यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
195
भव॑तं नः॒ सम॑नसौ॒ सचे॑तसावरे॒पसौ॑। मा य॒ज्ञꣳ हि॑ꣳसिष्टं॒ मा य॒ज्ञप॑तिं जातवेदसौ शि॒वौ भ॑वतम॒द्य नः॑॥३॥
स्वर सहित पद पाठभव॑तम्। नः॒। सम॑नसा॒विति॒ सऽम॑नसौ। सचे॑तसा॒विति॒ सऽचे॑तसौ। अ॒रे॒पसौ॑। मा। य॒ज्ञम्। हि॒सि॒ष्ट॒म्। मा। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। जा॒त॒वे॒द॒सा॒विति॑ जातऽवेदसौ। शि॒वौ। भ॒व॒त॒म्। अ॒द्य। नः॒ ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञँ हिँसिष्टंम्मा यज्ञपतिञ्जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥
स्वर रहित पद पाठ
भवतम्। नः। समनसाविति सऽमनसौ। सचेतसाविति सऽचेतसौ। अरेपसौ। मा। यज्ञम्। हिसिष्टम्। मा। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। जातवेदसाविति जातऽवेदसौ। शिवौ। भवतम्। अद्य। नः॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
यजमानयज्ञसम्पादकौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यावरेपसौ समनसौ सचेतसौ जातवेदसावध्येत्रध्यापकौ नोऽस्मभ्यमुपदेष्टारौ भवतं स्याताम्, तौ यज्ञं यज्ञपतिं च मा हिंसिष्टं मा हिंस्याताम्। एतावद्य नोऽस्मभ्यं शिवौ मङ्गलकारिणौ भवतं स्याताम्॥३॥
पदार्थः
(भवतम्) स्यातम् (नः) अस्मभ्यम् (समनसौ) समानं मनो विज्ञानं ययोस्तौ (सचेतसौ) समानं चेतसं ज्ञानं संज्ञापनं विज्ञापनं ययोस्तौ (अरेपसौ) अविद्यमानं रेपो व्यक्तं प्राकृतं वचनं ययोरध्येत्रध्यापकयोस्तौ (मा) निषेधार्थे (यज्ञम्) अध्ययनाध्यापनाख्यं कर्म (हिंसिष्टम्) हिंस्याताम् (मा) निषेधार्थे (यज्ञपतिम्) एतद्यज्ञपालयितारम् (जातवेदसौ) जातं वेदो विद्या ययोस्तौ (शिवौ) मङ्गलकारिणौ (भवतम्) भवेतम् (अद्य) अस्मिन् दिने (नः) अस्मभ्यम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ४। १। २४) व्याख्यातः॥३॥
भावार्थः
मनुष्यैर्नैव कदाचित् विद्याप्रचारायाध्ययनमध्यापनं च त्यक्तव्यं मङ्गलाचरणं च, अस्य सर्वोत्कृष्टवात्॥३॥
विषयः
यजमानयज्ञसम्पादकौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
यावरेपसौअविद्यमानं रेपो=व्यक्तं प्राकृतं वचनं ययोरध्येत्रध्यापकयोस्तौ समनसौ समानं मनो=विज्ञानं ययोस्तौ सचेतसौ समानं चेतसं=ज्ञानं संज्ञापनं ययोस्तौ जातवेदसौ=अध्येतृ-अध्यापकौ जातं वेदो=विद्या ययोस्तौ, नः=अस्मभ्यमुपदेष्टारौ भवतं=स्यातांतौ यज्ञम् अध्ययनाध्यापनाख्यं कर्म यज्ञपतिम् एतद्यज्ञ-पालयितारंच मा हिसिष्टं=मा= हिंस्याताम्। एतावद्य अस्मिन् दिने नः अस्मभ्यं शिवौ=मंगलकारिणौ भवतं=स्यातांभवेतम् ।। ५ । ३ ।। [यावरेपसौ........जातवेदसावध्येत्रध्यापकौ नः=अस्मभ्यभुदेष्टारौ भवतं=स्यातां, तौ यज्ञं यज्ञपतिं च मा हिंसिष्टम्=मा हिंस्याताम् एतावद्य नः=अस्मभ्यं शिवौ=मङ्गलकारिणौ भवतं=स्याताम् ]
पदार्थः
(भवतम्) स्यातम् (नः) अस्मभ्यम् (समनसौ ) समानं मनो=विज्ञानं ययोस्तौ (सचेतसौ) समानं चेतसं=ज्ञानं संज्ञापनं ययोस्तौ (अरेपसौ) अविद्यमानं रेपौ=व्यक्तं प्राकृतं वचनं ययोरध्येत्रध्यापकयोस्तौ (मा) निषेधार्थे (यज्ञम्) अध्ययनाध्यापनाख्यं कर्म (हिंसिष्टम्) हिंस्याताम् (मा) निषेधार्थे (यज्ञपतिम्) एतद्यज्ञपालयितारम् (जातवेदसौ) जातं वेदो=विद्या ययोस्तौ (शिवौ) मङ्कलकारिणौ (भवतम्) भवेतम् (अद्य) अस्मिन् दिने (नः) अस्मभ्यम्॥ अयं मंत्रः शत० ३। ४ । १ । २४ व्याख्यातः॥ ३॥
