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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 18
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    108

    विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्याणि॒ प्रवो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजा॑सि। योऽअस्क॑भाय॒दुत्त॑रꣳ स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यो विष्ण॑वे त्वा॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑। नु। क॒म्। वी॒र्या᳖णि। प्र। वो॒च॒म्। यः। पार्थि॑वानि। वि॒म॒मऽइति॑ विऽम॒मे। रजा॑सि। यः। अस्क॑भायत्। उत्त॑रमित्युत्ऽत॑रम्। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। वि॒च॒क्र॒मा॒ण इति॑ विऽचक्रमा॒णः। त्रे॒धा। उ॒रु॒गा॒यऽइत्यु॑रुऽगा॒यः। विष्ण॑वे। त्वा ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोर्नु कँवीर्याणि प्र वोचँयः पार्थिवानि विममे रजाँसि । योऽअस्कभायदुत्तरँ सधस्थँविचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः विष्णवे त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः। नु। कम्। वीर्याणि। प्र। वोचम्। यः। पार्थिवानि। विममऽइति विऽममे। रजासि। यः। अस्कभायत्। उत्तरमित्युत्ऽतरम्। सधस्थमिति सधऽस्थम्। विचक्रमाण इति विऽचक्रमाणः। त्रेधा। उरुगायऽइत्युरुऽगायः। विष्णवे। त्वा॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 18
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ व्यापकेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यूयं यो विचक्रमाण उरुगायो विष्णुर्जगदीश्वरः पार्थिवानि रजांसि त्रेधा विममे, यः उत्तरसधस्थमस्कभायत् प्रतिबध्नाति, यो विष्णवे उपासनादियज्ञायाश्रीयते यस्य विष्णोर्वीर्याणि विद्वांसो वदन्ति, यं सर्वे संश्रयन्ते, कं सुखरूपं देवमहं प्रवोचं नु शीघ्रमाश्रये॥१८॥

    पदार्थः

    (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (नु) शीघ्रम् (कम्) सुखस्वरूपम् (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (वोचम्) कथयेयम् (यः) अनन्तपराक्रमः (पार्थिवानि) पृथिव्या विकारा अन्तरिक्षे विदितानि वा। अत्र तत्र विदित इति च। (अष्टा॰५।१।४३) अनेनाञ् प्रत्ययः। (विममे) विविधतया मिमीते (रजांसि) लोकान्, लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु॰४।१९) (यः) सर्वाधारः (अस्कभायत्) प्रतिबध्नाति (उत्तरम्) अन्तावयवम् (सधस्थम्) यत्सह तिष्ठति तत्कारणं सत्सङ्गृह्य (विचक्रमाणः) यथायोग्यं जगद्रचनाय कारणपादान् प्रक्षिपन् नियोजयन् (त्रेधा) त्रिःप्रकाराणि (उरुगायः) यो बहूनर्थान् वेदद्वारा गायत्युपदिशति सः (विष्णवे) व्यापनशीलाय यज्ञाय (त्वा) त्वाम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ५। ३। २१) व्याख्यातः॥१८॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैर्येन परमेश्वरेण पृथिवीसूर्यत्रसरेणुभेदेन त्रिविधं जगद्रचित्वा ध्रियते स एवोपासनीयः॥१८॥

