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यजुर्वेद अध्याय - 5

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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    138

    अ॒ग्नाव॒ग्निश्च॑रति॒ प्रवि॑ष्ट॒ऽऋषी॑णां पु॒त्रोऽअ॑भिशस्ति॒पावा॑। स नः॑ स्यो॒नः सु॒यजा॑ यजे॒ह दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यꣳ सद॒मप्र॑युच्छ॒न्त्स्वाहा॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नौ। अ॒ग्निः। च॒र॒ति॒। प्रविष्ट॑ इति॒ प्रऽवि॒ष्टः। ऋषी॑णाम्। पु॒त्रः। अ॒भि॒श॒स्ति॒पावेत्य॑भिशस्ति॒ऽपावा॑। सः। नः॒। स्यो॒नः। सु॒यजेति॑ सु॒ऽयजा॑। य॒ज॒। इ॒ह। दे॒वेभ्यः॑। ह॒व्यम्। सद॑म्। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। स्वाहा॑ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणाम्पुत्रोऽअभिशस्तिपावा । स नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हव्यँ सदमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नौ। अग्निः। चरति। प्रविष्ट इति प्रऽविष्टः। ऋषीणाम्। पुत्रः। अभिशस्तिपावेत्यभिशस्तिऽपावा। सः। नः। स्योनः। सुयजेति सुऽयजा। यज। इह। देवेभ्यः। हव्यम्। सदम्। अप्रयुच्छन्नित्यप्रऽयुच्छन्। स्वाहा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अत्र महीधरेण विराडित्यशुद्धं व्याख्यातम्॥ विद्युद्विद्वदग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    योऽभिशस्तपावाऽग्नौ प्रविष्टं ऋषीणां पुत्रः स्योनः सुयजा अग्निर्विद्वानप्रयुच्छंश्चरति योऽस्मभ्यमिह देवेभ्यो हव्यं सदं स्वाहा सुहुतं हविरन्नादिकं प्रयच्छति प्रापयति तं वयं सङ्गच्छेमहि॥४॥

    पदार्थः

    (अग्नौ) विद्युति (अग्निः) विद्वान् मनुष्यः (चरति) गच्छति (प्रविष्टः) प्रवेशं कुर्वाणः सन् (ऋषीणाम्) वेदार्थविदाम् (पुत्रः) सुशिक्षितोऽध्यापितः (अभिशस्तिपावा) योऽभिशस्तेराभिमुख्याद्धिंसनात् पाति रक्षति (सः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (स्योनः) सुखकारी (सुयजा) सुष्ठु यजन्ति यस्मिन् यज्ञे तेन (यज) सङ्गमयतु (इह) जगति (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (हव्यम्) दातुं ग्रहीतुं योग्यं पदार्थम् (सदम्) सद्यते विज्ञायते प्राप्यते यस्तम् (अप्रयुच्छम्) अप्रविवासयन् (स्वाहा) सुहुतं हविरन्नम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ४। १। २५) व्याख्यातः॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरिह योऽग्निः किल कार्य्यकारणभेदेन द्विधास्ति, तत्र कार्य्यरूपेण सूर्य्यादावग्नौ कारणरूपा विद्युत् सर्वभूतद्रव्येषु प्रविष्टा सती वर्त्तते, तस्यां च विज्ञानेन प्रविश्यैते सम्यक् संप्रयोज्य कार्य्योपयोगः कर्त्तव्यः॥४॥

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    विषयः

    विद्युद्विद्वदग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते।।

    सपदार्थान्वयः

    योऽभिशस्तिपावा योऽभिशस्तेराभिमुख्याद्धिंसमानात् पाति=रक्षति अग्नौ विद्युतिप्रविष्टः प्रवेशं कुर्वाणः सन् ऋषीणां वेदार्थं विदां पुत्रः सुशिक्षितोऽध्यापितः स्योनः सुखकारी सुयजा सुष्ठु यजन्ति यस्मिन् यज्ञे तेन [सः] अग्निः=विद्वान्, विद्वान् मनुष्यःअप्रयुच्छन् अप्रविवासयन् चरति गच्छति, यो [नः] अस्मभ्यमिह जगति देवेभ्यः विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा हव्यं दातुं ग्रहीतुं योग्यं पदार्थंसदं सद्यते=विज्ञायते प्राप्यते यस्तं स्वाहा=सुहुतं हविरन्नादिकं प्रयच्छति प्रापयति तं वयं संगच्छेमहि ॥ ५ । ४ ॥ [योऽभिशस्तिपावाऽग्नौप्रविष्टः.......अग्निः]