भावार्थः
मनुष्यैर्नैव कदाचित् विद्याप्रचारायाध्ययनमध्यापनं च त्यक्तव्यं मङ्गलाचरणं चास्य सर्वोत्कृष्टत्वात् ॥ ५ । ३ ॥
विशेषः
गोतमः । यज्ञः=स्पष्टम् । आर्षीपंक्ति: । पंचमः॥
हिन्दी (4)
विषय
यजमान और यज्ञ की सिद्धि करने वाले विद्वान् कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जो (अरेपसौ) प्राकृत मनुष्यों के भाषारूपी वचन से रहित (समनसौ) तुल्य विस्तारयुक्त (सचेतसौ) तुल्य ज्ञान-ज्ञापनयुक्त (जातवेदसौ) वेद और उपविद्याओं को सिद्ध किये हुए पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये उपदेश करने वाले (भवतम्) होवें। जो (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ वा (यज्ञपतिम्) विद्याप्रद यज्ञ के पालन करने वाले यज्ञमान को (मा मा हिंसिष्टम्) न पीडि़त करें। वे (अद्य) आज (नः) हम लोगों के लिये (शिवौ) मङ्गल करने वाले (भवतम्) होवें॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि विद्याप्रचार के लिये पढ़ना पढ़ाना वा मङ्गलाचरण को न छोड़ें, क्योंकि यही सर्वोत्तम कर्म है॥३॥
विषय
पति-पत्नी कैसे बनें ?
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि ( नः ) = मेरी प्राप्ति के लिए ( समनसौ ) = समान मनवाले ( भवतम् ) = होओ। जो पति-पत्नी परस्पर विरुद्ध मनवाले होते हैं उनके जीवन में प्रतिक्षण अशान्ति चलती है, और इस अशान्त अवस्था में उन्होंने प्रभु को क्या प्राप्त करना ?
२. ( सचेतसौ ) = तुम समान संज्ञानवाले बनो। प्रभु को प्राप्त करने के इच्छुक पति-पत्नी को चाहिए कि वे नैत्यिक स्वाध्याय से अपनी ज्ञानाङ्गिन को दीप्त रक्खें और संज्ञानवाले हों। दोनों समान मनवाले हों—दोनों की इच्छा ज्ञान-प्राप्ति की हो। ज्ञान प्राप्त करके ३. ( अरेपसौ ) = आप दोनों निर्दोष ( भवतम् ) = होओ। [ रेपस् = Sin ] ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला कुछ है ही नहीं। यह ज्ञान तुम्हारे सब दोषों को भस्म करनेवाला हो। इस प्रकार निर्दोष बनकर ४. ( यज्ञं मा हिंसिष्टम् ) = अपने जीवन में यज्ञ को हिंसित मत होने दो। आपका जीवन निरन्तर यज्ञमय हो। सौ-के-सौ वर्ष क्रतु [ यज्ञ ]-मय बिताकर ‘शतक्रतु’ बनने का प्रयत्न करो।
५. इस निरन्तर यज्ञशीलता से ( यज्ञपतिम् ) = उस यज्ञों के पति [ रक्षक ] प्रभु को( मा हिंसिष्टम् ) = मत हिंसित करो। उसे भूल न जाओ। उसे भूलकर तो तुम अपने को ही ‘यज्ञपति’ समझने लगोगे। तुम्हें इन यज्ञों के कर्त्तव्य का गर्व हो जाएगा, और यह गर्व उन यज्ञों को आसुर यज्ञ बना देगा।
६. इन यज्ञों के लिए तुम ( जातवेदसौ ) = [ वेदस् = Wealth ] उत्पन्न धनवाले बनो, अर्थात् यज्ञों के निष्पादन के लिए आवश्यक सम्पत्ति का सम्पादन करनेवाले बनो।
७. उस सम्पत्ति से तुम ( शिवौ ) = सबका कल्याण करनेवाले बनो। तुम्हारा यह धन भूखे को रोटी देनेवाला व प्यासे को पानी पिलानेवाला हो। यह धन यज्ञों में विनियुक्त होकर सभी का हित साधन करे। इस प्रकार के बनकर अद्य = आज ही ( नः भवतम् ) = तुम हमारे हो जाओ। प्रभु-गृह्य बन जाओ।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभुप्रवण लोग ‘समान मनवाले, संज्ञानवाले, निर्दोष, यज्ञशील, यज्ञों का गर्व न करनेवाले, धनसम्पादक व कल्याणकर’ होते हैं।
