़ी मधुर व विनम्र वाणी बोलता है। इसकी वाणी में उग्रता व अहंकार की झलक नहीं होती। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हे ( अग्ने ) = [ वीर्यं वा अग्निः—तै० १।७।२।२ ] सब उन्नतियों के साधक सोम [ वीर्य ]! ( या ) = जो ( ते ) = तेरा ( अयःशया ) = इस वज्रतुल्य शरीर में रहनेवाला ( तनूः ) = रूप है ( वर्षिष्ठा ) = जो सब सुखों की वर्षा करनेवाला है और ( गह्वरेष्ठा ) = गम्भीरता में स्थित होनेवाला है, वह ( उग्रं वचः ) = उग्र वचन को हमसे दूर करे और ( त्वेषं वचः ) = चमकते हुए गर्वपूर्ण वचनों को ( अपावधीत् ) = सुदूर नष्ट करे। ( स्वाहा ) = [ सु आह ] यह बात सचमुच सुन्दर है। सोम की रक्षा से शरीर दृढ़ बनता है, नीरोगता का आनन्द प्राप्त होता है, साथ ही मन में उथलापन—खिझ आदि उत्पन्न नहीं होते। यह पूर्ण स्वस्थ पुरुष न तो कटु [ उग्रम् ] शब्द बोलता है और न ही वह घमण्ड करता [ त्वेषम् ] है। 

    २. हे ( अग्ने ) = सोम! ( या ) = जो ( ते ) =  तेरा ( रजःशया ) = हृदयान्तरिक्ष [ रजः ] में रहनेवाला ( तनूः ) = रूप है, वह ( वर्षिष्ठा ) = सुखों की वर्षा करनेवाला और ( गह्वरेष्ठा ) = गम्भीरता में स्थित तेरा रूप ( उग्रं वचः अपावधीत् ) = उग्र वचनों को मुझसे दूर करे, ( त्वेषं वचः अपावधीत् ) = अहंकार से दीप्त वचनों को हमसे दूर करे। सोम की रक्षा से हृदय सदा उत्तम कर्मों की भावना से भरा रहता है। उस हृदय में किसी प्रकार की कटुता व किसी प्रकार का गर्व नहीं होता। 

    ३. हे ( अग्ने ) = सोम! ( या ) = जो ( ते ) = तेरा ( तनूः ) = रूप ( हरिशया ) = सर्वदुःखहर ज्ञान में निवास करता है, जो ( वर्षिष्ठा ) = सुखों की वर्षा करनेवाला है और ( गह्वरेष्ठा ) = गम्भीरता में स्थित है, वह ( उग्रं वचः अपावधीत् ) = कटुवचनों को दूर करे तथा ( त्वेषं वचः अपावधीत् ) = अहंकार-दीप्त वचन को दूर करे। वस्तुतः सोम वर्षिष्ठ होकर हमारे मनों को आनन्दमय बनाता है और हमसे कटुवचनों को दूर करता है। यह सोम गह्वरेष्ठ होकर हमें गम्भीर बनाता है और हमें अभिमानपूर्ण वचनों से दूर करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — सोम से हमारा शरीर वज्रतुल्य बने, मन शिवसंकल्पवाला हो और मस्तिष्क दुःखहर ज्ञान से परिपूर्ण हो। हम न कटु वचन बोलें न ही अभिमानपूर्ण बातें करें।

