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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 24
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - सूर्यविद्वांसौ देवते छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    84

    स्व॒राड॑सि सपत्न॒हा स॑त्र॒राड॑स्यभिमाति॒हा ज॑न॒राड॑सि रक्षो॒हा स॑र्व॒राड॑स्यमित्र॒हा॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। स॒त्र॒राडिति॑ सत्र॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। ज॒न॒राडिति॑ जन॒ऽराट्। अ॒सि॒। र॒क्षो॒हेति॑ रक्षः॒ऽहा। स॒र्व॒राडिति॑ सर्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒मि॒त्र॒हेत्य॑मित्र॒ऽहा ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वराडसि सपत्नहा सत्रराडस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वराडस्यमित्रहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वराडिति स्वऽराट्। असि। सपत्नहेति सपत्नऽहा। सत्रराडिति सत्रऽराट्। असि। अभिमातिहेत्यभिमातिऽहा। जनराडिति जनऽराट्। असि। रक्षोहेति रक्षःऽहा। सर्वराडिति सर्वऽराट्। असि। अमित्रहेत्यमित्रऽहा॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ सूर्यसभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् मनुष्य! यतस्त्वं स्वराडसि तस्मात् सपत्नहाऽसि भवसि। यतस्त्वं सत्रराडसि तस्माभिमातिहा वर्तसे, यतस्त्वं जनराडसि तस्माद्रक्षोहाऽसि भवसि। यतस्त्वं सर्वराडसि तस्मादमित्रहाऽसि भवसि। यतस्त्वं सर्वराडसि तस्मादमित्रहाऽसि भवसीत्येकः॥१॥२४॥ यतोऽयं सूर्यलोकः स्वराडस्ति तस्मात् सपत्नहा भवति, यतोऽयं सत्रराडस्ति तस्मादभिमातिहा वर्त्तते। यतोऽयं जनराडस्ति तस्माद्रक्षोहा जायते। यतोऽयं सर्वराडस्ति तस्मादमित्रहा वर्त्तत इति द्वितीयः॥२४॥

    पदार्थः

    (स्वराट्) यः स्वयं राजते सः (असि) अस्ति वा, अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः। (सपत्नहा) यः सपत्नान् शत्रून् मेघावयवान् वा हन्ति सः (सत्रराट्) यः सत्रेषु यज्ञेषु राजते सः (असि) अस्ति वा (अभिमातिहा) येऽभिमिमत इत्यभिमातयस्तान् हन्ति सः, अत्रौणादिकः क्तिच्। (जनराट्) यो जनेषु धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते सः (असि) अस्ति वा (रक्षोहा) यो रक्षांसि दुष्टान् हन्ति सः (सर्वराट्) यः सर्वस्मिन् राजते सः (असि) अस्ति वा (अमित्रहा) यो येन वाऽमित्रान् शत्रून् हन्ति सः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ४। १४।) व्याख्यातः॥२४॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। हे विद्वन्! यथा सूर्यः स्वप्रकाशेन चोरव्याघ्रादीन् भीषयित्वा सर्वान् सुखयति तथैव त्वं शत्रून्निवार्य्य प्रजाः सुखय॥२४॥

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    विषयः

    अथ सूर्यसभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विद्वन् मनुष्य ! यतस्त्वं स्वराट् य स्वयं राजते सः, असि, तस्मात् सपत्नहा यः सपत्नान्=शत्रून् हन्ति सः असि=भवसि। यतस्त्वं सत्रराट् यः सत्रेषु=यज्ञेषु राजते सः असि, तस्मादभिमातिहा येऽभिमिमत इत्यभिमातयस्तान् हन्ति सः, वर्तसे। यतस्त्वं जनराट् यो जनेषु=धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते सः, असि, तस्माद्रक्षोहा यो रक्षांसि=दुष्टान् हन्ति सः, असि= भवसि। यतस्त्वं सर्वराट् यः सर्वस्मिन् राजते सः, असि, तस्मादमित्रहा योऽमित्रान्=शत्रून् हन्ति सः, असि=भवसीत्येकः॥ [सूर्यः] यतोऽयं सूर्यलोकः स्वराट् यः स्वयं राजते सः, [असि] अस्ति तस्मात् सपत्नहा मेघावयवान् हन्ति सः, [असि]=भवति। यतोऽयं सत्रराट् यः सत्रेषु=यज्ञेषु राजते सः [असि]=अस्ति तस्मादभिमातिहा ये अभिमिमत इत्यभि मातयस्तान् हन्ति सः [असि] वर्तते । यतोऽयं जनराट् यो जनेषु=धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते सः [असि] अस्ति तस्माद्रक्षोहा यो रक्षांसि=दृष्टान् हन्ति सः जायते। यतोऽयं सर्वराट् यः सर्वस्मिन् राजते सः [अस्ति] अस्ति तस्मादमित्रहा यो येन वाऽमित्रान्=शत्रून् हन्ति सः, वर्तत इति द्वितीयः।। ५ । २४ ।। [हे विद्वन्मनुष्य! यतस्त्वं स्वराडसितस्मात् सपत्नाहऽसि=भवसि......]