    पदार्थः

    (अग्नौ) विद्युति (अग्निः) विद्वान्मनुष्यः (चरति) गच्छति (प्रविष्टः) प्रवेशं कुर्वाणः सन् (ऋषीणाम्) वेदार्थविदाम् (पुत्रः) सुशिक्षितोऽध्यापितः (अभिशस्तिपावा) योऽभिशस्तेराभिमुख्याद्धिंसमानात्पाति=रक्षति (स:) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (स्योनः) सुखकारी (सुयजा) सुष्ठु यजन्ति यस्मिन् यज्ञे तेन (यज) सङ्गमयतु (इह) जगति (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (हव्यम्) दातुं ग्रहीतुं योग्यं पदार्थम् (सदम्) सद्यते=विज्ञायते प्राप्यते यस्तम् (अप्रयुच्छन्) अप्रविवासयन् (स्वाहा) सुहृतं हविरन्नम्॥ अयं मंत्रः शत० ३। ४। १। २५ व्याख्यातः ॥ ४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरिह योऽग्निः किल कार्यकारणभेदेन द्विधाऽस्ति, तत्र कार्यरूपेण सूर्यादावग्नौ कारणरूपा विद्युत् सर्वभूतद्रव्येषु प्रविष्टा सती वर्तते, तस्यां च विज्ञानेन प्रविश्यैते सम्यक् संप्रयोज्य कार्योपयोगः कर्त्तव्यः ।। ५ । ४ ।।

    विशेषः

    गोतमः। अग्निः= विद्युत् विद्वांश्च। आर्षीत्रिष्टुप्। धैवतः ॥ अत्र महीधरेण विराडित्यशुद्धं व्याख्यातम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्युत् और विद्वान् अग्नि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो (अभिशस्तिपावा) सब प्रकार हिंसा करने वालों से रहित (अग्नौ) विद्युत् अग्नि की विद्या में (प्रविष्टः) प्रवेश करने-कराने (ऋषीणाम्) वेदादि शास्त्रों के शब्द अर्थ और सम्बन्धों को यथावत् जनाने वालों का (पुत्रः) पढ़ा हुआ (स्योनः) सर्वथा सुखकारी (सुयजा) विद्याओं को अच्छी प्रकार प्रत्यक्ष संग कराने हारा (अग्निः) प्रकाशात्मा (अप्रयुच्छन्) प्रमाद रहित अध्यापक विद्वान् (चरति) जो (नः) हम लोगों के लिये (इह) इस संसार में (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्य गुणों से (हव्यम्) लेने-देने योग्य पदार्थ वा (सदम्) ज्ञान और (स्वाहा) हवन करने योग्य उत्तम अन्नादि को प्राप्त करता है (सः) सो आप (यज) सब विद्याओं को प्राप्त कराइये॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो अग्नि कार्य्य-कारण के भेद से दो प्रकार का निश्चित अर्थात् जो कार्य्यरूप से सूर्यादि और कारण रूप से अग्नि सब मूर्त्तिमान् द्रव्यों में प्रवेश कर रहा है, उसका इस संसार में विद्या से संप्रयोग कर कार्यों में उपयोग करना चाहिये॥४॥

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    विषय

    अग्नि - प्रवेश

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में ‘नः भवतम्’ शब्दों में ‘प्रभु का बनने’ का उल्लेख था। यह प्रभु का बननेवाला व्यक्ति १. ( अग्नौ प्रविष्टः ) = उस अग्रेणी प्रकाशमय प्रभु में प्रविष्ट हुआ-हुआ ( अग्निः ) = स्वयं भी अग्नि-सा बना हुआ ( चरति ) = अपनी क्रियाओं को करता है। प्रभु ‘अग्नि’ हैं। यह भक्त भी प्रभु में प्रविष्ठ होकर अग्नि ही बन जाता है। अग्नि बनकर यह अपने कर्त्तव्य कर्मों को करता चलता है। 

    २. यह तो अब ( ऋषीणां पुत्रः ) = [ ऋषिर्वेदः ] वेदों का पुत्र होता है। वेदमन्त्रों में दिये गये ज्ञान से अपने को पवित्र करता है [ पुनाति ] और रोगों व वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाता है [ त्रायते ]। 

    ३. ( अभिशस्तिपावा ) = यह सब प्रकार की हिंसाओं से अपने को सुरक्षित रखता है। अहिंसा ही यम-नियमों में सर्वप्रथम है, सब यम-नियमों का यह केन्द्र है। 