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    विषय

    राजा की शक्ति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! राजन् ! ( या ) जो ( ते ) तेरी (तनूः )व्यापक शक्ति ( अयः शया ) अयस् =अर्थात् निम्न श्रेणी की प्रजाओं में प्रसुप्त रूप में विद्यमान, ( वर्षिष्ठा ) नाना सुखों की वर्षा करने वाली (गव्हरेष्ठा ) प्रजा के हृदयों में बसी है. वह शत्रुओं के ( उग्रं वचः अपावधीत् ) उग्र भयकारी वचन का नाश करती है । और ( त्वेषं वचः ) प्रदीप्त क्रोध पूर्ण.. वचन को ( अपावधीत् ) नाश करती है । उसी प्रकार हे अग्ने ! ( या ते तनूः ) जो तेरी विस्तृत शक्ति ( रजः शया ) रजस्, अर्थात राजस, क्रियाशील मध्यम श्रेणी के लोगों में व्याप्त है वह भी ( वर्षिष्ठा ) अति सुख वर्षक या बड़ी विस्तीर्ण और ( गव्हरेष्ठा ) निगूढ़ है । ( उग्रं वच० इत्यादि). वह भी शत्रु के भयंकर और तीखे वचनों का नाश करती है। इसी प्रकार हे ( अग्ने ) राजन् ! ( या ते तनू : ) जो तेरी विस्तृत शक्ति ( हरि-शया ) हरणशील या ज्ञानवान् पुरुषों के भीतर या हरणशील, पशु और सवारियों में, ( वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा ) अति विस्तृत और निगूढ रूप से विद्यमान है वह भी ( उग्रं वचः अपावधीत्, त्वेषं वचः अपावधीत् ) शत्रु के उग्र और तीक्ष्ण वचनों का नाश करती है । ( स्वाहा ) वह शक्ति राजा का उत्तम वचन. ज्ञान रूप ही है ।। 
    विद्युत् और अग्नि पक्ष में- हे अग्ने ! तेरी जो ( तनूः ) शक्ति ( अयः शयाः ) लोहादि धातु में है और तेरी शक्ति ( रजः शयाः) सूक्ष्म परमाणुओं  में विद्यमान है और जो ( हरिशया ) तीव्रगतिमान् विद्युत्, प्रकाश, तापः आदि में विद्यमान है वह ( वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा ) अति बलवती और बहुतनिगूढ़ है । वह भी ( उग्रं ) अति भयंकर ( वचः ) शब्द ( अपावधीत् ) उत्पन्न करती है । ( त्वेषं वचः अप अवधीत् ) तीव्र वचन या शब्द या तेजोमयरूप उत्पन्न करने में समर्थ है । ( स्वाहा ) वह शक्ति उत्तम रीति से सब पदार्थों के भीतर विद्यमान है | 
    परमेश्वर के पक्ष में  -- हे अग्ने ! परमात्मन् ! जो तेरी शक्ति ( अय:शया) दिशाओं में या इस भूलोक में, ( रजशयाः ) समस्त लोकों में और ( हरिशया ) द्यौलोक या आदित्य में व्यापक है वह ( वर्षिष्टा ) सबसे महान् और (गह्वरेष्ठा ) सबके भीतर गुप्तरूप से विद्यमान है। वह ( उग्रं- वचः अपावधीत् ) बड़े बलवान् वचन या विज्ञान को प्रकट करती है । ( त्वेषं वचः अपावधीत् ) वह बड़े तीव्र वचन अर्थात् सुतीक्ष्ण ज्ञान को प्रकट करती है | शत० ३ । ४ । ४ । २३-२५ ॥ 
    इस मन्त्र में कुछ शब्दों के स्पष्टीकरण नीचे लिखे उद्धरण से स्पष्ट करते हैं---'अय:' = दिशो वा अयस्मय्यः । तै० ३ । स ६ । ५ । विशः एतद् रूपं यदयः । श० १३ । २ । २ । १९ ॥ भूलोकस्य रूपमयस्मय्यः । तै० ३ । ७ । ६ । ५ ॥ 'रज:'- द्यौर्वै तृतीयं रजः । श० ६ ।७ । ४ । ५ ॥ इयं रजता ! तै० १८ | ७ | ८ ॥ अन्तरिक्षस्य रूपं रजताः । तै० ३।७।६। ५ ॥ राष्ट्रं हरिणः । श ० १३ । २ । ९ । ८ ॥ हरिणी हि द्यौः । श० १४ । १ । ३ । २७ ॥ विड् वै हरिणी । तै० ३ । ९ । ७ । २ ॥ हरिश्रियः पशवः । तां० १५ । ३ । १० ॥
     

    टिप्पणी

     १ या ते। २ या ते अग्ने।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।अग्निर्देवता । ( १ ) पूर्वस्य विराड् आर्षी ब्रहती । ( २ )
    निचृदार्षी बृहती । मध्यमः ॥
     

