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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 19
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृत् आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
    136

    दि॒वो वा॑ विष्णऽउ॒त वा॑ पृथि॒व्या म॒हो वा॑ विष्णऽउ॒रोर॒न्तरि॑क्षात्। उ॒भा हि हस्ता॒ वसु॑ना पृ॒णस्वा प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्याद्विष्ण॑वे त्वा॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः। वा॒। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। उ॒त। वा॒। पृ॒थि॒व्याः। म॒हः। वा॒। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। उ॒भा। हि। हस्ता॑। वसु॑ना। पृ॒णस्व॑। आ। प्र। य॒च्छ॒। दक्षि॑णात्। आ। उ॒त। स॒व्यात्। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो वा विष्णऽउत वा पृथिव्या महो वा विष्णऽउरोरन्तरिक्षात् । उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा प्रयच्छ दक्षिणादोत सव्यात् विष्णवे त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। वा। विष्णोऽइति विष्णो। उत। वा। पृथिव्याः। महः। वा। विष्णोऽइति विष्णो। उरोः। अन्तरिक्षात्। उभा। हि। हस्ता। वसुना। पृणस्व। आ। प्र। यच्छ। दक्षिणात्। आ। उत। सव्यात्। विष्णवे। त्वा॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विष्णो! त्वं कृपयाऽस्मान् दिवः प्रसिद्धाग्नेर्विद्युतो वा वसुनाऽऽपृणस्व सुखानि प्रयच्छ, उतापि पृथिव्याः सकाशादुत्पन्नेभ्यः पदार्थेभ्यो महत्तत्त्वाच्चाव्यक्तादुतोरोरन्तरिक्षाद्वा वसुना द्यां पृणस्व। हे विष्णो! त्वं दक्षिणादुत च सव्यात् सुखानि प्रयच्छ, तं त्वा त्वां विष्णवे यज्ञाय वयमर्चयेम॥१९॥

    पदार्थः

    (दिवः) प्रसिद्धात् विद्युतो वा (वा) पक्षान्तरे (विष्णो) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् तत्सम्बुद्धौ (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (पृथिव्याः) भूमेः सकाशात् (महः) महत्तत्त्वात् (वा) पक्षान्तरे (विष्णो) सर्वान्तःप्रविष्ट! (उरोः) बहोरनन्तान् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (उभा) द्वौ (हि) खलु (हस्ता) बलवीर्य्यौ बाहू वा। अत्रोभयत्र सुपाम्॰। [अष्टा॰७.१.३९] इत्याकारादेशः। (वसुना) द्रव्येण सह (पृणस्व) प्रीणीहि प्रीणय वा (आ) समन्तात् (प्र) प्रकृष्टार्थे (यच्छ) देहि (दक्षिणात्) दक्षिणपार्श्वात् (आ) अभितः (उत)(सव्यात्) वामपार्श्वात् (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। २२) व्याख्यातः॥१९॥

    भावार्थः

    येन व्यापकेनेश्वरेण महत्तत्त्वसूर्य्यभूम्यन्तरिक्षवाय्वग्निजलादीन् पदार्थान् तत्रस्थानन्यांश्चौषध्यादीन् मनुष्यादींश्च रचित्वा धृत्वा सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि धीयन्ते तस्यैवोपासना सर्वैः कार्येति॥१९॥

