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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त

    मध्य॑मे॒तद॑न॒डुहो॒ यत्रै॒ष वह॒ आहि॑तः। ए॒ताव॑दस्य प्रा॒चीनं॒ यावा॑न्प्र॒त्यङ्स॒माहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मध्य॑म् । ए॒तत् । अ॒न॒डुह॑: । यत्र॑ । ए॒ष: । वह॑: । आऽहि॑त: । ए॒ताव॑त् । अ॒स्य॒ । प्रा॒चीन॑म् । यावा॑न् । प्र॒त्यङ् । स॒म्ऽआहि॑त: ॥११.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मध्यमेतदनडुहो यत्रैष वह आहितः। एतावदस्य प्राचीनं यावान्प्रत्यङ्समाहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मध्यम् । एतत् । अनडुह: । यत्र । एष: । वह: । आऽहित: । एतावत् । अस्य । प्राचीनम् । यावान् । प्रत्यङ् । सम्ऽआहित: ॥११.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    समस्त विश्व को धारण करने हारे (अनुडुहः) अनडुह रूप प्रभु का (एतत्) यह (मध्यम्) मध्य भाग है (यत्र) जहां (एषः) यह (वहः) ‘वह’ रूपः विश्वभार (आहितः) स्थापित है। (एतावत्) इतना ही (अस्य) इसका (प्राचीनम्) अगला भाग है (यावान्) जितना (प्रत्य) कि पिछला भाग (समाहितः) है। अर्थात् जिस प्रकार बैल की पीठ पर भार रक्खा जाता है तब पीठ का जितना अगला भाग है उतना ही पीठ का पिछला भाग भी है उसी प्रकार इस विश्व का भार परमात्मा के वहन करने हारी शक्ति पर है। उसका अगला विश्व की उत्पत्ति शक्ति का जितना भाग है उतना ही उसकी संहारशक्ति का भाग भी है। जितना उसका भूत हे उतना भविष्यत् भी है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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