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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    स नः॒ सिन्धु॑मिव ना॒वाति॑ पर्षा स्व॒स्तये॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स:। न॒: । सिन्धु॑म्ऽइव । ना॒वा । अति॑ । प॒र्ष॒ । स्व॒स्तये॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नः सिन्धुमिव नावाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स:। न: । सिन्धुम्ऽइव । नावा । अति । पर्ष । स्वस्तये । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (स) वह परम पवित्र आप (नावा) नाव अर्थात् जहाज़ से (सिन्धुम् इव) समुद्र के समान (नः) हमें हमारे (स्वस्तये) सुख, परम आनन्दमय कल्याण के लिये (अति पर्ष) इस भवसागर से पार करो और (नः अघम् अप शोशुचद्) हमारे पापों को हम से दूर करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। पापनाशनोऽग्निर्देवता। १-८ गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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