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    विषयः

    औतथ्यो दीर्घतमाः। विष्णु:=ईश्वरः। स्वराडार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यः अनन्तपराक्रमः, विचक्रमाणः यथायोग्यं जगद्रचनाय कारणपादान् प्रक्षिपन्=नियोजयन् उरुगायः यो बहून् पदार्थान् वेदद्वारा गायत्युपदिशति सः, विष्णु:=जगदीश्वरः, पार्थिवानि पृथिव्या विकारा अन्तरिक्षे विदितानि वा रजांसि लोकान् त्रेधा त्रिप्रकाराणि विममे विविधतया मिमीते । यः सर्वाधारः उत्तरम् अन्तावयवं सधस्थं यत्सह तिष्ठति तत् कारणं तत् संगृह्य अस्कभायत्=प्रतिबध्नाति, यो विष्णवे= उपासनादियज्ञाय व्यापनशीलाय यज्ञाय आश्रीयते, यस्य विष्णोः व्यापकस्य परमेश्वरस्य वीर्याणि पराक्रमयुक्तानि कर्माणि विद्वांसो वदन्ति यं सर्वे संश्रयन्ते, [त्वा] त्वां कम्=सुखरूपं सुखस्वरूपं देवमहं प्रवोचं प्रकृष्टं कथयेयं नु= शीघ्रमाश्रये ॥ ५ । १८ ॥ [हे मनुष्या! यूयं यः........विष्णुः=जगदीश्वरः पार्थिवानि रजांसि त्रेधा विममे, य उत्तरं सधस्थमस्कभायत्=प्रतिबध्नाति...... [त्वा].......देवमहं प्रवोचं, नु=शीघ्रमाश्रये]

    पदार्थः

    (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (नु) शीघ्रम् (कम्) सुखस्वरूपम् (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (वोचम्) कथयेयम् (यः) अनन्तपराक्रमः (पार्थिवानि) पृथिव्या विकारा, अन्तरिक्षे विदितानि वा। अत्र तत्र विदित इति च॥ अ० ५। १। ४३॥ अनेनाञ्प्रत्यय: (विममे) विविधतया मिमीते (रजांसि) लोकान्, लोका रजांस्युच्यन्ते ॥ निरु० ४ ॥ १९॥ (यः) सर्वाधार: (अस्कभायत्) प्रतिबध्नाति (उत्तरम्) अन्तावयवम् (सधस्थम्) यत्सह तिष्ठति तत्कारणं सत्संगृह्म (विचक्रमाणः) यथायोग्यं जगद्रचनाय कारणपादान् प्रक्षिपन्=नियोजयन् (त्रेधा) त्रिप्रकाराणि (उरुगायः) यो बहूनर्थान्वेदद्वारा गायत्युपदिशति सः (विष्णवे) व्यापनशीलाय यज्ञाय (त्वा) त्वाम् ।।अयं मंत्रः शत० ३।५।३। २१ ॥ व्याख्यातः ।। १८ ।।

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैर्येन परमेश्वरेण पृथिवीसूर्यत्रसरेणुभेदेन त्रिविधं जगद्रचित्वा ध्रियते, स एवोपासनीयः ॥ ५ । १८ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    त्रेधा=पृथिवीसूर्यत्रसरेणुभेदेन त्रिविधं जगत्।।

    विशेषः

    औतथ्यो दीर्घतमाः। विष्णु:=ईश्वरः। स्वराडार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम (यः) जो (विचक्रमाणः) जगत् रचने के लिये कारण के अंशों को युक्त करता हुआ (उरुगायः) बहुत अर्थों को वेद द्वारा उपदेश करने वाला जगदीश्वर (पार्थिवानि) पृथिवी के विकार अर्थात् पृथिवी के गुणों से उत्पन्न होने वाले या अन्तरिक्ष में विदित (त्रेधा) तीन प्रकार के (रजांसि) लोकों को (विममे) अनेक प्रकार से रचता है, जो (उत्तरम्) पिछले अवयवों के (सधस्थम्) साथ रहने वाले कारण को (अस्कभायत्) रोक रखता है (यः) जो (विष्णवे) उपासनादि यज्ञ के लिये आश्रय किया जाता है, उस (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त कर्मों का (प्रवोचम्) कथन करूं और हे परमेश्वर! (नु) शीघ्र ही (कम्) सुखस्वरूप (त्वा) आपका आश्रय करता हूं॥१८॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को जिस परमेश्वर ने पृथिवी, सूर्य और त्रसरेणु आदि भेद से तीन प्रकार के जगत् को रचकर धारण किया है, उसी की उपासना करनी चाहिये॥१८॥

