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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
    163

    इ॒दं विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पासु॒रे स्वाहा॑॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम् ॥ समू॑ढ॒मिति॒ सम्ऽऊ॑ढम्। अ॒स्य॒। पा॒सु॒रे। स्वाहा॑ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदँविष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूढमस्य पाँसुरे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। विष्णुः। वि। चक्रमे। त्रेधा। नि। दधे। पदम्॥ समूढमिति सम्ऽऊढम्। अस्य। पासुरे। स्वाहा॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 15
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यो विष्णुर्जगदीश्वरो यत्किञ्चिदिदं प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगद् वर्त्तते तत् सर्वं विचक्रमे रचितवान्। त्रेधा निदधे निदधात्यस्य त्रिविधस्य जगतः परमाण्वादिरूपं स्वाहा सुहुतं समूढमदृश्यं पदं पांसुरेऽन्तरिक्षे निहितवानस्ति, स सर्वैः सुसेवनीयः॥१५॥

    पदार्थः

    (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत् (विष्णुः) यो वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स जगदीश्वरः (वि) विविधार्थे (चक्रमे) क्रान्तवान् निक्षिप्तवान् क्राम्यति क्रमिष्यति वा। अत्र सामान्येऽर्थे लिट्। (त्रेधा) त्रिप्रकारम् (नि) नितराम् (दधे) हितवान् दधाति धास्यति वा (पदम्) पद्यते गम्यते यत्तत्। अत्र घञर्थे कविधानम् [अष्टा॰भा॰वा॰३.३.५८] इति कः प्रत्ययः। (समूढम्) सम्यगुह्यतेऽनुमीयते शब्द्यते यत्तत् (अस्य) त्रिविधस्य जगतः (पांसुरे) पांसवो रेणवो रजांसि रमन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन् (स्वाहा) सुहुतं जुहोतीत्यर्थे। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याख्यातवान्-यदिदं किं च तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरे प्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे स्यात्, समूढमस्य पांसुर इव पदं न दृश्यते इति पांसवः। पादैः सूयत इति वा, पन्नाः शेरत इति पांसवः, पादैः सूयन्त इति वा पन्नाः शेरत इति वा पंसनीया भवन्तीति वा। (निरु॰१२। १९) अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। १३) व्याख्यातः॥१५॥

    भावार्थः

    परमेश्वरेण यत् प्रथमं प्रकाशवत् सूर्यादि, द्वितीयमप्रकावत् पृथिव्यादि प्रसिद्धं जगद्रचितमस्ति, यच्च तृतीयं परमाण्वाद्यदृश्यं सर्वमेतत्कारणावयवै रचयित्वाऽन्तरिक्षे स्थापितम्, तत्रौषध्यादि पृथिव्याम्, अग्न्यादिकं सूर्य्ये, परमाण्वादिकमाकाशे निहितम्, सर्वमेतत् प्राणानां शिरसि स्थापितवानस्ति। सा हैषा गयांस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे तद्यद् गयांस्तत्रे तद् गायत्री नाम। (शत॰१४। ८। १५। ६-७) अनेन गयशब्देन प्राणानां ग्रहणम्॥ अत्र महीधरः प्रबुक्कति त्रिविक्रमावतारं कृत्वेत्यादि तदशुद्धं सज्जनैर्बोध्यम्॥१५॥

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    विषयः

    पुनः स जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    यो विष्णुः=जगदीश्वरः यो वेवेष्टि=व्याप्नोति चराचरं जगत्स जगदीश्वरः यत्किञ्चिदिदं=प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगद्वर्त्तते तत्सर्वंविचक्रमे =रचितवान् विविधतया क्रान्तवान्=निक्षिप्तवान् क्राम्यति, क्रमिष्यति वा, त्रेधा त्रिप्रकारं निदधे=निदधाति नितरां हितवान्, दधाति धास्यति वा, अस्य त्रिविधस्य जगतः परमाण्वादिरूपं स्वाहा=सुहुतं सुहुतं जुहोति समूढम्=अदृश्यं सम्यगुह्यते=अनुमीयते शब्दयते यत्तत् पदं पद्यते=गम्यते यत्तत् पांसुरे=अन्तरिक्षे पांसवः=रेणवो रजांसि रमन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन् निहितवानस्ति, स सर्वैः सुसेवनीयः।। ५ । १५ ।। [यो विष्णुः=जगदीश्वरो यत्किञ्चिदिदं=प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगद्वर्त्तते तत्सर्वं विचक्रमे=रचितवान्। त्रेधा निदधे=निदधाति=अस्य त्रिविधस्य जगतः परमाण्वादिरूपं........पदं पांसुरे=अन्तरिक्षे निहितवानस्ति]