    ४. प्रभु कहते हैं कि ( सः नः ) = वह तू हमारा बना हुआ, प्रकृति के भोगों में न फँसकर प्रभुप्रवण बना हुआ ( स्योनः ) = सबको सुख देनेवाला ( सुयजाः ) = उत्तम यज्ञोंवाला ( इह ) = इस जीवन में ( यज ) = यज्ञशील बन। तुझमें ‘देवपूजा, सङ्गतीकरण व दान’ की वृत्ति हो। 

    ५. ( देवेभ्यः ) = देवों के लिए ( सदम् ) = सदा ( अप्रयुच्छन् ) = किसी प्रकार का प्रमाद न करता हुआ ( हव्यं स्वाहा ) = सुहुत हवि को देनेवाला हो। गीता के शब्दों में तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः— देवताओं से प्राप्त इन सब भोग्य पदार्थों को देवों के लिए न देकर स्वयं ही खा जानेवाला चोर है, अतः नैत्यिक अग्निहोत्र के द्वारा ‘देवयज्ञ’ करके ही खाना उचित है।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभुभक्त अग्निरूप प्रभु में प्रवेश करके अग्नि-सा ही बन जाता है—‘शुद्ध’। अब इसकी सब क्रियाएँ पवित्र यज्ञात्मक होती हैं।

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    विषय

    अग्नि के दृटान्त से राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जो ( अभिशस्ति-पावा ) चारों तरफ से होनेवाला, घातक विपत्ति से बचानेवाला ( ऋषीणाम् पुत्रः ) वेदार्थका ऋषियों का पुत्र या शिष्य होकर (अग्नौ ) अग्नि में जिस प्रकार (अग्निः ) अग्नि (प्रविष्टः ) प्रविष्ट होकर और अधिक प्रदीप्त हो, उसी प्रकार ( अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी, तपस्वी और ज्ञानी होकर ( अग्नौ ) ज्ञान और तेज से सम्पन्न गुरु के अधीन उसके चित्त में ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट होकर ( चरति ) व्रत का आचरण करता है या अपने जीवन सुखों का या अन्न आदि का भोग करता है और ( देवेभ्यः ) देवों, विद्वानों के लिये ( हव्यम् ) अन्न और ( सदम् ) निवासस्थान ( स्वाहा ) उत्तम वचन, मधुरवाणी सहित आदरपूर्वक ( अप्रयुच्छन् ) प्रदान करने में कभी आलस्य न करता हुआ ( चरति ) जीवन पालन करता है। हे मनुष्य ! तू ( सः ) वह (स्योनः ) सर्व सुखकारी ( सुयजा ) उत्तम यज्ञ दान कर्म से ( इह ) इस लोक में ( यज ) यज्ञ कर, दान पुण्य के कार्य कर ।
     राजा सबका रक्षक विद्वानों का पुत्र होकर मानो अग्नि में अग्नि के समान प्रविष्ट होकर खूब तेजस्वी होकर विचरता है । वह प्रमाद रहित होकर उत्तम रीति से दान करे। अपने अधिकारी देव पुरुषों को उनका वेतन आदि देने में भी और विद्वानों को अन्न वस्त्र देने में आलस्य न करे ॥ शत० ३ | ४ | १ । २ । ५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः।अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप्।धैवतः॥

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    विषय

    विद्युत् और विद्वान् अग्नि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    जो (अभिशस्तिपावा) सब ओर से हिंसा करने वालों से रक्षा करने वाला (अग्नौ) विज्ञान से बिजुली में (प्रविष्टः) प्रवेश करने वाला (ऋषिणाम्) वेद के विद्वानों से (पुत्रः) पढ़ाया हुआ (स्योनः) सुखदायक है, वह (सुयजा) श्रेष्ठ यज्ञ से (अग्निः) विद्वान् मनुष्य (अप्रयुच्छन्) प्रमाद रहित होकर (चरति) विचरण करता है, और जो हमारे लिए (इह) इस जगत् में ( देवेभ्यः) विद्वानों का दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (हव्यम्) देने और लेने योग्य पदार्थ तथा (सदस्) जानने तथा प्राप्त करने योग्य पदार्थ की (स्वाहा) एवं श्रेष्ठ अन्नादि की हवि प्रदान करता है, उस विद्वान् से हम मेल करें ।। ५ । ४ ॥