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    विषय

    विष्णु-स्तवन

    पदार्थ

    १. मैं ( विष्णोः ) = व्यापक परमात्मा के ( वीर्याणि ) = पराक्रमयुक्त कर्मों को ( नु कं ) = शीघ्र ही ( प्रवोचम् ) = प्रकर्षेण कहता हूँ। ( यः ) = जो विष्णु ( पार्थिवानि ) = [ अन्तरिक्षे विदितानि—द० ] अन्तरिक्ष में होनेवाले ( रजांसि ) = लोकों को ( विममे ) = विविधता से निर्माण करता है। प्रत्येक लोक में थोड़ा-थोड़ा भेद है। 

    २. ( यः ) = जो सर्वाधार प्रभु त्रिधा गति करते हुए ( उत्तरम् ) = इस उत्कृष्ट ( सधस्थम् ) = सब लोकों के [ सह ] एकत्र स्थित होने के स्थान इस अन्तरिक्ष को ( अस्कभायत् ) = थामे हुए हैं। ( विचक्रमाणः त्रेधा ) = वे प्रभु तीन प्रकार से गति कर रहे हैं। द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्षलोक में वायुरूप से और पृथिवीलोक में अग्निरूप से प्रभु की गति हो रही है। ( उरुगायः ) = आप विशाल गतिवाले हैं या सब पदार्थों का वेद द्वारा गायन उपदेश करनेवाले हैं। 

    ३. ( विष्णवे त्वा ) = सर्वत्र व्यापक तुझ प्रभु को पाने के लिए ही मैं प्रयत्नशील होता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — वे प्रभु अत्यन्त शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले हैं। सारे ब्रह्माण्ड को धारण करनेवाले हैं। उरुगाय हैं। मैं उन्हीं की शरण में जाता हूँ।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों को उपदेश।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( पार्थिवानि ) पृथिवी या अन्तरिक्ष में विदित, या पृथिवी के ( रजांसि ) समस्त लोकों को ( विममे ) नाना प्रकार से बनाता है और (य: ) जो ( उत्तरं सवस्थम् ) ऊपर के लोकों को या उत्कृष्ट कारण को भी ( अस्कभायत ) थाम रहा है, अपने वश में करता है । और जो ( विचक्रमाणः ) विविध रूप से क्रमण करता हुआ, सर्वत्र. कारण के अवयवों को विविध प्रकार से संयुक्त करता हुआ ( त्रेधा ) तीन. प्रकार से तीनों लोकों में, अग्नि, वायु, सूर्य इन तीन शक्तियों द्वारा सर्वत्र व्यापक होता हुआ, वह ( उरुगायः ) महान् व्यापक सबका स्तुत्य, या सबको वेद द्वारा समस्त पदार्थों का उपदेष्टा है। उस ( विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के ( नुकम् ) ही ( वीर्याणि च ) वीर्यों का नाना सामर्थ्यो का (प्रवोचम् ) उत्तम रीति से प्रवचन करूं,औरों को सिखाऊं और हे पुरुष ! उस ( विष्णवे) परमेश्वर की उपासना के लिये ( त्वा) तुझको. मैं उपदेश करता हूं ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिःऋषिः।औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता । स्वराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अब व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (यः) जो अनन्त पराक्रम वाला (विचक्रमाणः) यथायोग्य जगत् रचने के लिये कारण द्रव्यों को गति देने वाला (उरुगायः) वेद द्वारा नाना अर्थों का उपदेश करने वाला विष्णु जगदीश्वर है वह (पार्थिवानि) पृथिवी के विकारों को वा अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध (रजांसि) लोकों को (त्रेधा) तीन प्रकार से (विममे) निर्माण करता है। और-- (यः) जो सर्वाधार (उत्तरम्) अन्तिम अवयव(सधस्थम्) जो साथ रहने वाला कारण रूप है उसे ग्रहण करके (अस्कभायत्) जगत् को धारण करता है, और (विष्णवे) उपासनादि व्यापक यज्ञ के लिये जिसकी शरण में जाते हैं, जिस (विष्णो:) व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त कर्मों का विद्वान् लोग उपदेश करते हैं, जिसकी सब शरण लेते हैं[त्वा] उस (कम्) सुखस्वरूप देव का मैं (प्रवोचम्) उपदेश करूँ और (नु) शीघ्र प्राप्त करूँ ।।५ ।१८ ।।