    पदार्थः

    (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत् (विष्णुः) यो वेवेष्टि=व्याप्नोति चराचरं जगत्स जगदीश्वरः (वि) विविधार्थे (चक्रमे) क्रान्तवान्=निक्षिप्तवान् क्राम्यति क्रमिष्यति वा । अत्र सामान्येऽर्थे लिट् (त्रेधा) त्रिप्रकारम् (नि) नितराम् (दधे) हितवान् दधाति धास्यति वा (पदम्) पद्यते=गम्यते यत्तत्। अत्र घञर्थे कविधानमितिकः प्रत्ययः (समूढम्) सम्यगुह्यतुऽनुनीयते शब्द्यते यत्तत् (अस्य) त्रिविधस्य जगतः (पांसुरे) पांसवो=रेणवो रजांसि रमन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन् (स्वाहा) सुहुतं जुहोतीत्यर्थे। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याख्यातवान्--यदिदं किंच विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्यामंतरिक्षे दिवीति शाकपूणिः । समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरे प्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे स्यात्समूढमस्य पांसुर इव पदं न दृश्यत इति पांसवः। पादै: सूयत इति वा, पन्नाः शेरत इति वा, पादैः सूयन्त इति वा, पन्नाः शेरत इति वा, पंसनीया भवन्तीति वा । निरु० १२ । १९।। अयं मंत्र ३। ५। ३। १३ व्याख्यातः ॥ १५।।

    भावार्थः

    परमेश्वरेण यत्प्रथमं प्रकाशवत् सूर्यादि, द्वितीयमप्रकाशवत् पृथिव्यादिप्रसिद्धं जगद्रचितमस्ति, यच्च तृतीयं परमाण्वाद्यदृश्यं सर्वमेतत् कारणावयवै रचयित्वाऽन्तरिक्षे स्थापितं, तत्रौषध्यादिकंपृथिव्यामग्न्यादिकं सूर्ये परमाण्वादिकमाकाशे निहितं, सर्वमेतत् प्राणानां शिरसि स्थापितवानस्ति। [प्रमाणमाह--]- "सा हैषा गयाँस्तत्रे, प्राणा वै गयास्तत्प्राणाँस्तत्रे, तद्यद् गयाँस्तत्रे तद् गायत्री नाम"॥ शत० १४। ८। १५। ६-७ ।। अनेन गयशब्देन प्राणानां ग्रहणम्॥ [समीक्षते] अत्र महीधरः प्रबुक्कति त्रिविक्रमावतारं कृत्वेत्यादि, तन्नशुद्धं सज्जनैर्बोध्यम् ।। ५ । १५ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    विचक्रमे=रचितमस्ति ।

    विशेषः

    मेधातिथिः। विष्णुः=ईश्वरः॥ भुरिगार्षी गायत्री। षड्जः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (विष्णुः) जो सब जगत् में व्यापक जगदीश्वर जो कुछ यह जगत् है, उसको (विचक्रमे) रचता हुआ (इदम्) इस प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जगत् को (त्रेधा) तीन प्रकार का धारण करता है (अस्य) इस प्रकाशवान्, प्रकाशरहित और अदृश्य तीन प्रकार के परमाणु आदि रूप (स्वाहा) अच्छे प्रकार देखने और दिखलाने योग्य जगत् का ग्रहण करता हुआ (इदम्) इस (समूढम्) अच्छे प्रकार विचार करके कथन करने योग्य अदृश्य जगत् को (पांसुरे) अन्तरिक्ष में स्थापित करता है, वही सब मनुष्यों को उत्तम रीति से सेवने योग्य है॥१५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने जिस प्रथम प्रकाश वाले सूर्यादि, दूसरा प्रकाशरहित पृथिवी आदि और जो तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत् है, उस सब को कारण से रचकर अन्तरिक्ष में स्थापन किया है, उनमें से ओषधी आदि पृथिवी में, प्रकाश आदि सूर्यलोक में और परमाणु आदि आकाश और इस सब जगत् को प्राणों के शिर में स्थापित किया है। इस लिखे हुए शतपथ के प्रमाण से ‘गय’ शब्द से प्राणों का ग्रहण किया है, इसमें महीधर जो कहता है कि त्रिविक्रम अर्थात् वामनावतार को धारण करके जगत् को रचा है, यह उसका कहना सर्वथा मिथ्या है॥१५॥

