यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 21
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्ची पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
276
विष्णो॑ र॒राट॑मसि॒ विष्णोः॒ श्नप्त्रे॑ स्थो॒ विष्णोः॒ स्यूर॑सि॒ विष्णोर्ध्रु॒वोऽसि॒। वै॒ष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॥२१॥
स्वर सहित पद पाठविष्णोः॑। र॒राट॑म्। अ॒सि॒। विष्णेः॑। श्नप्त्रे॒ऽइति॒ श्नप्त्रे॑। स्थः॒। विष्णोः॑। स्यूः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। वै॒ष्ण॒वम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥२१॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोसि । वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
विष्णोः। रराटम्। असि। विष्णेः। श्नप्त्रेऽइति श्नप्त्रे। स्थः। विष्णोः। स्यूः। असि। विष्णोः। ध्रुवः। असि। वैष्णवम्। असि। विष्णवे। त्वा॥२१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स कथंभूत इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यदिदं विविधं जगद(स्य)स्ति तद्विष्णो रराटम(स्य)स्ति विष्णोः सकाशादुत्पद्य वर्त्तत इति यावत्। विष्णोः स्यूर(स्य)स्ति सर्वं जगद्वैष्णवम(स्य)स्ति यस्य विष्णोर्जगति द्वे श्नप्त्रे इव ज[चेतनसमूहौ स्थः वर्त्तते, तं सर्वजगदुत्पादकं जगदीश्वरं त्वां विष्णवे यज्ञानुष्ठानाय वयमाश्रयामः॥२१॥
पदार्थः
(विष्णोः) व्यापकस्य सकाशात् (रराटम्) परिभाषितं जगत् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (विष्णोः) सर्वत्राभिप्रविष्टस्य (श्नप्त्रे) शुद्धे इव। अत्र ष्णा शौच इत्यस्य वर्णव्यत्ययेन सस्य शः। (स्थः) तिष्ठतः (विष्णोः) सर्वसुखाभिव्याप्तात् (स्यूः) यः सीव्यति सः (असि) अस्ति (विष्णोः) सर्वजगत्पालकात् (ध्रुवः) निश्चलः (असि) अस्ति (वैष्णवम्) यद् विष्णोर्यज्ञस्येदं साधनं साधकं वा तत् (असि) अस्ति (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। २४-२५) व्याख्यातः॥२१॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वस्यास्य जगतः परमेश्वर एव रचको धारको व्यापक इष्टदेवोऽस्तीति विज्ञाय सर्वकामसिद्धिः सम्पादनीया॥२१॥
विषयः
पुनः स कथंभूत इत्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
यदिदं विविधं जगदसि=अस्ति तद्विष्णोः व्यापकस्य सकाशात् रराटम् परिभाषितं जगत् असि=अस्ति, विष्णो: सकाशादुत्पद्य वर्तत इति यावत्। विष्णोः सर्वसुखाभिव्याप्तात् स्यूः यः सीव्यति सः असि=अस्ति, [विष्णोः] सर्वजगत्पालकात् [ध्रुवः] निश्चल: [असि] अस्ति, सर्वं जगद्वैष्णवं यद् विष्णोर्यज्ञस्येदं साधनं साधकं वा तत् असि=अस्ति । यस्य विष्णोः सर्वत्राभिप्रविष्टस्य जगति द्वेश्नप्त्रे इव=शुद्धे इव जडचेतनसमूहौ स्थः=वर्तेते तिष्ठतः, तं सर्वजगदुत्पादकं जगदीश्वरं [त्वा] त्वां विष्णवे=यज्ञानुष्ठानाय वयमाश्रयामः ॥५ । २१ ।। [यदिदं त्रिविधं जगदसि=अस्ति, तद् विष्णो रराटमसि=अस्ति, स्यूरसि=अस्ति, [ध्रुवः] असि=अस्ति, तं सर्वजगदुत्पादकं जगदीश्वरं [त्वा] त्वां विष्णवे=यज्ञानुष्ठानाय वयमाश्रयामः]
पदार्थः