    भावार्थ

    सब मनुष्य, जिस परमेश्वर ने पृथिवी, सूर्य और त्रसरेणु भेद से तीन प्रकार का जगत् रच के धारण किया है, उसकी ही उपासना करें ।। ५ । १८ ।।

    प्रमाणार्थ

    (पार्थिवानि) 'पार्थिव' शब्द 'तत्र विदित इति च (अ० ५।१।४३) इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। (रजांसि) निरु० ( ४ । १९ ) के अनुसार 'रजांसि' शब्द का अर्थ लोक है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।३।२१) में की गई है ॥ ५ । १८ ॥

    भाष्यसार

    विष्णु (व्यापक ईश्वर) के गुण--विष्णु अर्थात् ईश्वर अनन्त पराक्रम वाला, यथायोग्य जगत् की रचना के लिये कारण द्रव्यों को गति देने वाला, नाना पदार्थों का वेद के द्वारा उपदेश करने वाला है। जो अन्तरिक्ष में विद्यमान पृथिवी, सूर्य और त्रसरेणु भेद से तीन प्रकार के जगत् की रचना करता है। जो सर्वाधार जगदीश्वर सब स्थूल पदार्थों के सह-वर्तमान अन्तिम कारण रूप जगत् को धारण कर रहा है। उपासनादि यज्ञ का वही आश्रय है। विद्वान् लोग उसके पराक्रम-युक्त कर्मों का उपदेश करते हैं। सब उसी का सहारा लेते हैं। उस सुखस्वरूप देव का उपदेश करें, उसकी स्तुति करें और शीघ्र उसी का आश्रय लेवें ।।५।१८ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या परमेश्वराने पृथ्वी, सूर्य व त्रसरेणू इत्यादी तीन प्रकारचे जग निर्माण करून धारण केलेले आहे ते जाणून घेऊन माणसांनी त्याचीच उपासना केली पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात सर्वव्यापी ईश्‍वराच्या गुणांचे वर्णन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो (यः) जो परमेश्‍वर (विचक्रमाणः) सृष्टीच्या निर्माणकरिता कारणरूप असलेल्या अशांना (अणू परमाणू रूपाला) संयुक्त वा एकत्रित करतो, (उकगायः) जो वेदाद्वारे अनेक विद्य अर्थाचा उपदेश देतो आणि (आणि (पार्थिवानि) पृथ्वीच्या विकारापासून म्हणजे तिच्या गुणांपासून उत्पन्न होणार्‍या किंवा अंतरिक्षात विद्यमान (त्रेधा) तीन प्रकारच्या (रजांसि) लोकांची (त्र्यसरेणु) (विममे) अनेक प्रकारे रचना करतो, तोच जगदीश्‍वर (उत्तम) मागील अवयवांच्या (उपादान रूप प्रकृतीच्या अणू आदींच्या कारणरूप अंशांना) (अस्कभायत्) नियंत्रित वा बंधनात ठेवतो (त्यामुळे सृष्टीची उत्पत्ती होत नाही) (या) ज्याचा आश्रय (विष्णवे) उपसमारूप यज्ञाच्या वेळी घेतला जातो (जो एकमेव उपास्थदेव आहे) त्या (विष्णोः) व्यापक परमेश्‍वराच्या (वीर्याणि) पराक्रम व अद्वितीय सामर्थ्याने परिपूर्ण अशा कर्मांची (प्रवोचम) मी स्तुती व उपासना करतो. हे परमेश्‍वरा, मी शीघ्रमेव (कम्) सुखस्वरूप अशा (त्वा) तुमच्या आश्रयास येतो. ॥18॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्या परमेश्‍वराने पृथ्वी, सूर्य आदीची रचना केली आहे व त्रसरेणु आदी भेदाने तीन प्रकारच्या जगाची उत्पत्ती केली आहे. मनुष्यांनी केवळ त्याच जगदीश्‍वराची उपासना करणे उचित आहे ॥18॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man and woman, having acquired knowledge from the learned, proclaim amongst the wise the fact of your intention of entering the married life. Attain to fame, observing the noble virtue of non-violence, and uplift your soul. Shun crookedness. Converse together happily. Living in a peaceful home, spoil not your life, spoil not your progeny. In this world, pass your life happily, on this wide earth full of enjoyment.