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    विषय

    मेधातिथि

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की समाप्ति पर उस सविता देव की महान् स्तुति का उल्लेख था। उसी स्तुति को प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ( विष्णुः ) = वह व्यापक परमात्मा ( इदम् ) = इस ब्रह्माण्ड को ( विचक्रमे ) = विशेष क्रमपूर्वक बनाता है। संसार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो संसार में एक विशेष क्रम दीखता है। ‘विमानः’ शब्द इसी भावना को व्यक्त कर रहा है कि परमेश्वर ने इस ब्रह्माण्ड के पिण्डों को विशेष मानपूर्वक बनाया है। 

    २. ( त्रेधा ) = तीन प्रकार के ( पदम् ) = पगों को ( निदधे ) = उस प्रभु ने रक्खा है। ‘द्युलोक, अन्तरिक्षलोक व पृथिवीलोक’ ये ही तीन पग हैं। 

    ३. ये जितने भी पिण्ड हैं वे सब-के-सब मूल में परमाणुरूप थे। परमाणुओं को ही वह-वह आकृति प्राप्त हो गई—‘किस प्रकार कणों से सुन्दर कान्तिमय पिण्डों का निर्माण हो गया ?’ इस बात को सोचते हैं तो आश्चर्य ही होता है कि ( पांसुरे ) = धूलिकणमय प्रकृति-समुद्र में इन लोक-लोकान्तरों का ( समूढम् ) = सम्यक् प्रापण—निर्माण ( अस्य ) = इस परमात्मा का ही कर्म वैचित्र्य है। [ वह प्रापणे, सम् = उत्तमता से ]। प्रभु ने इन परमाणुओं से क्या विचित्र सृष्टि का निर्माण कर दिया। यही प्रभु की महिमा है। एक-एक अणु की रचना अद्भुत है, एक-एक पिण्ड आश्चर्य से परिपूर्ण है। एक-एक फल की रचना कितनी विस्मयकारक प्रतीत होती है ? उपनिषद् के शब्दों में यह सारा संसार सचमुच प्रभु का व्याख्यान कर रहा है इदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम्। यह सारा संसार ( स्वाहा ) = सुन्दरता से उस प्रभु का प्रतिपादन कर रहा है।

    भावार्थ

    भावार्थ — यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु की महिमा का प्रतिपादक है। प्रभु ने तीन लोकों में विभक्त करके इस सृष्टि की रचना की है। ये तीन लोक ही प्रभु के तीन पग हैं।

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    विषय

    परमेश्वर की महान् शक्ति ।

    भावार्थ

    ( विष्णुः ) चर और अचर समस्त जगत् में व्यापक परमेश्वर ( इदं ) इस समस्त जगत् को ( विचक्रमे ) विविध रूपों में व्याप्त होकर रचता है और उसने ( त्रेधा ) तीन प्रकार से इसमें ( पदम् ) अपने ज्ञान या स्वरूप को ( निदधे ) स्थापित किया है । और ( पांसुरे ) जिस प्रकार धूलिमय देश में कोई पदार्थ लुप्त रहता है और बड़ा यन्त्र करने पर ढूंढने से प्राप्त होता है उसी प्रकार ( अस्य पदम् ) उसका वह गृढ़ स्वरूप भी ( समूढ्म् ) खूब गूढ है, सर्वत्र व्यापक है, और मनन निदिध्यासन द्वारा जानने योग्य है । ( स्वाहा ) उसका उत्तम रीति से ज्ञान करो और उसकी उपासना करो || 
    सत्व, रजस्, तमस् इन तीनों रूपों में परमेश्वर अपनी सर्वत्र शक्ति प्रकट करता है और चतुर्थ निर्गुण रूप भी प्रकृति के परमाणुओं के भीतर ही खूब सूक्ष्म रूप में व्यापक है । [ विशेष विवेचना देखो साम-भाव्य ० पृ० ७५६ ] ॥

    टिप्पणी

     १५ - 'समूश्र्म०' इति काण्व० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।मेधातिथिर्ऋषिः । विष्णुर्देवता । भुरिगार्षी गायत्री । षड्जः ॥ 