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    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विष्णो! वेवेष्टि=व्याप्नोति चराचरं जगत् तत्सम्बुद्धौ त्वं कृपयाऽस्मान् दिवः=प्रसिद्धाग्नेर्विद्युतो वा वसुना द्रव्येण सह आपृणस्व समन्तात् प्रीणीहि प्रीणाय वा सुखानि प्रायच्छ समन्तात् प्रकृष्टं देहि। उत=अपि पृथिव्याः सकाशात् (पृथिव्याः=भूमेः सकाशात्) उत्पन्नेभ्यः पदार्थेभ्यो [महः] महत्तत्त्वाच्चाव्यक्तादुत अपि उरोः बहोरनन्तात् अन्तरिक्षात् आकाशात् वा, वसुना द्रव्येण सह द्यां पृणस्व प्रीणीहि प्रीणय वा। हे विष्णो सर्वान्तः प्रविष्ट ! त्वं दक्षिणात् दक्षिणपार्श्वात्उत=च सव्यात् वामपार्श्ववत् सुखानि[आ] प्रयच्छ समन्तात् प्रकृष्टं देहि। तं त्वा=त्वां विष्णवे यज्ञाय वयमर्चयेम ।। ५ । १९।। [हे विष्णो! त्वं कृपयाऽस्मान् दिवः=प्रसिद्धाग्नेर्विद्युतो वा वसुनापृणस्व, उत=अपि पृथिव्याः सकाशादुत्पन्नेभ्यः पदार्थेभ्यो [महः] महत्तत्वाच्चाव्यक्तादुतोरोरन्तरिक्षाद् वा वसुना द्यां पृणस्व, हे विष्णो! त्वं........सुखानि [आ] प्रयच्छ, तं त्वा=त्वां विष्णवे=यज्ञाय वयमर्चयेम]

    पदार्थः

    (दिव:) प्रसिद्धात् विद्युतो वा (वा) पक्षान्तरे (विष्णो) वेवेष्टि=व्याप्नोति चराचरं जगत् तत्सम्बुद्धौ (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (पृथिव्याः) भूमेः सकाशात् (महः) महत्तत्वात् (वा) पक्षान्तरे (विष्णो) सर्वान्तःप्रविष्ट! (उरो:) बहोरनन्तात् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (उभा) द्वौ (हि) खलु (हस्ता) बलवीर्य्योबाहू वा । अत्रोभयत्र सुपामित्याकारादेशः (वसुना) द्रव्येण सह (पृणस्व) प्रीणीहि प्रीणय वा (आ) समन्तात् (प्र) प्रकृष्टार्थ (यच्छ) देहि (दक्षिणात्) दक्षिणपार्श्वात् (आ) अभितः(उत)(सव्यात्) वामपार्श्वात् (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मंत्रः शत० ३। ४। ३। २२व्याख्यातः ॥ १९॥

    भावार्थः

    येन व्यापकेनेश्वरेण महत्तत्त्वसूर्यभूम्यन्तरिक्षवाय्वग्निजलादीन् पदार्थान् तत्रस्थानन्याँश्चौषध्यादीन् मनुष्यादींश्च रचित्वा धृत्वा सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि धीयन्ते, तस्यैवोपासना सर्वैः कार्येति ।। ५ । १९।।

    विशेषः

    औतथ्यो दीर्घतमाः । विष्णुः=ईश्वरः॥ निचृदार्षी जगती । निषादः॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (विष्णो) सर्वव्यापी परमेश्वर! आप कृपा करके हम लोगों को (दिवः) प्रसिद्ध वा बिजुली अग्नि से (वसुना) द्रव्य के साथ (आपृणस्व) सुखों से पूर्ण कीजिये और (पृथिव्याः) भूमि से उत्पन्न हुए पदार्थ (उत) भी (वा) अथवा (महः) महत्तत्त्व अव्यक्त और (उत) भी (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से द्रव्य के साथ सुखों को (हि) निश्चय करके पूर्ण कीजिये (विष्णो) सब में प्रविष्ट ईश्वर! आप (दक्षिणात्) दक्षिण (उत) और (सव्यात्) वाम पार्श्व से सुखों को दीजिये (त्वा) उस आप को (विष्णवे) योग विज्ञान यज्ञ के लिये पूजन करते हैं॥१९॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को योग्य है कि जिस व्यापक परमेश्वर ने महत्तत्त्व, सूर्य, भूमि, अन्तरिक्ष, वायु, जल आदि पदार्थ वा उन में रहने वाले ओषधी आदि वा मनुष्यादिकों को रच धारण कर सब प्राणियों के लिये सुखों को धारण करता है, उसी की उपासना करें॥१९॥