    पदार्थः

    (स्वराट्) यः स्वयं राजते सः (असि) अस्तिवा। अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः (सपत्नहा) यः सपत्नान्=शत्रून् मेघावयमान् वा हन्ति सः (सत्रराट्) यः सत्रेषु=यज्ञेषु राजते सः (असि) अस्तिवा (अभिमातिहा) येऽभिमिमत इत्यभिमातयस्तान् हन्ति सः। अत्रौणादिकः क्तिच् (जनराट्) यो जनेषु=धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते सः (असि) अस्तिवा (रक्षोहा) यो रक्षांसि=दुष्टान् हन्ति सः (सर्वराट्) यः सर्वस्मिन् राजते सः (असि) अस्ति वा (अमित्रहा) यो येन वाऽमित्रान्=शत्रून् हन्ति सः।। अयं मंत्रः शत० ३।५।४ । १४ व्याख्यातः ॥ २४॥ [विद्वान्]

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः॥ हे विद्वन्! यथा सूर्यः स्वप्रकाशेन चोरव्याघ्रादीन भीषयित्वा सर्वान् सुखयति, तथैव त्वं शत्रून् निवार्य प्रजाः सुखय ।। ५ ।२४ ।।

    विशेषः

    औतथ्यो दीर्घतमाः। सूर्यविद्वांसौ=स्पष्टम्॥ भुरिगार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में सूर्य और सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य! जिस कारण आप (स्वराट्) अपने आप प्रकाशमान (असि) हैं, इससे (सपत्नहा) शत्रुओं के मारनेवाले होते हो। जिस कारण तुम (सत्रराट्) यज्ञों में प्रकाशमान हो, इससे (अभिमातिहा) अभिमानयुक्त मनुष्यों को मारने वाले होते हो, जिस से (जनराट्) धार्मिक विद्वानों में प्रकाशित हैं, इससे (रक्षोहा) राक्षस दुष्टों को मारने वाले होते हैं, जिससे आप (सर्वराट्) सब मे प्रकाशित हैं, इस से (अमित्रहा) अमित्र अर्थात् शत्रुओं के मारने वाले होते हैं॥१॥२४॥ जिस कारण यह सूर्यलोक (स्वराट्) अपने आप (असि) प्रकाशित है, इससे (सपत्नहा) मेघ के अवयवों को काटने वाला होता है। जिस कारण यह (सत्रराट्) यज्ञों में प्रकाशित (असि) है, इससे (अभिमातिहा) अभिमानकारक चोर आदि का हनन करने वाला होता है। जिस कारण यह (जनराट्) धार्मिक विद्वानों के मन में प्रकाशित (असि) है, इससे (रक्षोहा) राक्षस वा दुष्टों का हनन करने वाला होता है। जिस से यह (सर्वराट्) सब में प्रकाशमान (असि) है, इससे (अमित्रहा) दुष्टों को दण्ड देने का निमित्त होता है॥२॥२४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। विद्वान् मनुष्य! जैसे सूर्य अपने प्रकाश से चोर, व्याघ्र आदि प्राणियों को भय दिखा कर अन्य प्राणियों को सुखी करता है, वैसे ही तू भी सब शत्रुओं को निवारण कर प्रजा को सुखी कर॥२४॥

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    विषय

    ‘स्वराट् से सर्वराट्’

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार वासना का उच्छेद करनेवाला यह ‘दीर्घतमा’ प्रभु का प्रिय बनता है। प्रभु इससे कहते हैं कि तू अपने इस जीवन के प्रथम प्रयाण में ( स्वराट् असि ) = स्वराट् है, अपना शासन करनेवाला बना है [ स्व = अपना, राज् = regulate ] तूने अपने जीवन को बड़ा नियमित बनाया है। ( सपत्नहा ) = तूने ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह व मद-मत्सर’ इन सब शत्रुओं का हनन किया है। 