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    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    जो (विष्णुः) चराचर जगत् में व्यापक विष्णु जगदीश्वर है उसने जो कुछ (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष जगत् है, उसको (विचक्रमे) विविध प्रकार का रचा है, रचता है और रचेगा। और-- (त्रेधा) प्रकाशवान् सूर्य आदि,अप्रकाशवान् पृथिवी आदि, अदृश्य परमाणु आदि इस तीन प्रकार के जगत् को (निदधे) सर्वथा धारण किया, करता है, और धारण करेगा। (अस्य) इस तीन प्रकार के जगत् में से परमाणु आदि रूप जगत् जो कि (स्वाहा) सुहुत (समूहम्) अदृश्य (पदम्) प्राप्त करने योग्य है उसे (पांसुरे) रेणुओं के रमण स्थान अन्तरिक्ष में स्थापित किया है, वह जगदीश्वर सबके लिये उपासनीय है ।। ५ । १५ ।।

    भावार्थ

    परमेश्वर ने प्रथम प्रकाशवान् सूर्य आदि, दूसरा अप्रकाशवान् पृथिवी आदि प्रसिद्ध जगत् रचा है, और जो तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत् है इस सबको कारण-अवयवों से रचकर अन्तरिक्ष में स्थापित किया है, उसमें औषधि आदि को पृथिवी पर, अग्नि आदि को सूर्य में और परमाणु आदि को आकाश में स्थापित किया है। और उस सबको प्राणों केशिर पर रखा है। इस जगत् का नाम गायत्री है। क्योंकि यह गयों में फैला हुआ है। गय का अर्थ प्राण है। जिससे प्राणों में फैला हुआ है इसलिये इसे गायत्री कहते हैं। शत० १४ । १८ । १५ । ६-७ ।। यहाँ त्रिविक्रम अवतार की बात जो महीधर ने लिखी है वह सब बकवास है, उसे सब सज्जन अशुद्ध समझें ।। ५ । १५ ।।

    प्रमाणार्थ

    (चक्रमे) यहाँ सामान्य अर्थ में लिट् लकार है। (पदम्) यह शब्द 'घञर्थे’ कविधानम् [अ० ३।३।५८] इस वार्तिक से 'पद्' धातु से 'क' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। इस मन्त्र की व्याख्या यास्कमुनि ने निरु० (१२ । १९) में इस प्रकार की है--"यह मध्याह्नकालीन आदित्य, इस भूभाग पर जो कुछ यह है, उस सबमें विक्रम दर्शाता हैअर्थात् भूमि के प्रत्येक पदार्थ को पूर्णतया तपाता है। यह पृथिवी में, अन्तरिक्ष में और द्युलोक में एवं तीन प्रकार से प्रकाश-किरण को धारणकरता है। अर्थात् यह विष्णु आदित्य उपर्युक्त तीनों लोकों में पूर्णतया प्रकाशित होता है। इस आदित्य की एक प्रकाश-किरण अन्तरिक्ष में गुप्त है, अर्थात् वह दृष्टिगोचर नहीं होती। अथवा, जैसे पाँ मिट्टी वाले स्थान में पादचिह्न स्पष्टतया दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी प्रकार अन्तरिक्ष में इसका प्रकाश पूर्णतया दृष्टिगोचर नहीं होता, द्युलोक तथा भूलोक पर अधिक स्पष्ट दीखता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत. (३।५ । ३ । १३) में की गई है ।। ५ । १५ ।।

    भाष्यसार

    १. विष्णु (ईश्वर) कैसा है--विष्णु अर्थात् जगदीश्वर चराचर जगत् में व्याप्त है। जो यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत् है सब उसी ने रचा है। प्रकाशवान् सूर्य आदि, प्रकाश रहित पृथिवी आदि, अदृश्य परमाणु आदि इस तीन प्रकार के जगत् को कारण रूप अवयवों से रचकर ईश्वर ने इसे आकाश में स्थापित किया है। इस तीन प्रकार के जगत् का परमाणु आदि रूप ग्रहण करने के अयोग्य है, अदृश्य है, अनुमान से जानने योग्य है। ईश्वर ने औषधि आदि को पृथिवी पर, अग्नि आदि को सूर्य में, परमाणु आदि को आकाश में स्थापित किया है। और इन सबको अपने प्राणों के आधार पर स्थापित किया है । शत० १४।१८।१५।६-७ के अनुसार इस जगत् का नाम गायत्री है। गायत्री को गायत्री इसलिये कहते हैं कि यह गय अर्थात् प्राणों में फैली हुई है। यह जगत् भी प्राणों के शिर पर स्थित है। अतः गायत्री है। जगत् का आधार विष्णु जगदीश्वर सबके लिये उपासनीय है। २. समीक्षा-- इस मन्त्र की व्याख्या में महीधर लिखता है कि--"विष्णुः त्रिविक्रमावतारं कृत्वा इदं विश्वं विचक्रमे विभज्य क्रमते स्म । तदेवाह । त्रेधा पदं निदधे । भूमावेकं पदमन्तरिक्षे द्वितीयं दिवि तृतीयमिति क्रमादग्निवायुसूर्यरूपेणेत्यर्थः" अर्थात् विष्णु ने त्रिविक्रम अवतार धारण करके इस विश्व को विभाग करके लाँघ दिया। उसने एक चरण भूमि पर, दूसरा आकाश में और तीसरा द्युलोक में रखा, जो अग्नि, वायु और सूर्य रूप है। महर्षि दयानन्द ने महीधर के इस लेख को बकवास लिखा है। और सज्जनों को चेतावनी दी है कि इस प्रकार की बातों को अशुद्ध समझ कर इन पर कभी विश्वास न करें क्योंकि परमेश्वर कभी भी अवतार धारण नहीं करता क्योंकि वह निराकार और सर्वशक्तिमान् है ।