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    Meaning

    Let us celebrate the wonderful exploits of Vishnu who makes the threefold order of the heaven, the earth and the sky with the original materials of nature. Immanent with the later forms of the dynamic universe which He made and makes, He sustains the world. Celebrated in the hymns of the Veda, Lord, we worship you for the sake of the universal yajna of creation and pray for inspiration to perform yajna in our life.

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    Translation

    Now, I shall tell the valorous deeds of the sun-divine, who measures out the regions of the earth. (1) And who has propped up the higher abode, moving in three wide steps. You to the sun-divine. (2)

    Notes

    Visnoh, of the sun. Vimame, has measured. Uttaram sadhastham, the higher abode. Urugayah, उरु: गाय: गमनम् यस्य स:, опе who moves in wide strides. Also उरुभि: माहात्मभि: गीयते य- स:, one who is praised by good persons.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ ব্যাপকেশ্বরগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
    এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে ব্যাপক ঈশ্বরের গুণের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যে (বিচক্রমানঃ) জগৎরচনা করিবার জন্য কারণের অংশকে যুক্ত করিয়া (উরুগায়ঃ) বহু অর্থকে বেদ দ্বারা উপদেশকারী জগদীশ্বর (পার্থিবানি) পৃথিবীর বিকার অর্থাৎ পৃথিবীর গুণ হইতে উৎপন্ন বা অন্তরিক্ষে বিদিত (ত্রেধা) তিন প্রকারের (রজাংসি) লোকসমূহকে (বিমমে) অনেক প্রকারে রচনা কর, যে (উত্তরম্) গত অবয়ব সকলের (সধস্থম্) সঙ্গে থাকিবার কারণকে (অস্কভায়ৎ) থামাইয়া রাখ, (য়ঃ) যাহাকে (বিষ্ণবে) উপাসনাদি যজ্ঞ হেতু আশ্রয় করা হয় সেই (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক পরমেশ্বরের (বীর্য়াণি) পরাক্রমযুক্ত কর্মের (প্রবোচম্) কথন করি এবং হে পরমেশ্বর! (নু) শীঘ্রই (বাম্) সুখস্বরূপ (ত্বা) আপনার আশ্রয় করি ॥ ১৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–সকল মনুষ্যকে যে পরমেশ্বর পৃথিবী সূর্য্য ও ত্রসরেণু ইত্যাদি ভেদে তিন প্রকারের জগৎ রচনা করিয়া ধারণ করিয়া আছেন তাঁহারই উপাসনা করা উচিত ॥ ১৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিষ্ণো॒র্নু কং॑ বী॒র্য়া᳖ণি॒ প্র বো॑চং॒ য়ঃ পার্থি॑বানি বিম॒মে রজা॑ᳬंসি । য়োऽঅস্ক॑ভায়॒দুত্ত॑রꣳ স॒ধস্থং॑ বিচক্রমা॒ণস্ত্রে॒ধোরু॑গা॒য়ো বিষ্ণ॑বে ত্বা ॥ ১৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিষ্ণোর্নু কমিত্যস্যৌতথ্যো দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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