    भावार्थ

    इस संसार में जो अग्नि कार्यकारण भेद से दो प्रकार की है, कार्यरूप सूर्य आदि में तथा कारण रूप विद्युत् सब भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट है, उस विद्युत् में विज्ञान के द्वारा प्रविष्ट होकर और इन दोनों अग्नियों का ठीक-ठीक प्रयोग करके सब मनुष्य इनका कार्यों में उपयोग करें ॥ ५ । ४॥

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ ।४ ।१ ।२५) में की गई है ॥ ५ । ४ ॥

    भाष्यसार

    १. अग्नि (विद्युत्) कैसा है--अग्नि कार्य और कारण भेद से दो प्रकार का है। कार्य रूप अग्नि सूर्य आदि में हैं तथा कारण रूप अग्नि अर्थात् विद्युत् सब भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट है जो दुःखों से रक्षा करता है। जिसमें विज्ञान के द्वारा प्रविष्ट होकर विद्वान् पुरुष प्रमाद रहित होकर गति को प्राप्त करते हैं। यह विद्वानों के लिये देने-लेने योग्य पदार्थों को, विज्ञान को और अन्न आदि को प्राप्त कराता है। २. अग्नि (विद्वान्) कैसा हो--अग्नि अर्थात् विद्वान् पुरुष विद्युत् में विज्ञान के द्वारा प्रविष्ट होकर उसका सदुपयोग करता है। उससे कष्टों का निवारण करता है। उक्त विद्वान् वेदार्थ के ज्ञाता ऋषियों का सुशिक्षित, सुखकारी पुत्र होता है। जो उत्तम यज्ञ के द्वारा प्रमादरहित होकर विचरण करता है तथा सब मनुष्यों के लिए देवों के प्रिय पदार्थ एवं विज्ञान को तथा अन्न आदि को प्राप्त कराता है। अतः सब मनुष्य ऐसे विद्वान् पुरुषों का संग करें। ३. समीक्षा--यहाँ महीधर ने लिखा है कि 'दशाक्षरैश्चतुर्भिः पादैर्विराट्' अर्थात् दश अक्षर वाले चार चरणों से विराट् छन्द है। महीधर का अपने शब्दों में लिखा छन्द-लक्षण मन्त्र में नहीं घटता। मन्त्र में प्रत्येक चरण में दश अक्षर नहीं हैं। किन्तु प्रथम चरण में १०, दूसरे में ११, तीसरे में १० और चौथे में १३ अक्षर हैं। इस प्रकार सब मिलाकर ४४ अक्षर होते हैं। अतः यह ४४ अक्षर का आर्षी त्रिष्टुप् छन्द है; विराट् नहीं। महीधर छन्दोज्ञान से भी शून्य हैं ॥ ५ । ४ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो अग्नी कार्य व कारणरूपाने दोन प्रकारचा असतो. एक तर कार्यरूपाने सूर्यात व दुसरा कारणरूपाने प्रत्यक्ष द्रव्यात विद्युतरूपाने प्रविष्ट झालेला असतो. त्यासंबंधीची विद्या जाणून माणसांनी त्याचा कार्यात उपयोग करून घेतला पाहिजे.

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    विषय

    विद्युत, विद्वान आणि अग्नी यांचे स्वरूप कसे आहे, हा विषय पुढील मंत्रात सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - जो अध्यापक विद्वान (अभिशस्ति पावा) सर्व प्रकारच्या हिंसा वा पीडापासून दूर आहे (जो निर्भय आहे ज्याला कोणी पीडा देऊ शकत नाही किंवा जो कोणाला पीडा देत नाही) तसेच जो (अग्नौ) विद्युत रूप अग्नी विद्येत (प्रविष्टः) प्रवीण आहे वा अग्नीविद्या सांगणारी वैज्ञानिक आहे, जो (ऋपीणाम्) वेदादि शास्त्रांच्या शब्दार्थांना यथावत जाणणार्‍या विद्वानां कडून (पुत्रः) ज्ञान प्राप्त केलेला शिष्य वा विद्यार्थी आहे (स्थोनः) सर्वथा सुखकारी असून (सुयजा) विद्या सत्य ज्ञानाच्या संगतीमुळे साक्षात अनुभवी झालेला आहे (अग्नीः) असा उज्वल आत्म्याचा (अप्रयुच्छन्) अप्रमादी अध्यापक विद्वान असलेला तसेच (चरति) आचरण करणारा (नः) आम्हांला (इह) या संसारात (देवेभ्यंः) विद्या व दिव्यगुणांनी संपन्न करतो वा करो. (हव्यम्) दान आणि ग्रहण करण्यास योग्य असे जे (सदम्) ज्ञान आहे आणि (स्वाहा) हवन करण्यासाठी योग्य उत्तम अन्न आदी सामग्रीचा जो दान करतो (सः) अशा त्या विद्वानांने आम्हांस (यज) सर्व विद्यांची प्राप्ती करवावी (आम्हांस यज्ञविधी, वेद विद्या शिकवावी)

