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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त

    प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिः प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्या वस्तो॑र॒स्या वृ॑ज्यते॒ अग्रे॒ अह्ना॑म्। व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑यो दे॒वेभ्यो॒ अदि॑तये स्यो॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒चीन॑म् । ब॒र्हि: । प्र॒ऽदिशा॑ । पृ॒थि॒व्या: । वस्तो॑: । अ॒स्या: । वृ॒ज्य॒ते॒ । अग्रे॑ । अह्ना॑म् । वि ।ऊं॒ इति॑ । प्र॒थ॒ते॒ । वि॒ऽत॒रम् । वरी॑य: । दे॒वेभ्य॑: । अदि॑तये । स्यो॒नम् ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्नाम्। व्यु प्रथते वितरं वरीयो देवेभ्यो अदितये स्योनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राचीनम् । बर्हि: । प्रऽदिशा । पृथिव्या: । वस्तो: । अस्या: । वृज्यते । अग्रे । अह्नाम् । वि ।ऊं इति । प्रथते । विऽतरम् । वरीय: । देवेभ्य: । अदितये । स्योनम् ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    विद्वान् लोग यज्ञ में वेदि के पूर्व की ओर कुशा बिछाते हैं कि उन पर देवगण अर्थात् विद्वद्गण आकर बैठें। वह कुशा ‘बर्हि’ है, वह आदित्य का प्रतिनिधि है। विशाल विराड् देह में उसका वर्णन करते हैं। (अह्नाम्) दिनों के (अग्रे) पूर्व भाग, प्रातः समय में (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी को (प्र-दिशा) प्रकृष्ट तेज से (वस्तोः) आच्छादन करने के लिये (प्राचीनं बर्हिः) प्राची दिशा में महान् आदित्य (आ वृज्यते) उसी प्रकार आ विराजता है जिस प्रकार यज्ञ में वेदि के पूर्व भाग में कुशा बिछाई जाती है। वह आदित्य (वरीयः) अति श्रेष्ठ, अति महानू (वितरं) अत्यन्त विस्तृत होकर (विप्रथते उ) नाना दिशाओं में और नाना प्रकार से रश्मियों के प्रकाश द्वारा फैल जाता है। और वह (अदितये) इस देव माता,अखण्डित, अदीन अदिति पृथिवी के लिये और (देवेभ्यः) चन्द्र, वायु, जल, विद्युत् आदि दिव्य पदार्थों और विद्वानों के लिये भी (स्योनं) सुखकारी, शान्तिदायक होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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