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    विषय

    फिर वह बिजली कैसी है, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (या) जो (ते अग्ने) इस विद्युत् का (वर्षिष्ठा) अत्यन्त बड़ा (गह्वरेष्ठा) अन्दर रहने वाला (अयःशया) सोने आदि में रहने वाला (तनूः) व्यापक विस्तृत शरीर है वह (उग्रम्) क्रूरभयङ्कर (वचः) वचन को (अपावधीत्) दूर करता है, तथा (त्वेषम्) दीप्तिमय (वचः) वचन को (अपावधीत्) दूर करता है। तथा (स्वाहा) अच्छे प्रकार दी हुई हवि को औरअन्नको (अपावधीत्) दूर ले जाता है। (या) जो (तेऽग्ने) इस विद्युत् की (वर्षिष्ठा) अत्यन्तविशाल (गह्वरेष्ठा) अन्दर गहराई में रहने वाली (रजःशया) सूर्यादि लोकों में स्थित (तनूः) व्यापकता है वह (उग्रम्) असह्य (वचः) वचन को (अपावधीत्) नष्ट कर देती है और (त्वेषम्) प्रकाशित एवं प्रकट (वचः) उच्चारण को (स्वाहा) एवं अच्छे प्रकार प्रदान की हुई वाणी को (अपावधीत्) दूर ले जाती है (या) जो (ते अग्ने) इस विद्युत् की (वर्षिष्ठा) अत्यन्त विशाल (गह्वरेष्ठा) अन्दर गहराई में विद्यमान अर्थात् छुपी हुई (हरिशया) हरि अर्थात् सूर्य आदि और अश्व आदि में जो (तनूः) व्याप्ति है वह (उग्रम्) तीव्र (वचः) वचन को (अपावधीत्) नष्ट करती है, (त्वेषम्) प्रकाशक (वचः) शब्द को तथा (स्वाहा) अपनी वाणी को (अपावधीत्) नष्ट करती है, उसे ठीक-ठीक जानकर उपकार ग्रहण करो ॥ ५ । ८ ॥ मनुष्य, विद्युत् की जो व्याप्ति मूर्त्त और अमूर्त्त द्रव्यों में है, उसे युक्तिपूर्वक उत्तम रीति से जानकर तथा उसका ठीक उपयोग करके सब दुःखों को नष्ट करें ॥ ५ । ८ ॥

    प्रमाणार्थ

    (अयःशया) 'अयः' शब्द निघं० (१ । २) में हिरण्य-नामों में पढ़ा है। (अप) निरु० (१ । ३) अनुसार 'अप' उपसर्ग का अर्थ 'वि' उपसर्ग से विपरीत है (अवधीत्) इस मन्त्र में 'अवधीत्' पद पर सर्वत्र लट् अर्थ में लुङ् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।४।४।२३-२५ ) में की गई है ॥ ५ । ८ ॥

    भाष्यसार

    अग्नि (विद्युत्) कैसा है--अग्निं अर्थात् विद्युत् अत्यन्त महान् है जो सब मूर्त और अमूर्त द्रव्यों में छुपा हुआ है, व्याप्त है अर्थात् वह सुवर्ण आदि धातुओं में, सूर्य आदि लोकों में, अश्व आदि प्राणियों में विशिष्ट रूप से विराजमान है। यह भयङ्कर, तेज, दु:सह, भाषण को दूर कर देता है। तेज भाषण को दूर करने का अभिप्राय यह है कि विद्युत् के उपयोग से ऐसा यन्त्र बनायें कि जिससे तेज बोलने की आवश्यकता न रहे। जैसे कि आजकल ध्वनि-विस्तारक (लाउडस्पीकर) यन्त्र है। यह (अग्नि) जिस प्रकार दी हुई आहुति को दूर ले जाता है इसी प्रकार विद्युत् के आश्रय से वचन (भाषण) भी दूर चला जाता है । इस प्रकार विद्युत्-विद्या को जानकर भाषण आदि सब दुःखों को दूर करें ।। ५ । ८ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी सगळ्या स्थूल व सूक्ष्म पदार्थांमध्ये असणाऱ्या विद्युतशक्तीची व्यापकता जाणून तिचा यथायोग्य उपयोग करावा व दुःखांचा नाश करावा.