(विष्णो:) व्यापकस्य सकाशात् (रराटम्) परिभाषितं जगत् (असि) अस्ति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (विष्णोः)सर्वत्राभिप्रविष्टस्य (श्नप्त्रे) शुद्धे इव । अत्र ष्णा शौच इत्यस्य वर्णव्यत्ययेन सस्य शः (स्थः) तिष्ठतः (विष्णोः) सर्वसुखाभिव्याप्तात् (स्यूः) यः सीव्यति सः (असि) अस्ति (विष्णोः) सर्वजगत्पालकात् (ध्रुवः) निश्चल: (असि) अस्ति (वैष्णवम्) यद् विष्णोर्यज्ञस्येदं साधनं साधकं वा तत् (असि) अस्ति (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मंत्र: शत० ३।५। ३। २४-२५।। व्याख्यातः॥ २१॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वस्यास्यजगतः परमेश्वर एव रचको, धारको, व्यापक इष्टदेवोइस्तीति विज्ञाय सर्वकामसिद्धिः सम्पादनीया॥ ५ । २१ ।।
विशेषः
औतथ्यो दीर्घतमाः। विष्णु:=ईश्वरः [जगदीश्वरः] ॥ भुरिगार्ची पंक्तिः। पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जो यह अनेक प्रकार का जगत् है, वह (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के सकाश से (रराटम्) उत्पन्न होकर प्रकाशित है, (विष्णोः) सर्व सुख प्राप्त करने वाले ईश्वर से (स्यूः) विस्तृत (असि) है। [(विष्णोः) सब जगत् के पालक ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण अपनी-अपनी सत्ता में (ध्रुवः) निश्चल है,] सब जगत् (वैष्णवम्) यज्ञ का साधन (असि) है और (विष्णोः) सब में प्रवेश करने वाले जिस ईश्वर के (श्नप्त्रे) जड़-चेतन के समान दो प्रकार का शुद्ध जगत् है, उस सब जगत् के उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर! हम लोग (त्वा) आप को (विष्णवे) यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये आश्रय करते हैं॥२१॥
भावार्थ
मनुष्यों की उचित है कि इस सब जगत् का परमेश्वर ही रचने और धारण करने वाला व्यापक इष्टदेव है, ऐसा जानकर सब कामनाओं की सिद्धि करें॥२१॥
विषय
वैष्णव
पदार्थ
गत मन्त्र के अनुसार विष्णु का स्मरण करनेवाले पवित्र बनते हैं। विष्णु यज्ञरूप हैं, अतः इनका जीवन यज्ञमय होता है। मन्त्र में कहते हैं कि तू ( विष्णोः ) = यज्ञ का ( रराटम् असि ) = ललाट है, मस्तक है। यज्ञ करनेवालों का तू मूर्धन्य बनता है। ‘रठ परिभाषणे’ धातु से इस शब्द को बनाएँ तो अर्थ होगा कि तू सदा यज्ञ का ही जप करनेवाला, यज्ञ की ही रट लगानेवाला है। ( विष्णोः ) = यज्ञ के ( श्नप्त्रे ) = [ सृक्किणी ] तुम ओष्ठप्रान्त हो। तुम्हारे जीवन का आदि-अन्त यह यज्ञ ही है। तू ( विष्णोः ) = यज्ञ को ( स्यूः असि ) = अपने जीवन के साथ सी लेनेवाला है। यज्ञ तेरे जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ गया है। ( विष्णोः ) = यज्ञ का तू ( ध्रुवः असि ) = ध्रुव है। निश्चित स्थान है। तू यज्ञ से अलग नहीं होता, यज्ञ तुझसे अलग नहीं होता। तू तो इस यज्ञ का भक्त बनकर ( वैष्णवम् असि ) = वैष्णव ही हो गया है। ( विष्णवे त्वा ) = तूने अपने को विष्णु के लिए अर्पित कर दिया है।
भावार्थ
भावार्थ — हम अपने जीवनों को यज्ञमय बनाकर ‘वैष्णव’ बन जाएँ।
टिप्पणी
सूचना — यज्ञ विष्णु है — विष्लृ व्याप्तौ — व्यापक कर्म है।