    अन्यत्र व्याख्यात

    महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (ग्रन्थ-प्रामाण्याप्रामाण्य विषय) में इस प्रकार की है--"इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् अपने पाद अर्थात् प्रकृति परमाणु आदि सामर्थ्य के अंशों से सब जगत् को तीन स्थानों में स्थापन करके धारण कर रहा है। अर्थात् भार सहित और प्रकाश रहित जगत् को पृथिवी में, परमाणु आदि सूक्ष्म द्रव्यों को अन्तरिक्ष में तथा प्रकाशमान सूर्य और ज्ञानेन्द्रिय आदि को प्रकाश में, इस रीति से तीन प्रकार के जगत् को ईश्वर ने रचा है। फिर उन्हीं तीन भेदों में एक मूढ़ अर्थात् ज्ञानरहित जो जड़ जगत् वह अन्तरिक्ष अर्थात् पोल के बीच में स्थित है सो यह केवल परमेश्वर ही की महिमा है कि जिसने ऐसे-ऐसे अद्भुत पदार्थ रच के सबको धारण कर रक्खा है।'

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराने प्रथम सूर्य, दुसरी पृथ्वी (प्रकाशरहित) व तिसरे परमाणू जग प्रकृतिरूपी कारणापासून निर्माण करून त्यांना अंतरिक्षात स्थापन केलेले आहे. पृथ्वीवर औषधी (वृक्ष-वनस्पती इत्यादी) , सूर्यामध्ये प्रकाश व आकाशात परमाणू निर्माण केलेले आहेत व सर्व जग प्राणामध्ये स्थित केलेले आहे. शतपथ ब्राह्मणात गय हा शब्द प्राणासाठी वापरलेला आहे. त्यामुळे महिधराच्या कथनानुसार त्रिविक्रम अर्थात वामनावतार धारण करून परमेश्वराने जगाची रचना केलेली आहे. हे विधान असत्य आहे.