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    विषय

    पुन्हा ती विद्युत कशी आहे, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ- (या) जे (ते) या (अग्ने) विद्युतरूप अग्नाचे रूप (अयःशया) सुवर्ण आदी धातूमधे सुप्तावस्थेत आहे, जी विद्युत (वर्षिष्ठा) अत्यंत महान् व शक्तीशाली आहे (गहृरेष्ठा) वस्तूंच्या अभ्यंतरी निवास करणारी आहे. तिचे (तनूः) शरीर (उग्रम) क्रूर वा विनाशक असून (वचः) दुष्ट वचनांना (अज्ञानी व्यक्तीच्या अशास्त्रीय सिद्धांताना (अपावधत्) नष्ट करणारे आहे. ती विद्युत (वचः) शब्दाला तसेच (स्वाहा) उत्तमरीत्या हवनात टाकलेल्या अन्न आदी सामग्रीला (योग्य ठिकाणी पोहचविणारी) (अपावधीत्) दूर करणारी आहे. तसेच (ते) अग्ने) विद्युतरूप अग्नीचे (कर्षिष्ठा अत्यंत विस्तीर्ण रूप असून पदार्थांच्या (गहृरेष्ठा) अभ्यंतरी स्थित आहे. तसेच त्याचे लोकलोकांतरात पसरलेले असे (तनूः) शरीर म्हणजे विद्युत शक्ती (उग्रम्) क्रूर (अशुद्ध) (वचः) वावीला (सिद्धांत व तत्त्वांना) (अपावधीत्) नष्ट करते. (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) वाणीला अथवा (स्वाहा) उत्तम वाणीला (अल्पावधीत) नष्ट करते मनुष्यांनी या शक्तीचे गुण जाणून घेऊन तिच्यापासून कार्यसिद्धी केली पाहिजे ॥8॥ ^(या मंत्रात ‘उग्रं वचः’ वाणी व (त्वेषम् वचः) प्रदीप्त वारीला विद्युत नष्ट करते, दुष्टवचनांचा नाश करते, या कथनाचा अर्थबोध नीट होत नाही. महर्षींनां कोणता अर्थ अभिप्रेत होता, तो कळणे शक्य नसल्यामुळे व्याख्या व अनुवाद करतांना केवळ शब्दार्थ दिला आहे.

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांकरिता हे योग्य आहे की त्यानी सर्व स्थूल आणि सूक्ष्म पदार्थात राहणारी जी विद्युत-शक्ती आहे, त्याचे योग्य रीतीने ज्ञान मिळवावे आणि त्याच्या उपयोगाद्वारे सर्व दुःखांचा नाश करावा ॥8॥

    टिप्पणी

    यजुर्वेदाचे दुसरे एक भाष्यकार पं. दामोदर सातळेकर यांनी ‘उग्रम् वचः) या शब्दांचा अर्थ - “असुरों के विषम देश में स्थित रहनेवाला वह तुम्हारा शरीर दैत्यौं की उग्रवाणी को नाश करता हुआ तथा असुरों के कहे आक्षेप रूप वचन को विनाश करता हुआ” असा केला आहे आणि अग्नी शब्दाचा अर्थ विद्युत न घेता भौतिक अग्नी घेतला आहे. तरीही अर्थ आकलन नीट होत नाही - अनुवादक)

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O fire, thy force which is present in metals like gold, in all the spheres like the sun and in lightning; is vast and deep. It creates an awful and formidable sound ; and is powerful to emit invigorating utterances. That force is present in every object.

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    Meaning

    Agni, Lord of fire and speech, your presence (in the devotee), silent but potential as in the metals of the earth, generous and deep in the caverns of the mind, defeats the cruellest and most fearsome words of the opponent. Your presence (in the devotee), loud and powerful as in the air and waters of the sky, generous and deep as in the caverns of the clouds, defeats the strongest and most passionate words of the opponent. Your presence (in the devotee), clear and brilliant as in the rays of light, generous and deep as in the implosions of the sun, overwhelms the most brilliant and most formidable speech of the opponent. This is the voice of nature. This is the voice of the Veda. This is the voice of the Divine.

