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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 39
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - सोमसवितारौ देवते छन्दः - साम्नी बृहती,निचृत् आर्षी पङ्क्ति, स्वरः - मध्यमः, पञ्चमः
    69

    देव॑ सवितरे॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन्। ए॒तत्त्वं दे॑व सोम दे॒वो दे॒वाँ२ऽउपागा॑ऽइ॒दम॒हं म॑नु॒ष्यान्त्स॒ह रा॒यस्पोषे॑ण॒ स्वाहा॒ निर्वरु॑णस्य॒ पाशा॑न्मुच्ये॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देव॑। स॒वि॒तः॒। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। ए॒तत्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। दे॒वः। दे॒वान्। उप॑। अ॒गाः॒। इ॒दम्। अ॒हम्। म॒नु॒ष्या॒न्। स॒ह। रा॒यः। पोषे॑ण। स्वाहा॑। निः। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। मु॒च्ये॒ ॥३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देव सवितरेष ते सोमस्तँ रक्षस्व मा त्वा दभन् । एतत्त्वन्देव सोम देवो देवाँऽउपागा इदमहम्मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निर्वरुणस्य पाशान्मुच्ये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देव। सवितः। एषः। ते। सोमः। तम्। रक्षस्व। मा। त्वा। दभन्। एतत्। त्वम्। देव। सोम। देवः। देवान्। उप। अगाः। इदम्। अहम्। मनुष्यान्। सह। रायः। पोषेण। स्वाहा। निः। वरुणस्य। पाशात्। मुच्ये॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे देव सवितः सभाध्यक्ष! यथाऽहं भवत्सहायेन स्वकीयमैश्वर्यं रक्षामि तथा त्वं य एष ते सोमोऽस्ति तं रक्षस्व। यथा मां शत्रवो न हिंसन्ति, तथा त्वा त्वामस्मत्सहाये मा दभन्। हे देव सोम! देवस्त्वं यथैतदेतस्माद् देवानुपागास्तथाऽहमप्युपागाम्। यथाऽहमिदमनुष्ठाय रायस्पोषेण सह वर्त्तमानो मनुष्यान् देवांश्चेत्य वरुणस्य पाशान्निर्मुच्ये तथा त्वमपि निर्मुच्यस्व॥३९॥

    पदार्थः

    (देव) सकलविद्याद्योतक (सवितः) ऐश्वर्यवन् (एषः) प्रत्यक्षः (ते) तव (सोमः) ऐश्वर्यसमूहः (तम्) (रक्षस्व) अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (दभन्) हिंस्युः, अत्र लिङर्थे लङ[भावश्च। (एतत्) एतस्मात् (त्वम्) सभाध्यक्षो राजा (देव) सुखप्रद (सोम) सन्मार्गे प्रेरक (देवः) विद्याप्रकाशस्थः (देवान्) दिव्यान् विदुषः (उप) सामीप्ये (अगाः) गच्छ (इदम्) त्वदनुष्ठितं अहम् (मनुष्यान्) मननशीलान् (सह) (रायः) धनसमुदायस्य (पोषेण) पुष्ट्या (स्वाहा) सत्यां वाचं वदन् सन् (निः) नितराम् (वरुणस्य) दुःखेनाच्छादकस्य तिरस्कर्त्तुः (पाशात्) बन्धनात् (मुच्ये) मुक्तो भवामि। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। ३। १८-२०) व्याख्यातः॥३९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वेषां मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यदप्राप्तस्यैश्वर्यस्य पुरुषार्थेन प्राप्तिस्तद्रक्षोन्नती कृत्वा धार्म्मिकान् मनुष्यान् संगत्यैतेन सत्कृत्य च धर्ममनुष्ठाय विज्ञानमुन्नीय दुःखबन्धनान्मुक्ता भवन्तु॥३९॥