    २. जीवन के दूसरे प्रयाण में तू ( सत्रराट् असि ) = यज्ञों से दीप्त होनेवाला बना है, यज्ञों से तेरी कीर्ति चारों ओर फैली है और ( अभिमातिहा ) = तूने अभिमानरूप शत्रु का संहार किया है। 

    ३. अब जीवन की तृतीय मंजिल में ( जनराट् असि ) =  तू अपने विकास से चमकनेवाला हुआ है [ जनध् = प्रादुर्भाव, विकास, evolution ] और ( रक्षोहा ) = सब रोगकृमियों का या राक्षसी वृत्तियों का हनन करनेवाला है। शरीर से भी नीरोग रहता है और मन से भी प्रसादमय रहता है। 

    ४. इस प्रकार ( ‘सर्वराट् असि’ ) = तू सर्वव्यापक होने से ‘सर्व’ नामवाले प्रभु से चमकनेवाला बना है। उसको सदा हृदय में धारण करने से तेरा चेहरा ब्रह्मवर्चस् की दीप्ति से चमकता है और तू ( अमित्रहा ) = अस्नेह की भावना को समाप्त करनेवाला हुआ है। तेरा सबके प्रति प्रेम है। सारी वसुधा तेरा कुटुम्ब बन गई है। सभी तेरी मैं में समाविष्ट हो गये हैं और तू भी अपने उपास्य की तरह ‘सर्व’ बन गया है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमें क्रमशः ‘स्वराट्, सत्रराट् व जनराट्’ बनकर सर्वराट् बनना है।

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    विषय

    राजा के उच्च पदाधिकार।

    भावार्थ

     हे राजन् ! तू (स्वराट् ) स्वयं सर्वोपरि विराजमान, ( सपत्नहा ) शत्रुओं का नाश करने वाला ( असि ) है । 'तू ( अभिमातिहा ) अभिमान करने वाले, गर्वाले शत्रुओं का हन्ता और ( सत्रराट् ) सत्रों, यज्ञों में विदव्सभाओं, या एकत्र परस्पर की रक्षा करने वाले संघों में सर्वोपरि विराजमान ( अति ) होता है । हे राजन् ! तू ( रक्षोहा ) राक्षम, विह्नकारी पुरुषों का नाशक होकर ( जनराड् असि ) समस्त जनों पर राजा के समान विराजता है। तू ( अमित्रहा ) अमित्र, न स्नेह करने वाले शत्रुओं का नाशक होकर सर्वराट् असि ) समस्त प्रजाओं व राजा के रूप में विराजमान होता है ॥ ' 

    टिप्पणी

    २४ --- सूर्य विद्वांसौ देवते । द० । स्वरासि औपरवाणि चत्वारि । सर्वा० । '० राकसि० ' ( ४ ) इति काण्व० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।उपरवाः सूर्यविद्वांसौ वा देवता । भुरिगार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    सूर्य और सभा आदि के अध्यक्ष विद्वान् के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य! जिससे तू (स्वराट्) स्वतन्त्र (असि) है, इसलिए (सपत्नहा) शत्रुओं को नष्ट करने वाला (असि) है। क्योंकि (सत्रराट् ) यज्ञों का राजा (असि) है, इसलिये (अभिमातिहा) अभिमानी लोगों को नष्ट करने वाला है। क्योंकि तू (जनराट्) धार्मिक विद्वानों का राजा (असि) है, इसलिए (रक्षोहा) दुष्ट, राक्षस जनों का हनन करने वाला (असि) है। क्योंकि तू (सर्वराट्) सबका राजा (असि) है, इसलिये (अमित्रहा) अमित्र अर्थात् विरोधियों का विनाश करने वाला (असि) है। यह इस मंत्र का पहला अर्थ है ।। [सूर्य] जिससे यह सूर्यलोक (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (असि) है इसलिये मेघों को नष्ट करने वाला (असि) है। क्योंकि यह (सत्रराट्) यज्ञों का राजा (असि) है इसलिये (अभिमातिहा) अभिमानी जनों को नष्ट करने वाला है। क्योंकि यह (जनराट्) धार्मिक विद्वान् लोगों का राजा (असि) है, इसलिये (रक्षोहा) अपने प्रकाश से दुष्ट राक्षस लोगों को दूर भगाने वाला है। क्योंकि यह (सर्वराट्) सबको प्रकाशित करने वाला है इसलिये (अमित्रहा) अमित्र अर्थात् शत्रुओं को नष्ट करने वाला है। यह इस मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ५ । २४ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है।। हे विद्वान् पुरुष! जैसे सूर्य अपने प्रकाश से चोर, व्याघ्र आदिकों को डरा कर सब लोगों को सुख देता है वैसे ही तू सब शत्रुओं का निवारण करके प्रजा को सुखी कर ।। ५ । २४ ।।