    भावार्थ

    भावार्थ - अग्नी कार्य आणि कारणरूपाने दोन प्रकारचा आहे. कार्यरूपाने सूर्य आदीमधे आणि कारणरूपाने तो विद्युत मधे असून सर्व मूर्त अमूर्त द्रव्यामधे त्याचा प्रवेश आहे. याकरिता संसारामधे विद्या आणि तंत्र रीतीद्वारे त्याचा वापर कार्यामधे करून त्यापासून लाभ घ्यावेत, मनुष्यासाठी हे उचितकर्म आहे ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The learned disciple of the experts in vedic lore, the protector against violence, the master of the science of electricity, the giver of pleasure, the expositor of the different branches of knowledge, and the enemy of indolence, enjoys life happily. He, endowed with noble qualities, grants us in this world knowledge and provisions for performing Havan. Let us go to such a man.

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    Meaning

    Agni (fire) present in Agni (electricity) is universally active and operative. Deeply involved in the study of Agni, child of the rishis of scholarship, one with his subject, graceful, enlightened, serious and dedicated, the teacher and researcher roams around with his love. May he, for us here, carry on the yajna of his project with the libations of his special materials and create new knowledge and food for further yajna.

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    Translation

    The adorable Lord enters the fire and moves. He is the progeny of seers, and is protector from curses. May He, the bliss incarnate, fond of sacrifices, carry our oblations to Nature's bounties always alert and attentive. Svaha. (1)

    Notes

    Abhisastipava, protector from curses. Sadam, सदा, always.

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    बंगाली (1)

    विषय

    বিদ্যুদ্বিদ্বদগ্নী কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    বিদ্যুৎ ও বিদ্বান্ অগ্নি কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–যিনি (অভিশস্তিপাবা) সর্ব প্রকার হিংসাকারী দিগের হইতে রহিত (অগ্নৌ) বিদ্যুতাগ্নির বিদ্যায় (প্রবিষ্টঃ) প্রবেশ করিতে করাইতে (ঋষীণাম্) বেদাদি শাস্ত্রের শব্দ, অর্থ ও সম্বন্ধকে যথাবৎ জ্ঞাতকারীদিগের (পুত্রঃ) পঠিত (স্যোনঃ) সর্বথা সুখকারী (সুয়জা) বিদ্যাগুলির সম্যক্ প্রকার প্রত্যক্ষ সঙ্গকারী (অগ্নিঃ) প্রকাশাত্মা (অপ্রয়ুচ্ছন্) প্রমাদরহিত অধ্যাপক বিদ্বান্ (চরতি) যিনি (নঃ) আমাদিগের জন্য (ইহ) এই সংসারে (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্ বা দিব্যগুণ দ্বারা (হব্যম্) আদান-প্রদানের যোগ্য পদার্থ অথবা (সদম্) জ্ঞান ও (স্বাহা) হবন করিবার যোগ্য উত্তম অন্নাদিকে প্রাপ্ত করেন (সঃ) সুতরাং আপনি (য়জ) সকল বিদ্যাকে প্রাপ্ত করান ॥ ৪ ॥

    भावार्थ


    অত্র মহীধরেণ বিরাডিত্যশুদ্ধং ব্যাখ্যাতম্ ॥
    নিশ্চিত অর্থাৎ যাহা কার্য্যরূপে সূর্য্যাদি এবং কারণ রূপে বিদ্যুতাগ্নি সকল মূর্ত্তিমান
    দ্রব্যে প্রবিষ্ট হইতেছে তাহা এই সংসারে বিদ্যা দ্বারা সংপ্রযুক্ত করিয়া কার্য্যে ব্যবহার করা উচিত ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নাব॒গ্নিশ্চ॑রতি॒ প্রবি॑ষ্ট॒ऽঋষী॑ণাং পু॒ত্রোऽঅ॑ভিশস্তি॒পাবা॑ । স নঃ॑ স্যো॒নঃ সু॒য়জা॑ য়জে॒হ দে॒বেভ্যো॑ হ॒ব্যꣳ সদ॒মপ্র॑য়ুচ্ছ॒ন্ৎস্বাহা॑ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নাবগ্নিরিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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