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    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे देव! सकलविद्याद्योतक ! सवितः! ऐश्वर्यवन् ! सभाध्यक्ष! यथाऽहं भवत्सहायेन स्वकीयमैश्वर्यं रक्षामि तथा त्वं य एष ते तव सोमः ऐश्वर्यसमूहः अस्ति तं रक्षस्व । यथा मां शत्रवो न हिंसन्ति तथा त्वा=त्वामस्मत् सहाये मा दभन् न हिंस्युः। हे देव ! सुखप्रद ! सोम! सन्मार्गे प्रेरक! देवः विद्याप्रकाशस्थः त्वं सभाध्यक्षो राजा यथैतत्=एतस्माद् देवान् दिव्यान् विदुषः उपागाः समीपं गच्छ तथाऽहमप्युपागाम्। यथाऽहमिदं त्वदनुष्ठितं अनुष्ठाय रायः धनसमुदायस्य पोषेणपुष्ट्या सह वर्तमानो मनुष्यान् मननशीलान् देवान् दिव्यान् विदुषः चैत्य वरुणस्य दुःखेनाच्छादकस्य तिरस्कर्त्तुःपाशात् बन्धनात् निर्मुच्ये नितरां मुक्तो भवामि तथा त्वमपि निर्मुच्यस्व॥ ५। ३९।। [हे.......सवितः=सभाध्यक्ष! यथाऽहं भवत्सहायेन स्वकीयमैश्वर्यं रक्षामि तथा त्वं य एष ते सोमोऽस्ति तं रक्षस्व,........त्वं यथैतत्=एतस्माद् देवानुपागास्तथाहमप्युपागाम्,........वरुणस्य पाशान्निर्मुच्ये तथा त्वमपि निर्मुच्यस्व]

    पदार्थः

    (देव) सकलविद्याद्योतक (सवितः) ऐश्वर्यवन् (एषः) प्रत्यक्ष: (ते) तव (सोमः) ऐश्वर्यसमूहः (तम्) (रक्षस्व)अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (दभन्) हिंस्युः। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च (एतत्) एतस्मात् (त्वम्) सभाध्यक्षो राजा (देव) सुखप्रद (सोम) सन्मार्गे प्रेरक (देवः) विद्याप्रकाशस्थः (देवान्) दिव्यान् विदुषः (उप) सामीप्ये (अगा:) गच्छ (इदम्) त्वदनुष्ठितं (अहम्) (मनुष्यान्) मननशीलान् (सह) (रायः) धनसमुदायस्य (पोषेण) पुष्ट्या (स्वाहा) सत्यां वाचं वदन् सन् (निः) नितराम् (वरुणस्य) दुःखेनाच्छादकस्य तिरस्कर्त्तु: (पाशात्) बन्धनात् (मुच्ये) मुक्तो भवामि ॥ अयं मन्त्रः शत० ३।६।३।१८-२० व्याख्यातः ॥ ३९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ सर्वेषां मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यदप्राप्तस्यैश्वर्यस्य पुरुषार्थेन प्राप्तिस्तद्रक्षोन्नती कृत्वा, धार्मिकान् मनुष्यान् संगत्यैतेन सत्कृत्य च, धर्ममनुष्ठाय, विज्ञानमुन्नीय, दुःखबन्धनान्मुक्ता भवन्तु ॥ ५ । ३९।।