विषय
ईश्वर का वर्णन और राजा का उच्च पद ।
भावार्थ
हे जगत् ! तू ( विष्णोः रराटम् असि ) विष्णु, व्यापक परमेश्वर से उत्पन्न होता और उसके द्वारा वेदरूप से प्रकाशित किया जाता है । हे जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थो ! तुम दोनो ( विष्णोः ) विष्णु, व्यापक परमेश्वर के ( क्षप्ते स्थः ) दो प्रकार की शुद्ध शक्तियें हो । हे वायो ! तू सब प्राणियों के भीतर । विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के शक्ति से ही (स्यू: असि) सीनेवाला परम सूत्र है । हे आत्मन् ! तू (विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के सामर्थ्य से ही ( ध्रुवः असि ) सदा ध्रुव, अविनाशी है । हे समस्त जगत् ! ( वैष्णवम् असि )तू उसी परमेश्वर का बनाया हुआ है। हे पुरुष ! (त्वा विष्णवे ) तुझको मैं व्यापक परमेश्वर की अर्चना के लिये नियुक्त करता हूं ।
राजपक्ष में - (विष्णोः ) व्यापक राज्यव्यवस्था का हे राजन् ! तू ( रराटम् असि ) ललाट मस्तक भाग है । हे दोनों विद्वानों ! तुम उस राज्य के मुख्य भाग हो । हे पुरुष ! तू राज्य का सीवन करने वाला हो । हे राजन् ! तू ( विष्णोः ध्रुवः असि ) राज्य का ध्रुव, संस्थापक स्तम्भ है । हे राज्य के प्रजाजन ! या राष्ट्र ! तू ( वैष्णवम् असि ) विष्णु अर्थात् यज्ञ सम्बन्धी है या उस ( विष्णवे त्वा ) तुझे उस व्यापक शासन के लिये ही व्यवस्थित करता हूँ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।विष्णुर्देवता । भुरिगार्षी पंक्ति: । पञ्चमः ॥
विषय
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
जो यह नाना प्रकार का जगत् (असि) है वह (विष्णो:) व्यापक विष्णु की (रराटम्) परिभाषा (असि) है। अर्थात् उसको बतलाने वाला है, एवं विष्णु से उत्पन्न होकर विद्यमान है। (विष्णोः) सब सुखों से भरपूर विष्णु से (स्यू:) सीया हुग्रा (असि) है, [विष्णोः] सब जगत् के पालक विष्णु से [ध्रुवः] स्थिर [असि] है। सारा जगत् (वैष्णवम्) विष्णु अर्थात् यज्ञ का साधन वा साधक (असि) है। जिस (विष्णोः) सर्वत्र प्रविष्ट विष्णु के जगत् में दो (श्ननप्त्रे) शुद्ध जड़ और चेतन समूह (स्थः) हैं। उस सब जगत् के उत्पादक [त्वा] आप जगदीश्वर का हम लोग (विष्णवे) यज्ञानुष्ठान के लिये आश्रय ग्रहण करते हैं ।।५।२१ ।।
भावार्थ
इस सारे जगत् का परमेश्वर ही रचने वाला, धारण करने वाला, व्यापक इष्टदेव है। सब मनुष्य ऐसा समझकर सब कामनाओं की सिद्धि करें ॥ ५ । २१ ।।
प्रमाणार्थ
(असि) अस्ति। इस मन्त्र में 'असि' पद पर सर्वत्र व्यत्यय है। (श्ननप्त्रे) 'श्ननप्त्र' शब्द शुद्धि अर्थ वाली 'ष्णा' धातु के वर्णव्यत्यय से सकार को शकार करके सिद्ध होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३।५।३।२४-२५ ) में की गई है ।। ५ । २१ ।।
भाष्यसार