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    विषय

    दोनों हाथों से

    पदार्थ

    १. हे ( विष्णो ) = सर्वव्यापक प्रभो! ( दिवः वा ) = चाहे द्युलोक से ( उत वा पृथिव्याः ) = या पृथिवी से ( महः उरो अन्तरिक्षात् वा ) = इस महनीय विशाल अन्तरिक्ष से ( उभा हि हस्ता ) = निश्चय से दोनों हाथों को ( वसुना ) = धन से ( पृणस्व ) = भर दीजिए। ( विष्णो ) = सर्वव्यापक प्रभो! ( दक्षिणात् ) = दाहिने हाथ से ( उत ) = और ( सव्यात् ) = बायें हाथ से ( आप्रयच्छ ) = हमें सब ओर से धन दीजिए। ( विष्णवे त्वा ) = तुझ विष्णु को पाने के लिए ही मैं प्रयत्नशील होता हूँ। 

    २. उल्लिखित मन्त्रार्थ में प्रभु से द्युलोक, पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोक के वसु की याचना है। द्युलोक का वसु ‘ज्ञान’ है, पृथिवीलोक का वसु ‘स्वास्थ्य’ है और अन्तरिक्षलोक का वसु ‘नैर्मल्य’ है। एवं, भक्त, ज्ञान, स्वास्थ्य व हृदय की निर्मलता व सत्य की प्रभु से याचना करते हैं। वे प्रभु इन वसुओं के साथ हमें सर्वत्र निवास के लिए आवश्यक धन भी प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार आन्तर व बाह्य धनों को प्राप्त करके हम अध्यात्म उन्नति के लिए पूर्ण अवसर पाते हैं। इस अवसर का उचित उपयोग उठाकर हम उस विष्णु को पाने में समर्थ होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — अनुकूल वातावरण पाकर हम प्रभु को प्राप्त करने के मार्ग पर चलें।

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    विषय

    व्यापक ईश्वर की महान् शक्ति ।

    भावार्थ

    हे (विष्णो ) यज्ञरूप प्रजापते ! चराचर में व्यापक परमेश्वर ! दिवः ) आकाश, विद्युत् अग्नि से (उत वा महः ) बड़ी भारी ( पृथिव्याः ) और पृथिवी से, हे ! विष्णो ) परमेश्वर ! ( उरो :) विशाल ( अन्तरिक्षात् ) अन्तरिक्ष से तू हमारे ( उभा हस्ता हि ) दोनों हाथों को ( वसुना ) ऐश्वर्यं से ( आ पृणस्व ) पूर दे । ( दक्षिणात् ) दायें ( उत ) और ( सव्याद ) बायें से भी तू हमें नाना प्रकार का धन ( आ प्रयच्छ ) प्रदान कर | हे परमेश्वर ! (त्या) तेरी हम ( विष्णुवे ) यज्ञ या उपासना के निमित्त प्रार्थना करते हैं । अथवा ( विष्णवे ) आकाश, पृथिवी, अन्तरिक्ष से समस्त ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले विष्णु, व्यापक परमेश्वर के लिये (त्वा ) तुम पुरुष को मैं उपदेश करता हूं ॥ 
    राजा के पक्ष में वह तीनों लोकों से ऐश्वर्यमय विज्ञान और धन का संग्रह करके प्रजा को प्रदान करे। हे पुरुष ! मैं तुझे ऐसे राज्य के कार्य में नियुक्त करूं ॥

    टिप्पणी

    १९-२१ दीर्घतमा ऋषिः। द० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।विष्णुर्देवता । निचृदार्षी जगतीछन्दः । निषादः स्वरः ॥ 