    भावार्थ पदार्थः

    देवान्=धार्मिकान् मनुष्यान्। पाशात्=दुःखबन्धनात्॥

    विशेषः

    अगस्त्यः। सोमसवितारौ=सभाध्यक्षोराजा, प्रेरकः॥ आद्यस्य साम्नी बृहती । मध्यमः। एतत्त्वमित्युत्तरस्या निचृदार्षी पंक्तिः। पञ्चमः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (देव) सब विद्याओं के प्रकाश करने वाले ऐश्वर्य्यवान् विद्वान् सभाध्यक्ष! जैसे मैं आप के सहाय से अपने ऐश्वर्य्य को रखता हूं, वैसे तू जो (एषः) यह (ते) तेरा (सोमः) ऐश्वर्य्यसमूह है (तम्) उसको (रक्षस्व) रख। जैसे मुझ को शत्रुजन दुःख नहीं दे सकते हैं, वैसे (त्वाम्) तुझे भी (मा दभन्) न दे सकें। हे (देव) सुख के देने और (सोम) सज्जनों के मार्ग में चलाने हारे राजा! (त्वम्) तू (एतत्) इस कारण सभाध्यक्ष और (देवः) परिपूर्ण विद्या प्रकाश में स्थित हुआ (देवान्) श्रेष्ठ विद्वानों के (उप) समीप (अगाः) जा और मैं भी जाऊं। जैसे मैं (इदम्) इस आचरण को करके (रायः) अत्यन्त धन की (पोषेण) पुष्टताई के साथ (मनुष्यान्) विचारवान् पुरुष और (देवान्) विद्वानों को प्राप्त होकर (वरुणस्य) दुःख से तिरस्कार करने वाले दुष्टजन की (पाशात्) बन्धन से (मुच्ये) छूटूं, वैसे तू भी (निः) निरन्तर छूट॥३९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को योग्य है कि जिस अप्राप्त ऐश्वर्य्य की पुरुषार्थ से प्राप्ति हो, उस की रक्षा और उन्नति, धार्मिक मनुष्यों का सङ्ग और इससे सज्जनों का सत्कार तथा धर्म का अनुष्ठान कर, विज्ञान को बढ़ा के दुःखबन्धन से छूटें॥३९॥

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    विषय

    लोकसेवा व बन्धनविच्छेद

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में दिये गये प्रभु के आदेश को सुनकर अगस्त्य प्रार्थना करता है कि हे ( सवितः देव ) = सबके उत्पादक व प्रेरक देव! ( एषः सोमः ) = यह सोम—शरीर में आहार से रस-रुधिरादि के क्रम से उत्पन्न होनेवाली यह शक्ति ( ते ) = तेरी प्राप्ति के लिए ही है। ( तं रक्षस्व ) = कृपा करके उस सोम की आप ही रक्षा कीजिए। ये वासनाएँ मुझे तो दबा लेती हैं और इनसे दबने पर मेरे लिए इस सोम का रक्षण सम्भव नहीं होता। कामदेव को आप ही भस्म करेंगे तभी सोमरक्षा सम्भव होगी। ये वासनाएँ ( मा ) = मत ( त्वा ) = आपको ( दभन् ) = हिंसित करनेवाली हों। 

    २. इस प्रकार प्रभु से सोमरक्षण के लिए प्रार्थना करके अगस्त्य सोम को ही सम्बोधित करके कहता है कि हे ( देव सोम ) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले सोम! ( एतत् ) = यह ( त्वम् ) = तू ही ( देवः ) = प्रकाशमय है, ज्योति का कारण है। तू ( देवान् उप अगाः ) = सब देवों को हमारे समीप प्राप्त करा—हमें सब दिव्य गुणों का पुञ्ज बना। 

    ३. ( इदमहम् ) = यह मैं ( रायस्पोषेण सह ) = धन के पोषण के साथ ( मनुष्यान् उपागाः ) = मनुष्यों के समीप प्राप्त होता हूँ और ( स्वाहा ) = उनके कष्टों को दूर करने के लिए अपने स्व = धन का हा = त्याग करता हूँ। यहाँ मन्त्रार्थ से यह बात स्पष्ट है कि लोकसेवा के लिए भी धन की आवश्यकता है। 

    ४. इस प्रकार लोकसेवा करता हुआ मैं ( वरुणस्य ) = वरुण के ( पाशात् ) = पाश से ( निर्मुच्ये ) = निर्मुक्त होता हूँ। वरुण के बन्धनों से छूटता हूँ। बन्धनमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता हूँ। वस्तुतः लोकसेवा ही मोक्ष का साधन है।

    भावार्थ

    भावार्थ — [ क ] प्रभुकृपा से मैं सोम की रक्षा करता हूँ। [ ख ] सोमरक्षा से दैवी सम्पत्ति का वर्धन होता है। [ ग ] मैं धनार्जन करके मनुष्यों के दुःख-दूरीकरण में धन का विनियोग करता हूँ। [ घ ] और बन्धनों से मुक्त होकर ‘ब्रह्मनिर्वाण’ को प्राप्त करता हूँ।