विष्णु (ईश्वर) कैसा है--यह तीन प्रकार का जगत् विष्णु अर्थात् व्यापक ईश्वर की परिभाषा है अर्थात् उसका बोधक है, विष्णु से उत्पन्न होकर विद्यमान है। सब सुखों से भरपूर विष्णु ने इसको सीया है, बनाया है, सब जगत् के पालक विष्णु ने इसे स्थिर किया है, धारण किया है, इस लिये यह जगत् वैष्णव कहलाता है। सर्वत्र प्रविष्ट विष्णु के जगत् के जड़ और चेतन दो शुद्ध रूप हैं। सब जगत् का उत्पादक, जगत् का स्वामी विष्णु यज्ञानुष्ठान के लिये सब कामनाओं की सिद्धि के लिये, आश्रय करने योग्य है। सब का इष्टदेव है ।। ५ । २१।।
अन्यत्र व्याख्यात
महर्षि ने ‘वैष्णवमसि' इस मन्त्रांश को सत्यार्थ प्रकाश (एकादश समुल्लास) में वैष्णव-मत की समीक्षा में उद्धृत किया है।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व जगाचा निर्माणकर्मा व धारणकर्मा एकच व्यापक इष्टदेव आहे हे जाणून माणसांनी सर्व कामनांची पूर्तता करावी.
विषय
पुनश्च, तो ईश्वर कसा आहे, हेच पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जे विविधरूप जगत् आहे ते, ते (विष्णोः) व्यापक परमेश्वराच्याच सामर्थ्याने (रराटम्) उत्पन्न होऊन त्याच्याच प्रकाशाने प्रकाशित आहे. त्याच (विष्णोः) सु सर्व सुखदायक ईश्वराच्या (स्यूः) विस्तृत व व्यापक सत्तेने व्याप्त (असि) आहे. हे सर्व जग (वैष्णवम्) यज्ञाचे साधन आहे ( ईश्वराने जगाची रचना यज्ञासाठी केली आहे) (विष्णोः) सर्व पदार्थांत प्रविष्ट वा व्याप्त असणार्या परमेश्वराने (श्नप्त्र) जड व चेतन पदार्थाच्या रूपात दोन प्रकारचे शुद्ध जग आहे.^हे सर्वउत्पादक परमेश्वरा, आम्ही (विष्णवे) यज्ञाच्या अनुष्ठानाकरिता (त्वा) तुझ्या आश्रयात राहू इच्छितो. (तुझ्या कृपेमुळे आमचा यज्ञ संपन्न होवो) ॥21॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्व मनुष्यांनी हे जाणावे व ध्यानी ठेवावे की परमेश्वरच या सर्व जगाचा उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्त्ता असा एकमेव व्यापक इष्टदेव आहे, असे जाणून सर्वांनी इष्ट कामनांची पूर्तता करावी. ॥21॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O World thou art created by God, O animate and inanimate objects ye are the two-fold pure . powers of God, O Air, thou art widespread through Gods strength. O soul, thou art ever immortal through Gods grace. O complete universe, thou art created by God. O man I ordain thee to worship the All-pervading God.
Meaning
The world is a manifestation of Vishnu’s glory at two levels of existence, the animate and the inanimate. The elements of existence have been integrated into form by the presence of Vishnu. The form is one, firm, inviolable and organismic. The world is divine, it belongs to Vishnu. It is yajna. It is for yajna in celebration of the maker.
Translation
You are the forehead of the omnipresent. (1) You two are the corners of the lips of the omnipresent. (2) You are the stitching needle of the omnipresent. (3) You are the tight knot of the omnipresent. (4) You belong to the omnipresent. You to the omnipresent. (5)
Notes
Snaptre, two comers of the lips (ओष्ठ-संधिरूपे— Mahidhara). Syüh, सीव्यते अनेन इति स्यु:, needle. Dhravah, a tight knot.