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    Translation

    O adorable Lord, your noblest form, that lies deep in the cave encased in copper, drives off the unpleasant speech and drives off the angry speech. Svaha. (1) O adorable Lord, your noblest form, that lies deep in the cave encased in silver, drives off the unpleasant speech and drives off the angry speech. Svaha. (2) O adorable Lord, your noblest form, that lies deep in the cave encased in gold, drives off the unpleasant speech and drives off the angry speech. Svaha. (3)

    Notes

    Ayahéayi, lies encased in copper (or iron). RajahSaya, lies encased in silver. Harigaya, lies encased in gold. Tvesam vacah, angry speech. According to the legend, the Asuras, having been defeated in battle by Devas, made three castlss, one of copper or iron on earth, one of silver in the midspace and one of gold in the sky. Agni, at the request of Devas, in the form of upasada deity, entered them and burnt them and they became the three bodies of Agni.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সা বিদ্যুৎ কীদৃশীত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই বিদ্যুৎ কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমাদেরকে (য়া) যে (তে) এই (অগ্নে) বিদ্যুৎ রূপ অগ্নির (অয়ঃশয়া) সুবর্ণাদিতে শয়ন করে, (বর্ষিষ্ঠা) অত্যন্ত বৃহৎ (গহ্বরেষ্ঠা) আভ্যন্তরের নিবাসী (তনুঃ) শরীর (উগ্রম্) ক্রূর ভয়ংঙ্কর (বচঃ) বচনকে (অপাবধীৎ) নষ্ট করে এবং (ত্বেষম্) প্রদীপ্ত (বচঃ) শব্দ বা (স্বাহা) উত্তমতাপূর্বক হবন কৃত অন্নকে (অপাবধীৎ) দূর করে এবং যে (তে) এই (অগ্নে) বিদ্যুৎ রূপ অগ্নির (বর্ষিষ্ঠা) অত্যন্ত বিস্তীর্ণ (গহ্বরেষ্ঠা) আভ্যন্তরে স্থিত (রজঃশয়া) লোকে শয়নকারী (তনূঃ) শরীর (উগ্রম্) ক্রূর (বচঃ) কথনকে (অপাবধীৎ) নষ্ট করে (ত্বেষম্) প্রদীপ্ত (বচঃ) কথন বা (স্বাহা) উত্তম বাণীকে (অপাবধীৎ) নষ্ট করে জানিয়া উহা হইতে কার্য্য লওয়া উচিত ॥ ৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, সকল স্থূল এবং সূক্ষ্ম পদার্থে নিবাসকারী যে বিদ্যুতের ব্যাপ্তি উহা ভাল প্রকার অবগত হইয়া, উপযুক্ত করিয়া সকল দুঃখের নাশ করুক ॥ ৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়া তে॑ऽঅগ্নেऽয়ঃশ॒য়া ত॒নূর্বর্ষি॑ষ্ঠা গহ্বরে॒ষ্ঠা । উ॒গ্রং বচো॒ऽঅপা॑বধীত্ত্বে॒ষং বচো॒ऽঅপা॑বধী॒ৎ স্বাহা॑ । য়া তে॑ऽঅগ্নে রজঃশ॒য়া ত॒নূর্বর্ষি॑ষ্ঠা গহ্বরে॒ষ্ঠা । উ॒গ্রং বচো॒ऽঅপা॑বধীত্ত্বে॒ষং বচো॒ऽঅপা॑বধী॒ৎ স্বাহা॑ । য়া তে॑ऽঅগ্নে হরিশ॒য়া ত॒নূর্বর্ষি॑ষ্ঠা গহ্বরে॒ষ্ঠা । উ॒গ্রং বচো॒ऽঅপা॑বধীত্ত্বে॒ষং বচো॒ऽঅপা॑বধী॒ৎ স্বাহা॑ ॥ ৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়া ত ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । পূর্বস্য বিরাডার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
    য়া ত ইতি দ্বিতীয়স্য তৃতীয়স্য চ নিচৃদার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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