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    विषय

    सेनापति, राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    विजय करने के अनन्तर सेनापति राजा के प्रति कहे - हे ( देव ) देव, राजन् ! हे ( सवितः ) सब के प्रेरक और उत्पादक ! ( एषः सोमः) यह सोम, ऐश्वर्य समूह या राष्ट्र ( ते ) तेरा है। उसकी ( रक्षस्व ) रक्षा कर। इस रक्षा कार्य में (त्वा) तुझको शत्रुगण ( मा दमन् ) न मार सकें । हे (देव) सुखद ऐश्वर्यों के दाता राजन् ! हे (सोम) ऐश्वर्य मय सबके प्रेरक ! राजन् ! तू ( देवः ) सब के अधिकार प्रदान करने हारा राजा, देव होकर ( देवान् ) अन्य अपने आधीन उसी प्रकार के राज शासकों को ( उप अगाः ) प्राप्त हो । राजा का वचन - ( अहम् ) मैं ( इदम् ) इस प्रकार ( रायः पोषेण सह ) धनैश्वर्य की वृद्धि, पुष्टि के सहित ( मनुष्यान् ) राष्ट्र के मनुष्यों के प्रति ( स्वाहा ) अपने को राज्य रक्षा के कार्य में उत्तम रीति से आहुति करता हूं। और ( वरुणस्य पाशात् ) वरुण के पाश से अपने आपको ( निर्मुच्ये) मुक्त करूं । अथवा ( इदम् अहम् रायः पोषेण सह मनुष्यान् स्वाहा वरुणस्य पाशान् निर्मुच्ये ) इस प्रकार मैं राजा धनैश्वर्य की वृद्धि के साथ २ सब मनुष्यों को (स्वाहा ) अपने सत्यवाणी के प्रयोग से वरुण अर्थात् सबको दुख में ढालनेवाले दुष्ट जन के पाश से छुड़ा दूं । अथवा ( वरुणस्य पाशान् निर्मुच्ये ) इस राज्याभिषेक के हर्ष में जो अपराधी वरुण अर्थात् दण्डधर राजा के पाशों में फंसे हुए हैं उन सबको छोड़ता है । राज्याभिषेक के अवसर पर राजा अपने बहुत से अपराधियों को बन्धन से मुक्त करते हैं । इसका यह मूल प्रतीत होता है ॥

    टिप्पणी

     १ देव सवित। २ एतत्त्वं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।सोमसवितारौ देवते । (१) साम्नी बृहती । मध्यमः । (२) आर्षीपंक्तिः। पञ्चमः ॥ 

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    विषय

    सभाध्यक्ष, राजा और प्रजा कैसी हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे (देव) सकल विद्या के प्रकाशक (सवितः) ऐश्वर्यवान् सभाध्यक्ष ! जैसे मैं आपकी सहायता से अपने ऐश्वर्य की रक्षा करता है, वैसे आप जो यह (ते) आपकी (सोमः) ऐश्वर्य राशि है उसकी रक्षा करो। और-- जैसे मुझे शत्रु नहीं दबाते हैं, वैसे (त्वा) तुझे भी हमारी सहायता से (मा दभत्) न दबावें । हे (देव) सुखदाता! (सोम) श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले (देव:) विद्या से प्रकाशित (त्वम्) सभापति राजा, आप जैसे (एतत्) इन (देवान्) दिव्य गुणों वाले विद्वानों के (उपागाः) समीप जाते हैं, वैसे मैं भी उनके संग में रहूँ और-- जैसे मैं (इदम्) आप के द्वारा किये कार्य का अनुष्ठान करके (रायः) धनों की (पोषेण) पुष्टि से युक्त होकर (मनुष्यान्) विचारशील लोगों को तथा (देवान्) दिव्यगुणों वाले विद्वानों को प्राप्त कर (वरुणस्य) दुःख से आच्छादित करने वाले एवं तिरस्कार करने वाले वरुण के (पाशात्) बन्धन से (निर्मुच्ये) मुक्त होता हूँ वैसे तू भी मुक्त हो ।। ५ । ३९।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ सब मनुष्यों को यह योग्य है कि वे अप्राप्त ऐश्वर्य की पुरुषार्थ से प्राप्ति तथा उसकी रक्षा और उन्नति करके, धार्मिक मनुष्यों का संग तथा ऐश्वर्य से उनका सत्कार करके, धर्मानुष्ठान कर और विज्ञान की उन्नति करके दुःखबन्धन से मुक्त हों ।। ५ । ३९।।