विषय
स्त्री पुरुषों को परस्पर प्रेम से रहने का उपदेश ।
भावार्थ
हे स्त्री और पुरुष तुम दोनो ! ( नः ) हममें ( सचेतसौ ) समान चित्त वाले ( अरेपसौ ) पापरहित ( समनसौ ) एक समान ज्ञान या संकल्प विकल्प वाले ( भवतम् ) होकर रहो। तुम दोनों ( यज्ञम् ) एक दूसरे के प्रति परस्पर दान या परस्पर के संग को ( मा हिंसिष्टम् ) विनाश मत करो । ( यज्ञपतिम् ) इस यज्ञ के पालक को भी नाश मत करो । ( जातवेदसौ ) धन और ज्ञान से युक्त होकर ( अद्य ) आज से ( नः ) हमारे लिये (शिवौ) कल्याण और सुखकारी (भवतम्) होकर रहो। इसी प्रकार अध्यापक शिष्य, राजा प्रजा, राजा सचिव आदि पर भी यह मन्त्र समान रूप से लगता है | शत० ३ । ४ । १ । २०-२३ ॥
टिप्पणी
३ --०`सचेतसा अरेप०`इति काण्व०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः। यज्ञो दवेता । पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥
विषय
यजमान और यज्ञ की सिद्धि करने वाले विद्वान् कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश किया है ।
भाषार्थ
जो (अरेपसौ ) व्यक्त=प्राकृत वचन से रहित अध्येता और अध्यापक (समनसौ) एक मन=विज्ञान वाले (सचेतसौ) समान रूप से जानने-जनाने वाले (जातवेदसौ) विद्या को सिद्ध करने वाले जो पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वान् हैं वे (नः) हमारे लिये उपदेश करने वाले (भवतम्) हों, वे दोनों (यज्ञ) पठन-पाठन नामक यज्ञकर्म को (यज्ञपतिम्) और इस यज्ञ के पालक को (मा हिंसिष्टम्) कष्ट न होने देवें । और ये दोनों (अद्य) आज (नः) हमारे लिए (शिवौ) मंगलकारी (भवतम्) हों ॥ ५ । ३ ॥
भावार्थ
मनुष्य विद्या के प्रचार के लिये अध्ययन-अध्यापन तथा शुभ कर्मों के आचरण का कभी परित्याग न करें क्योंकि यह सब से उत्कृष्ट हैं ।। ५ । ३ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३।४।१।२४ ) में की गई है ॥ ५ । ३ ॥
भाष्यसार
यजमान और यज्ञसम्पादक कैसे हों--अध्ययन-अध्यापन सर्वोत्कृष्ट कर्म होने से यज्ञ है। छात्र और अध्यापक इस यज्ञ के यजमान और यज्ञसम्पादक हैं। वे दोनों कठोर वचन बोलनेवाले न हों। उनका मन एक हो, विज्ञान एक हो, जानना और जनाना एक हो । अध्यापक जैसा जनावें छात्र वैसा ही जानें। दोनों विद्या को सिद्ध करने वाले हों। अध्येता और अध्यापक दोनों सब मनुष्यों को विद्या का उपदेश करने वाले हों, विद्या के प्रचार के लिये अध्ययन-अध्यापन रूप कर्म की कभी हिंसा न करें, इसे कभी न छोड़ें और उक्त शुभ कर्म करने वाले को भी कभी कष्ट न देवें । अध्येता और अध्यापक सब के लिये मङ्गलकारी हों ।। ५ । ३ ।।
अन्यत्र व्याख्यात
महर्षि ने इसमन्त्र का विनियोग संस्कारविधि (सामान्य प्रकरण) में अष्टाज्याहुति मन्त्रों में किया है ।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी विद्येचा प्रचार, प्रसार करण्यासाठी अध्ययन, अध्यापन व चांगले आचरण सोडता कामा नये. कारण हेच सर्वोत्तम कर्म आहे.