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    विषय

    मुझे ऐश्वर्य से भर दे

    शब्दार्थ

    हे ऐश्वर्यशालिन् ! मैंने तो अपने-आपको (त्वा विष्णवे) तुझ विष्णु के प्रति समर्पित कर दिया है। तुझे छोड़कर कहाँ जाऊँ और किससे माँगूँ ! प्रभो ! (उभा हि हस्ता) दोनों ही हाथों को (वसु) ऐश्वर्य से (आ पृणस्व) पूर्ण कर दे, भर दे (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! (वा दिव:) तू चाहे द्युलोक से (उत वा महः पृथिव्याः) चाहे महती पृथिवी से (वा उरो: अन्तरिक्षात्) चाहे विशाल अन्तरिक्ष से, कहीं से भी ला (विष्णो) अन्तर्यामिन् ! (दक्षिणात् उत् सव्यात्) दाईं ओर से और बाई ओर से, दोनों ओर से (आप्रयच्छ) मुझे पूर्णरूपेण भर दे, तृप्त कर दे ।

    भावार्थ

    मन्त्र में किसी उपासक की भावना का सुन्दर चित्रण है - १. प्रभो ! मैंने अपने-आपको तुझे समर्पित कर दिया है, अब सब स्थानों से नाता तोड़कर तेरे साथ नाता जोड़ लिया है । २. प्रभो ! तुझे छोड़कर, तुझसे कृपानिधान और दानदाता का त्याग कर और किसके आगे हाथ फैलाऊँ, किससे माँगूँ ! मैं तो तुझसे ही याचना करता हूँ। प्रभो ! मेरे दोनों हाथों को ऐश्वर्य से भर दो । मेरे दोनों हाथों में लड्डू हों। मुझे सांसारिक सुखभोग भी प्राप्त हों और मरने पर मोक्ष-सुख भी मिले । ३. प्रभो ! तू आकाश से ला या पाताल से, पृथिवी से ला या अन्तरिक्ष से, कहीं से ला और मेरे दोनों हाथों को ऐश्वर्य से भर दे ।

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    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (विष्णो) चराचर जगत् में व्यापक जगदीश्वर! आप कृपा करके हमें (दिवः) प्रसिद्ध अग्नि (वा) अथवा विद्युत् (वसुना) द्रव्य से (आपृणस्व) सब ओर से तृप्त करो एवं सब सुखों को (प्रयच्छ) प्रदान करो। (उत) और (पृथिव्याः) भूमि से उत्पन्न पदार्थों से [महः] महत्तत्त्व अव्यक्त प्रकृति से (उत) और (वा) अथवा (उरः) अनन्त (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से (वसुना) द्रव्यों के द्वारा (द्यां पृणस्व) द्यौ को तृप्ति एवं कान्तियुक्त करो। हे (विष्णो) सबके अन्दर प्रविष्ट जगदीश्वर! आप (दक्षिणात्) दक्षिण पार्श्व से (उत) और (सव्यात्) वाम पार्श्व से सब सुखों को ([आ] प्रयच्छ) सब ओर से प्रदान करो । (त्वा) आप की हम लोग (विष्णवे) यज्ञ के लिये अर्चना करें, पूजा करें ।। ५ । १९।।

    भावार्थ

    जिस व्यापक ईश्वर ने महत्तत्त्व, सूर्य, भूमि, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि, जल आदि पदार्थों को और उनमें स्थित औषधि तथा मनुष्य आदि को रच कर और धारण करके सब प्राणियों के लिए सुखों को धारण किया है सब मनुष्य उसकी ही उपासना करें ।। ५ । १९।।

    प्रमाणार्थ

    (उभा, हस्ता) यहाँ दोनों शब्दों में 'सुपां सुलुक्०' [ अ० ७।१।३९] सूत्र से आकार आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।३।२२) में की गई है ॥ ५ । १९॥