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    विषय

    तो परमेश्‍वर कसा आहे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विष्णुः) जो परमेश्‍वर सर्व जगात व्यापक असून हे जे काही सर्व जग आहे, त्या जगदीश्‍वरानेच याची (विचक्रमे) रचना केली आहे. तोच (इदम्) या प्रत्यक्ष आणि अप्रत्यक्ष जगाला (त्रेदा) प्रकारे धारण करीत आहे तोच जगदीश्‍वर या समस्त सृष्टीला 1) प्रकाशवान सूर्यादी (2) प्रकाशरहित पृथ्वी आणि आदी (3) अदृश्य परमाणू या तीन रूपात धारण करीत आहे (स्वाहा) तसेच उत्तम प्रकारे पाहता येईल आणि दाखविता येईल, अशा प्रत्यक्ष जगाला आणि (इदम्) या (समूढम्) सखोल विचार करूनच त्याविषयी सांगता येईल, अशा अप्रत्यक्ष/अदृश्य जगाला तोच (पांसुरे) अंतरिक्षामधे (निदधे) (पदम्) स्थापित करतो आहे वा केले आहे त्याच परमेश्‍वराची सर्व मनुष्यांनी उत्तमरीत्या उपासना करणे उचित आहे (इतर कोणाची नको) ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - परमेश्‍वराने प्रथम लोक म्हणजे प्रकाशवान सूर्यादी लोकांची, द्वितीय लोक म्हणजे प्रकाशरहित पृथ्वी आदी लोकांची आणि तिसरा लोक म्हणजे परमाणु आदी अदृश्य जगाची रचना करून त्यांना अंतरिक्षात स्थापित केले आहे, तोच या सर्व लोकांचे कारणरूप आहे (निमित्त कारण आहे) या तीन लोकांत पृथ्वीमधे औषधी वनस्पती आदींची, सूर्यादी लोकात प्रकाशाची व आकाशात परमाणूंची स्थापना करून सर्व जगाला प्राणांच्या शिरस्थानी स्थापित केले आहे. (त्रेधा निदधे पदम्) म्हणजे जगाला तीन प्रकारे पद म्हणजे स्थानांत स्थापित केले आहे, हा या मंत्राचा वास्तविक अर्थ आहे, पण महीधरनि या मंत्राचा अर्थ पौराणिक अल्पित देवता विष्णु आणि त्याचे वामनावतारात राजा बलिकडून तीन पावलात समस्त जगावर अधिकार मिळविले, असा निराधार व काल्पनिक अर्थ केला आहे.) शतपथ ब्राह्मणातील प्रमाणाच्या आधारे येथे गप शब्दाने प्राण या अर्थाचे ग्रहण केले आहे. या मंत्राविषयी महीधराने जे म्हटले आहे की त्रिविक्रम म्हणजे वामनावतार धारण करून जगाची रचना केली आहे, त्याचे कथन व ही व्याख्या सर्वथा मिथ्य आहे ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He who pervades the animate and the inanimate worlds, has created the visible and invisible worlds, and has established His dignity in three ways. His invisible form is hidden in the space. He is worthy of worship by all.

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    Meaning

    Vishnu, Lord omnipresent sustainer of this dynamic world, visible and invisible, created it in three fold order — earth (prithivi), skies (antariksha) and heaven (dyu), or sattva (mind), rajas (motion) and matter (tamas) — and, along with the mystery that it is, set it in space. This is the divine voice.

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    Translation

    The omnipresent God pervades this universe. He plants his foot thrice, but is not seen in a dusty desert. Svaha. (1)

    Notes

    Pamsure, in a sandy region, desert. Samudham, अंतर्हितम्, hidden, not known or seen.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স জগদীশ্বরঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই জগদীশ্বর কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(বিষ্ণুঃ) যিনি সর্ব জগতে ব্যাপক জগদীশ্বর যা কিছু এই জগৎ উহাকে (বিচক্রমে) রচনা করিয়া (ইদম্) এই প্রত্যক্ষ অপ্রত্যক্ষ জগৎকে (ত্রেধা) তিন প্রকারে ধারণ করেন (অস্য) এই প্রকাশবান প্রকাশরহিত ও অদৃশ্য তিন প্রকারের পরমাণু ইত্যাদি রূপ (স্বাহা) ভাল ভাবে দেখিবার এবং দেখাইবার যোগ্য জগৎকে গ্রহণ করিয়া (ইদম্) এই (সমূঢম্) ভাল প্রকার বিচার করিয়া কথনীয় অদৃশ্য জগৎকে (পাংসুরে) অন্তরিক্ষে স্থাপন করেন তিনিই সকল মনুষ্যের উত্তম রীতিপূর্বক সেবনীয় ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–পরমেশ্বর প্রথম প্রকাশযুক্ত সূর্য্যাদি, দ্বিতীয় প্রকাশরহিত পৃথিবী ইত্যাদি এবং তৃতীয় পরমাণু ইত্যাদি অদৃশ্য জগৎকে কারণপূর্বক রচনা করিয়া অন্তরিক্ষে স্থাপন করিয়াছেন । তন্মধ্য পরমাণু ইত্যাদি আকাশ এবং এই সকল জগৎকে প্রাণী সকলের শিরে স্থাপন করিয়াছেন । এইজন্য শতপথে প্রমাণ দ্বারা গয় শব্দ হইতে প্রাণ গ্রহণ করা হইয়াছে । ইহাতে মহীধর বলেন যে, ত্রিবিক্রম অর্থাৎ বামনাবতার ধারণা করিয়া জগৎ রচনা করিয়াছেন উহা সর্বের মিথ্যা ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒দং বিষ্ণু॒র্বি চ॑ক্রমে ত্রে॒ধা নি দ॑ধে প॒দম্ ।
    সমূ॑ঢমস্য পাᳬंসু॒রে স্বাহা॑ ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইদং বিষ্ণুরিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । ভুরিগার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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