    प्रमाणार्थ

    (असि) अस्ति । इस मन्त्र में 'असि' पद पर पक्ष में सर्वत्र व्यत्यय है। (अभिमातिहा) यहाँ'अभिमाति' शब्द 'मा' धातु से औणादिक 'क्तिच्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ५।४ । १४) में की गई है ॥ ५ ॥ २४ ॥ [विद्वान्]

    भाष्यसार

    १. सभा आदि के अध्यक्ष विद्वान् के गुण--विद्वान् पुरुष स्वयं राजा होने से शत्रुओं का हनन करने वाला, यज्ञों का राजा होने से अभिमानी जनों का हन्ता, धार्मिक विद्वान् जनोंका राजा होने से दुष्ट राक्षसों को नष्ट करने वाला, सब का राजा होने से अमित्र अर्थात् शत्रुओं का हन्ता होता है। २. सूर्य के गुण--सूर्य स्वयं प्रकाशमान होने से मेघों को नष्ट करने वाला, यज्ञों का राजा होने से अभिमानी जनों को नष्ट करने वाला, धार्मिक विद्वान् जनों का राजा होने से दुष्ट राक्षस चोर आदि को अपने प्रकाश से दूर भगाने वाला, सबका मित्र होने से शत्रुओं को दूर करने वाला है। ३. अलङ्कार-– यहाँ श्लेष अलङ्कार से विद्वान् और सूर्य अर्थ का ग्रहण किया है ॥ ५ ॥ २४ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. हे विद्वान माणसा ! सूर्य जसा आपल्या प्रकाशाने चोर, वाघ इत्यादी प्राण्यांना भयभीत करून इतर प्राण्यांना सुखी करतो तसे तुही सर्व शत्रूंचे निवारण करून लोकांना सुखी कर.

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    विषय

    पुढील मंत्रात सूर्याच्या सभाध्यक्षाच्या गुणांविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - या मंत्राचे दोन अर्थ आहेत 1) असभाध्यक्ष म्हणजे राष्ट्राध्यक्षपरक 2) सूर्यपरक - हे विद्वान (वा विद्वान् समर्थ शक्तिमान) राष्ट्राध्यक्ष, आपण (विराट) स्वयमेव स्वतःच्या कीर्तीमुळे प्रसिद्ध आहात. (सपन्तहा) शत्रूंचे संहारक आणि (सत्रराट) यज्ञामधे विशेष प्रतिष्ठित वा कीर्तीमंत आहात. (जनराट्) धार्मिक विद्वांद्वारे सम्मानित असून (रक्षोहा) राक्षसांना अर्थात दुर्जनांचा वध करणारे आहात. आपण (सर्वराट) सर्वत्र प्रतिष्ठित व कीर्तिमंत आणि (अमित्रहा) अमित्रांना म्हणजे शत्रूंचा नाश करणारे आहात ॥1॥^हा सूर्य (स्वराट) स्वतः प्रकाशमान (असि) आहे. (सपलहा) ढगांच्या अवयवांना (जलकणांना) छिन्न-भिन्न करणारा (त्तृष्टी करणारा) आणि (सत्रराट्) यज्ञामधे पूज्य (असि) आहे (अभिमातिहा) अभिमानी चोर, दरोडेखोर यांचा वध करणारा आणि (जनराट) धार्मिक विद्वज्जनांना मनामधे प्रेरणा देणारा वा विद्वज्जनांद्वारे विशेषत्वाने ज्ञातव्य (असि) आहे. हा सूर्य (रक्षोहा) राक्षसांचा म्हणजे दुष्टांचा संहार करणारा व (सत्रराट्) सर्व दीप्तिमान पदार्थांमधे सर्वाधिक प्रकाशमान (असि) आहे. तसेच हा (अमित्रहा) दुष्टांना दंडित करण्याचे एक निमित्त आहे (सूर्यप्रकाशामुळे चोर, दुर्जन आदी दूराचारी जन त्वरित पकडले जातात)

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे (स्वराट् सपत्नहा, जनराट्, रक्षोहा आदी पदांचे प्रसंगाप्रमाणे दोन अर्थ आहेत. यांमुळे श्‍लेष आहे) हे विद्वान् सभाध्यक्ष, (पंतप्रधान वा राष्ट्रपती) ज्याप्रमाणे सूर्य आपल्या प्रकाशामुळे चोर-दरोडेखोर, वाद्य आदी प्राण्यांना भयभीत करतो आणि त्याद्वारे सर्व प्राण्यांना सुखी करतो, त्याप्रमाणे आपण देखील सर्व शत्रूंचे निवारण करून प्रजेला (जनतेला व नागरिकांना) सुखी करा॥24॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king, thou art self-effulgent, hence thou art the conqueror of foes. Thou art renowned in sacrifices, hence thou art the subduer of the proud enemies. Mans ruler art thou, hence thou art the slayer of fiends. All ruler art thou, hence thou art the killer of foes.