    भाष्यसार

    विष्णु (ईश्वर) कैसा है-- विष्णु अर्थात् ईश्वर चराचर जगत् में व्यापक है। जो प्रसिद्ध अग्नि, विद्युत्, पृथिवी, महत्तत्त्व, अव्यक्त महत्तत्व से उत्पन्न पदार्थ, अनन्त आकाश तथा इनमें विद्यमान औषधि तथा मनुष्य आदि प्राणियों को रच कर इन्हें धारण कर रहा है। सबके अन्दर प्रविष्ट ईश्वर सब ओर से सब प्राणियों को सुख प्रदान करता है। यज्ञमय विष्णु (ईश्वर) की प्राप्ति के लिये उसकी अर्चना करें, उपासना करें ।। ५ । १९।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्वव्यापक परमेश्वराने महत्त्वत्व सूर्य, भूमी, आकाश, वायू, अग्नी, जल इत्यादी पदार्थ व औषधी तसेच माणसांनाही उत्पन्न केलेले असून, सर्व प्राण्यांना सुख प्राप्त करून दिलेले आहे. त्याचीच सर्व माणसांनी उपासना करावी.

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    विषय

    पुनश्‍च, तो परमेश्‍वर कसा आहे, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादति आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (विष्णो) सर्वव्यापी परमेश्‍वरा, कृपा करून आम्हांस (तुझ्या उपासकांना) (दिनः) भौतिक अग्नीद्वारे तसेच विद्युत रूप अग्नीद्वारे (वसुना) प्राप्त होणार्‍या द्रव्य आदी (आपृणख) सुखकारक पदार्थांनी (आपृणस्व) परिपूर्ण कर. तसेच (पृथिकाः) भूमीपासून उत्पन्न होणार्‍या पदार्थांपासून (उत देखील जे जे सुख मिळते (वा) अथवा (महः) अव्यक्तमहत्त्वापासून (उत) अन्यही जे जे (उरोः) अत्यधिक द्रव्य मिळतात (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्षापासून मिळणार्‍या द्रव्यांनी आम्हांस (हि) निश्‍चयेन परिपूर्ण कर. (विष्णो) हे सर्वात व्यापक असणार्‍या ईश्‍वरा, (दक्षिणात्) दक्षिणा (उजव्या) बाजूने (उत) आणि (सव्यात्) डाव्या बाजूने म्हणजे सर्व दिशेकडून आम्हांस सुख आणि केवळ मुख मिळू दे. (त्या) आम्ही असे प्रार्थित सुख मिळण्याकरिता व (विष्णने) योग-विज्ञानरूप यज्ञासाठी तुझी पुजा आराधना करीत आहोत. ॥19॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्या सर्वव्यापी परमेश्‍वराने महत्त्व सूर्य, भूमी, अंतरिक्ष, वायू, अग्नी, जल आदी पदार्थांची रचना केली आहे आणि याव्यतिरिक्त त्या सर्व पदार्थांत औषधी आदी गुणांची स्थापना केली आहे? तसेच ज्याने मनुष्य आदींची रचना करून सर्व प्राण्यांकरिता सुखांचा विस्तार प्रकाश केला आहे, सर्व मनुष्यांनी त्याचीच उपासना करणे उचित आहे. ॥19॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Omnipresent God, fill both of our hands with riches from all sources like electricity, earth, and vast wide airs mid-region. Grant us pleasures from the right and the left. We worship Thee for the knowledge of yoga.

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    Meaning

    Vishnu, Lord omnipresent of the universe, we worship you with yajna for the gifts of yajna. We pray: from the regions of heaven bless us with energy and light. From the vast sky and from the earth, and from the great womb of nature — the ‘mahat’ form of the creative mode — bless us and fill our life to the full with materials of joy and peace with both hands, from both sides, right and left.

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    Translation

    O sun-divine, whether from heaven, or from the earth, or from the vast and widespread interspace, fill both of your hands, O sun-divine, with riches and grant to us with your right hand and with the left as well. (1) You to the sun-divine. (2)