    प्रमाणार्थ

    (रक्षस्व) यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद है। (दभन्) यहाँ लिङ्-अर्थ में लङ् लकार और अट् का अभाव है। इस मन्त्र की शत. (३।६।३। १८-२० ) में की गई है ।। ५ ।३९।।

    भाष्यसार

    सभाध्यक्ष राजा और प्रजा कैसी हो—सब विद्याओं को प्रकाशित करने वाला, ऐश्वर्यवान्, सुखदायक, सन्मार्ग में प्रेरणा करने वाला सभाध्यक्ष राजा हो। राजा और प्रजा परस्पर के सहयोग से ऐश्वर्य की रक्षा करें, परस्पर ऐसा व्यवहार रखें कि उन्हें शत्रु दबा न सकें, हिंसन न कर सकें, दोनों धार्मिक विद्वान् मनुष्यों का संग करें। इस प्रकार परस्पर के प्रेम-पूर्ण व्यवहार से अप्राप्त ऐश्वर्य की पुरुषार्थ से प्राप्ति करके उसका पोषण करें अर्थात् उसकी रक्षा और उन्नति करें। विचारशील धार्मिक विद्वान् मनुष्यों के संग से धर्मानुष्ठान करके विज्ञान को बढ़ाकर दुःख बन्धन से मुक्त हों । २. अलङ्कार– मन्त्र में उपमावाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं, इसलिये वाचकलुप्तोपमाअलङ्कार है। उपमा यह है कि राजा के समान प्रजा, और प्रजा के समान राजा परस्पर ऐश्वर्य की प्राप्ति, रक्षा और उन्नति आदि कार्य करें ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी पुरुषार्थाने अप्राप्य अशा ऐश्वर्याची प्राप्ती करून घ्यावी, त्याचे रक्षण करावे व वाढ करावी. धार्मिक माणसांची संगती धरावी. सज्जनांचा सत्कार करावा. धर्मांचे अनुष्ठान करून विज्ञान वाढवावे व दुःखबंधनातून सुटका करून घ्यावी.