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    Meaning

    You are self-disciplined, self-luminous, free, able to defeat the rivals. You are ruled by the sessions of the community-yajna; you shine in the community sessions and you suppress the proud. You are ruled by the people, you shine among the people, and you eliminate the wicked. You are ruled by all, you shine among all and you win over those who are not your friends. You are the individual, self-disciplined, self- enlightened, free, able to defeat the rivals. You are the community, autonomous, enlightened, able to keep down the insidious. You are the nation, governed by the people, nationally enlightened, free, able to suppress the wicked. You are the united nations of the world, governed by the united people, humanly enlightened, sovereign, able to win over the opposition and non-friends.

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    Translation

    You are the sovereign by yourself, the conqueror of foes. (1) You are the sovereign for all times, the destroyer of enemies. (2) You are the sovereign of the people, killer of the wicked. (3) You are the sovereign everywhere, overwhelmer of those who are unfriendly. (4)

    Notes

    Svarat, sovereign by yourself. Satrarát, sovereign for all times. Janarat, sovereign of the people. Sarvarat, sovereign every where. Abhimatih, अभिमाति: अनुकूल: शत्रु:, a hostile enemy; a bully: a haughty enemy.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সূর্য়সভাদ্যধ্যক্ষগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
    এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে সূর্য্য ও সভাধ্যক্ষের গুণের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ মনুষ্য ! যে কারণে আপনি (স্বরাট্) স্বয়ং প্রকাশমান (অসি) আছেন সেই কারণে (সপত্নহা) শত্রুদিগের মৃত্যু আনয়ন করেন, যে কারণে আপনি (সত্ররাট্) যজ্ঞে প্রকাশমান সেই কারণে (অভিমাতিহা) অভিমানযুক্ত মনুষ্যদিগকে মৃত্যু আনয়ন করেন, যদ্দ্বারা (জনরাট্) ধার্মিক বিদ্বান্দিগের মধ্যে প্রকাশিত এইজন্য (রক্ষোহা) রাক্ষস দুষ্টদিগের মৃত্যু আনয়ন করেন, যদ্দ্বারা আপনি (সর্বরাট্) সকলের মধ্যে প্রকাশিত এইজন্য (অমিত্রহা) অমিত্র অর্থাৎ শত্রুদিগের মৃত্যু আনয়ন করেন ॥ ১ ॥ যে কারণে এই সূর্যলোক (স্বরাট্) স্বয়ং প্রকাশিত সে কারণে (সপত্নহা) মেঘের অবয়বকে কাটিয়া থাকে, যে কারণে উহা যজ্ঞে প্রকাশিত (অসি) আছে সে কারণে (অভিমাতিহা) অভিমানকারক চোরাদির হননকারী হইয়া থাকে, যে কারণে ইহা (জনরাট্) ধার্মিক বিদ্বান্দিগের মনে প্রকাশিত, সে কারণে (রক্ষোহ) রাক্ষস বা দুষ্টদিগের হননকারী হইয়া থাকে । যদ্দ্বারা ইহা (সর্বরাট্) সকলের মধ্যে প্রকাশমান সে কারণে (অমিত্রহা) দুষ্টদিগকে দণ্ড দিবার নিমিত্ত হয় ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । হে বিদ্বান্ মনুষ্য । যেমন সূর্য নিজ প্রকাশ দ্বারা চোর, ব্যাঘ্রাদি প্রাণিদিগকে ভয় দেখাইয়া অন্য প্রাণিদিগকে সুখী করে সেইরূপ তুমিও শত্রুদিগের নিবারণ করিয়া প্রজাকে সুখী কর ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স্ব॒রাড॑সি সপত্ন॒হা স॑ত্র॒রাড॑স্যভিমাতি॒হা জ॑ন॒রাড॑সি রক্ষো॒হা স॑র্ব॒রাড॑স্যমিত্র॒হা ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    স্বরাডসীত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । সূর্য়বিদ্বাংসৌ দেবতে । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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