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনঃ স কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সে জগদীশ্বর কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (বিষ্ণো) সর্বব্যাপী পরমেশ্বর! আপনি কৃপা করিয়া আমাদিগকে (দিবঃ) প্রসিদ্ধ বা বিদ্যুৎরূপ অগ্নি দ্বারা (বসুনা) দ্রব্য সহ (আপৃণস্ব) সুখপূর্বক পূর্ণ করুন এবং (পৃথিব্যাঃ) ভূমি হইতে উৎপন্ন পদার্থ (উত)(বা) অথবা (মহঃ) মহত্তত্ব অব্যক্ত আর (উত)(উরোঃ) বহু (অন্তরিক্ষাৎ) অন্তরিক্ষ হইতে দ্রব্য সহ সুখকে (হি) নিশ্চয় করিয়া পূর্ণ করুন (বিষ্ণো) সকলের মধ্যে প্রবিষ্ট ঈশ্বর! আপনি (দক্ষিণাৎ) দক্ষিণ (উত) এবং (সব্যাৎ) বাম পার্শ্ব হইতে সুখ প্রদান করুন (ত্বা) সেই আপনাকে (বিষ্ণবে) যোগ বিজ্ঞান যজ্ঞের জন্য পূজন করি ॥ ১ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–সকল মনুষ্যের উচিত যে, যে ব্যাপক পরমেশ্বর মহত্তত্ব, সূর্য্য, ভূমি, অন্তরিক্ষ, বায়ু, অগ্নি, জল ইত্যাদি পদার্থ বা তন্মধ্যে নিবাসকারী ওষধি ইত্যাদি বা মনুষ্যাদি কে রচিয়া, ধারণ করিয়া সকল প্রাণিদিগের জন্য সুখকে ধারণ করেন তাঁহারই উপাসনা করিবে ॥ ১ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দি॒বো বা॑ বিষ্ণऽউ॒ত বা॑ পৃথি॒ব্যা ম॒হো বা॑ বিষ্ণऽউ॒রোর॒ন্তরি॑ক্ষাৎ ।
    উ॒ভা হি হস্তা॒ বসু॑না পৃ॒ণস্বাऽऽ প্রয়॑চ্ছ॒ দক্ষি॑ণা॒দোত স॒ব্যাদ্বিষ্ণ॑বে ত্বা ॥ ১ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দিবো বেত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । নিচৃদার্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

     

    দিবো বা বিষ্ণঽউত বা পৃথিব্যা মহো বা বিষ্ণঽউরোরন্তরক্ষাৎ।

    উভা হি হস্তা বসুনা পৃণস্বা প্রয়চ্ছ দক্ষিণাদোত সব্যাদ্বিষ্ণবে ত্বা।।১২।।

    (যজুর্বেদ ৫।১৯)

    পদার্থঃ হে (বিষ্ণ) সর্বব্যাপক পরমেশ্বর! (দিবঃ) আকাশ, বিদ্যুৎ অগ্নি দ্বারা (উত বা মহো) এবং মহৎ (পৃথিব্যা) পৃথিবী দ্বারা, হে (বিষ্ণ) পরমেশ্বর! (উরোঃ) বিশাল (অন্তঃরিক্ষাৎ) অন্তরিক্ষ দ্বারা তুমি আমাদের (উভা হি হস্তা)  উভয় হস্তকে (বসুনা) ঐশ্বর্য দ্বারা (আ পৃণস্ব) পরিপূর্ণ করে দাও। (দক্ষিণাৎ) ডানে (উত) এবং (সব্যাৎ) বামে নানা প্রকারে ধন  (আ প্রয়চ্ছ) প্রদান করো। (ত্বা) তোমাকে (বিষ্ণবে) যজ্ঞ বা উপসনার নিমিত্তে প্রার্থনা করছি। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমেশ্বরের সকল সৃষ্টি জীবের কল্যাণার্থেই। পিতার নিকট সন্তান যেমন ধনের কামনা করে, ওইরূপ পরমপিতার নিকট আমরা ঐশ্বর্যের প্রার্থনা করছি। হে দয়াময়! তুমি পৃথিবী, আকাশ, অগ্নি দ্বারা আমাদের দুটি হস্ত ঐশ্বর্যে পরিপূর্ণ করে  দাও, আমরা তোমাকেই উপাসনার নিমিত্তে প্রার্থনা করছি।।১২।।

     

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