बंगाली (2)
विषय
পুনঃ স কথংভূত ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে জগদীশ্বর কেমন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–এই যে অনেক প্রকারের জগৎ উহা (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক পরমেশ্বরের প্রকাশ দ্বারা (ররাটম্) উৎপন্ন হইয়া প্রকাশিত (বিষ্ণোঃ) সর্ব সুখ প্রাপ্তকারী ঈশ্বর দ্বারা (স্যুঃ) বিস্তৃত (অসি) আছে । সকল জগৎ (বৈষ্ণবম্) যজ্ঞের সাধন (অসি) হয় এবং (বিষ্ণোঃ) সর্বত্র প্রবেশকারী যে ঈশ্বরের (শ্নপ্ত্রে) জড় চেতনের সমান দুই প্রকারের শুদ্ধ জগৎ আছে, সেই সব জগৎ উৎপন্নকারী জগদীশ্বর! আমরা (ত্বা) আপনাকে (বিষ্ণবে) যজ্ঞের অনুষ্ঠান করিবার জন্য আশ্রয় করি ॥ ২১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, এই সব জগতের পরমেশ্বরই রচনাকারী ও ধারণকারী ব্যাপক ইষ্টদেব এমন জানিয়া সকল কামনার সিদ্ধি করিবে ॥ ২১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বিষ্ণো॑ র॒রাট॑মসি॒ বিষ্ণোঃ॒ শ্নপ্ত্রে॑ স্থো॒ বিষ্ণোঃ॒ সূ্যর॑সি॒ বিষ্ণো॑র্ধ্রু॒বো᳖ऽসি ।
বৈ॒ষ্ণ॒বম॑সি॒ বিষ্ণ॑বে ত্বা ॥ ২১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিষ্ণো ররাটমিত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । ভুরিগাষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
বিষ্ণো ররাটমসি বিষ্ণোঃ শনপ্ত্রে স্থ বিষ্ণোঃ স্যুয়সি বিষ্ণোধ্রুবোঽসি।
বৈষ্ণবমসি বিষ্ণবে ত্বা।।৩৩।।
(যজুর্বেদ ৫।২১)
পদার্থঃ এই যে বিশ্বজগৎ, তা (বিষ্ণোঃ) সর্বব্যাপক পরমেশ্বরের প্রকাশ দ্বারা (ররাটম্ অসি) উৎপন্ন হয়ে প্রকাশিত, (বিষ্ণোঃ) সর্ব সুখ প্রদানকারী ঈশ্বর দ্বারা (স্যুঃ) বিস্তৃত (অসি) হয়। (বিষ্ণোঃ) সমস্ত জগতের পালক ঈশ্বর নিজ সত্তায় (ধ্রুবঃ) স্থিত। সমস্ত জগৎ যাঁর (বৈষ্ণবম্) যজ্ঞের সাধন (অসি) হয় এবং (বিষ্ণোঃ) সবার মধ্যে ব্যাপক যে ঈশ্বরের ব্যাপ্তি (শনপ্ত্রে স্থঃ) জড় - চেতন এই দুই প্রকার শুদ্ধ জগৎ, সেই জগৎ স্রষ্টা জগদীশ্বর (ত্বা) তোমাকেই (বিষ্ণবে) যজ্ঞের অনুষ্ঠান করার জন্য আশ্রয় করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ সকল ভূতের মধ্যে ব্যাপক বলে সেই পরমাত্মার নাম বিষ্ণু। সেই পরমাত্মার প্রকাশ দ্বারা জগৎ প্রকাশিত এবং তিনি তার আনন্দময় স্বরূপে স্থিত। আমরা যজ্ঞের জন্য তাঁরই আশ্রয় করি, কারণ তিনিই যজ্ঞের সাধন।।৩৩।।
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