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    विषय

    पुनश्‍च, ते दोघे (सभाध्यक्ष आणि विद्वान) कसे आहेत, पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - सर्व विद्यांचा प्रकाश करणारे आणि ऐश्‍वर्यसंपन्न हे सभाध्यक्ष (राष्ट्राध्यक्ष) महोदय, ज्याप्रमाणे मी (एक नागरिक) आपल्या साहाय्याने (आपण मला निर्भय वातावरण दिल्यामुळे) माझ्या वैयक्तिक वैभवाचे संग्रहण रक्षण करतो, त्याप्रमाणे आपण देखील (एषः) ही जो (ते) आपली (सोमः) ऐश्‍वर्याराशी आहे (तं) त्या राष्ट्रीय संपदेची (रक्षस्व) रक्षा करा. ज्याप्रमाणे (आपले संरक्षण मिळाल्यामुळे) शत्रुजन मला दुःख वा त्रास देऊ शकत नाहींत, त्याप्रमाणे (त्वां) आपणांस देखील त्यांच्याकडून (मा दभन्) कोणता त्रास होऊ नये (अशी माझी इच्छा आहे) हे (देव) सुखदाता आणि (सोम) आम्हांस सन्मार्गावर सज्जनांसह चालविणार्‍या हे राजन्, (त्वं) आपण (एतत्) या हेतूंसाठी सभाध्यक्ष आणि (देवः) विद्येत परिपूर्ण अशा (देवाम्) श्रेष्ठ विद्वज्जनं (उप) यांच्याजवळ (अगाः) जा आणि मीही जाईन. तसेच ज्याप्रमाणे मी (इदं) असे श्रेष्ठ आचरण करून (रायः) धनाची (पुष्ट्या) पुष्टी व समृद्धी प्राप्त करतो व (मनुष्यान्) विचारवंत मनुष्यांच्या आणि (देवान्) विद्वानांच्या जवळ जाऊन (वरूणस्य) दु:खदायी आणि अवमानकारी दुष्टांच्या (पाशात्) बंधनापासून (मुच्ये) मुक्त होतो, त्याप्रमाणे आपणही दुष्टाच्या बंधनापासून दूर वा मुक्त राहा ॥39॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. सर्व मनुष्यांचे कर्त्तव्य आहे की त्यांनी अप्राप्त ऐश्‍वर्याच्या प्राप्तीसाठी पुरुषार्थ अवश्य करावा, प्राप्त ऐश्‍वर्याची जपणूक व वृद्धी करीत राहावी. तसेच सर्वांनी धार्मिक जनांची संगती करावी सज्जनांचा आदर-मान करीत, धर्माचे पालन करीत विज्ञानात प्रगती करून सदा दुःख बंधनातून मुक्त व्हावे वा राहावे. ॥39॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, the propagator of all kinds of knowledge and full of splendour, this is thy glory, protect it, let no one harm thee. O king, the giver of happiness, and leader of men on the path of virtue, and hence well established in the diffusion of knowledge, go thou to the sages. Abiding by this advice, just as I deliver the wise persons from the noose of the despicable knaves ; so shouldst thou.

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    Meaning

    Savita, lord of life and growth, Head of the people, this is your Soma, honour, strength and power. Protect it. Don’t be cowed down. Let none injure, deceive or destroy you. Soma, man of energy and inspiration, shining with strength and intelligence, bright as you are, go to the men of virtue and wisdom. I too approach them to be with them. Thus with the wise and the virtuous people, with friends and comrades, with wealth and growth, I get free of the chains of Varuna, the powers of worldly bondage.

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    Translation

    O creator Lord, this bliss is yours. Keep it safe. May no one injure you. (1) O bliss divine, being divine may you go to the enlightened ones. I hereby go to men along-with plenty of riches. (2) Svaha. May I be freed from the noose of the Lord of justice. (3)

    Notes

    Soma, bliss. Devan up agah, may you go to the enlightened ones. Varenasya раќа, from the noose of Varuna (the Lord of justice). Nirmucye, may I be freed.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় তাহারা কেমন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সকল মনুষ্যদিগের উচিত যে, যাহা অপ্রাপ্ত ঐশ্বর্য্য পুরুষার্থ দ্বারা প্রাপ্তি হয় তাহার রক্ষা ও উন্নতি, ধার্মিক মনুষ্যদিগের সঙ্গ এবং ইহা দ্বারা সজ্জনদিগের সৎকার তথা ধর্মের অনুষ্ঠান করিয়া বিজ্ঞান বৃদ্ধি করিয়া দুঃখবন্ধন হইতে মুক্ত হইবে ॥ ৩ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দেব॑ সবিতরে॒ষ তে॒ সোম॒স্তꣳ র॑ক্ষস্ব॒ মা ত্বা॑ দভন্ । এ॒তত্ত্বং দে॑ব সোম দে॒বো দে॒বাঁ২ऽউপাऽগা॑ऽই॒দম॒হং ম॑নু॒ষ্যা᳖ন্ৎস॒হ রা॒য়স্পোষে॑ণ॒ স্বাহা॒ নির্বরু॑ণস্য॒ পাশা॑ন্মুচ্যে ॥ ৩ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেব সবিতরিত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । সোমসবিতারৌ দেবতে । আদ্যস্য সাম্নী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ । এতত্ত্বমিত্যুত্তরস্যার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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