विषय
यजमान आणि याजक विद्वान कसे असावेत, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (अरेपसौ) सामान्य मनुष्यांसारखी भाषा बोलणे वा तसे उच्चारण करणे हे ज्यांना शक्य नाही. (म्हणजे जे शुद्ध सुसंस्कृत भाषा वापरतात) असे विद्यार्थी आणि अध्यापक, हे दोघे जण (समनसौ) समान मन व विचाराचे असावेत (सचेतसौ) समान ज्ञानदान व ग्रहणशक्तीचे असावेत. (जातवेदसौ) वेद आणि उपविद्यांना वाचणारे आणि शिकविणारे विद्वान असावेत. ते अध्यापक व शिष्य (नः) आम्हा जनांना उपदेश करणारे (भवतम्) असावेत तसेच (यज्ञम्) अध्ययन व अध्यापनरूप यज्ञाला आणि (यज्ञपतिम्) विद्याप्रद यज्ञाचे पालन करणार्या यजमानाला (माहिंसिष्टम्) त्रासदायक वा पीडाकारक असूं नयेत. (वेद आदी शास्त्राचे अध्यापक व ग्रहीता विद्यार्थी एकमन असावेत आणि ते याज्ञिकास व यजमानास प्रतिकूल असूं नयेत, अनुकूल आणि मार्गदर्शक असावेत) ते दोघे (नः) आम्हा याज्ञिक यजमाना साठी (शिवौ) मंगल करणारे (भवतम्) असावेत/व्हावेत ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांसाठी उचित आहे की विद्येचा प्रचार प्रसार करण्यासाठी नेहमी अध्ययन, अध्यापन करीत राहावे आणि कधीही मंगलकारी आचरणास सोडूं नये, कारण की हेच सर्वोत्तम कार्य आहे ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O teacher and disciple, be ye for us of the same one thought, free from sin, and conversant with the knowledge of the Vedas. Harm not the sacrifice, harm not the sacrifices lord, the worshipper. Be kind to us this day.
Meaning
May the teacher and the disciple of the science of yajna be of equal mind in teaching and learning, harmonious in knowledge and instructions, gentle and free from coarseness in manners and communication. May these two devotees of the fire of yajna be auspicious harbingers of peace and happiness for us. May they not disturb or ruin the yajna. May they not hurt the yajnapati.
Translation
Be both of you single-minded, single-hearted, free from sin. Do not cause injury to the sacrifice as well as the sacrificer. О omniscient ones, be gracious to us this day. (1)
Notes
Sachetasan, you two of one mind. Arepasau, free from sin. Yajüspatim, to the sacrificer.
बंगाली (1)
विषय
য়জমানয়জ্ঞসম্পাদকৌ কীদৃশৌ ভবেতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
যজমান ও যজ্ঞের সিদ্ধিকারী বিদ্বান্ কেমন হওয়া উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–(অরেপসৌ) প্রাকৃত মনুষ্যদিগের ভাষণরূপী বচন রহিত (সমনসৌ) তুল্য বিজ্ঞানযুক্ত (সচেতসৌ) তুল্য জ্ঞানজ্ঞাপনযুক্ত (জাতবেদসৌ) বেদ ও উপবিদ্যাগুলিকে সিদ্ধ কৃত পঠন-পাঠন যুক্ত বিদ্বান্ (নঃ) আমাদিগের জন্য উপদেশকারী (ভবতম্) হউন । যাহারা (য়জ্ঞম্) পঠন-পাঠন রূপ যজ্ঞ বা (য়জ্ঞপতিম্) বিদ্যাপ্রদ যজ্ঞ পালনকারী যজমানকে (মা হিংসিষ্টম্) পীড়িত না করেন । তাঁহারা (আদ্য) আজ (নঃ) আমাদিগের জন্য (শিবৌ) মঙ্গলকারী (ভবতম্) হউন ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিদ্যাপ্রচার হেতু পঠন-পাঠন বা মঙ্গলাচরণ ত্যাগ করিবে না কেননা ইহাই সর্বোত্তম কর্ম ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ভব॑তং নঃ॒ সম॑নসৌ॒ সচে॑তসাবরে॒পসৌ॑ । মা য়॒জ্ঞꣳ হি॑ꣳসিষ্টং॒ মা য়॒জ্ঞপ॑তিং জাতবেদসৌ শি॒বৌ ভ॑বতম॒দ্য নঃ॑ ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ভবতং ন ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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