अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - रुद्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
रुद्र॒ जला॑षभेषज॒ नील॑शिखण्ड॒ कर्म॑कृत्। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठरुद्र॑ । जला॑षऽभेषज । नील॑ऽशिखण्ड । कर्म॑ऽकृत् । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्र जलाषभेषज नीलशिखण्ड कर्मकृत्। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्र । जलाषऽभेषज । नीलऽशिखण्ड । कर्मऽकृत् । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
विषय - ओषधि के दृष्टान्त से चितिशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ -
हे (रुद्र) रुद्र ! ब्रह्म का उपदेश करने हारे आचार्य ! शब्द-ब्रह्मरूप से सबके हृदयाकाश में व्यापक ! या सबको अन्तकाल में रुलाने हारे ! या सब पर करुणा से दया करने हारे ! या रुत् नाम संसार-दुःख को विनाश करने हारे ! हे (जलाषभेषज) सुखस्वरूप सबके चिकित्सक ! भवरोगनिवारक ! हे (नीलशिखण्ड) मनोहर कान्तिमय ! हे (कर्मकृत्) सकल कर्म के कर्त्ता परमात्मन् ! और हे (ओषधे) समस्त भवरोग के नाशक ! परम चरम उपायभूत ! (प्राशं प्रतिप्राशः) शरीर में शक्ति रूप से व्यापक आत्मा की शक्तियों के विनाशक (अरसान्) आनन्द रस से शून्य, संतापजनक विषयों को (जहि) विनाश कर और उनको (अरसान् कृणु) नीरस, निर्बल बना दे।
टिप्पणी -
(तृ० च०) ‘पृष्टं दुरस्यतो जहि योऽस्मान् अभिदासति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कपिञ्जल ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-४ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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