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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त

    अ॑न॒ड्वानिन्द्रः॒ स प॒शुभ्यो॒ वि च॑ष्टे त्र॒यां छ॒क्रो वि मि॑मीते॒ अध्व॑नः। भू॒तं भ॑वि॒ष्यद्भुव॑ना॒ दुहा॑नः॒ सर्वा॑ दे॒वानां॑ चरति व्र॒तानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒ड्वान् । इन्द्र॑: । स: । प॒शुऽभ्य॑: । वि । च॒ष्टे॒ । त्र॒यान् । श॒क्र: । वि । मि॒मी॒ते॒ । अध्व॑न: । भू॒तम् । भ॒वि॒ष्यत् । भुव॑ना । दुहा॑न: । सर्वा॑ । दे॒वाना॑म् । च॒र॒ति॒ । व्र॒तानि॑ ॥११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनड्वानिन्द्रः स पशुभ्यो वि चष्टे त्रयां छक्रो वि मिमीते अध्वनः। भूतं भविष्यद्भुवना दुहानः सर्वा देवानां चरति व्रतानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनड्वान् । इन्द्र: । स: । पशुऽभ्य: । वि । चष्टे । त्रयान् । शक्र: । वि । मिमीते । अध्वन: । भूतम् । भविष्यत् । भुवना । दुहान: । सर्वा । देवानाम् । चरति । व्रतानि ॥११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    पूर्वोक्त ‘अनड्वान्’ को इन्द्र रूप से वर्णन करते हैं। वह (अनड्वान्) विश्व के धारण करने हारा (इन्द्रः) सकल ऐश्वर्यसम्पन्न होकर सूर्यवत् स्वयंप्रकाश होकर (पशुभ्यः) समस्त जीवों के हित के लिये (विचष्टे) प्रकाशित होता है। वही (शक्रः) सर्व शक्तिमान् होकर (त्रयान् अध्वनः) तीनों लोकों को अविच्छिन्न रूप से जीवों के कर्मफल भोगने के सात्विक, तामस और राजस मार्गों को (वि मिमीते) निर्माण करता है। और वही (भूतं) भूत-काल और (भविष्यत्) भविष्यत् काल में उत्पन्न होने वाले (भुवना) समस्त लोकों को (दुहानः) पूर्ण करता हुआ (देवानां) सूर्यादि देवों के (सर्वा व्रतानि) समस्त कार्यों को (घरति) स्वयं ही सम्पादित कर रहा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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