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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    रि॑श्यस्येव परीशा॒सं प॑रि॒कृत्य॒ परि॑ त्व॒चः। कृ॒त्यां कृ॑त्या॒कृते॑ देवा नि॒ष्कमि॑व॒ प्रति॑ मुञ्चत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रिश्य॑स्यऽइव । प॒रि॒ऽशा॒सनम् । प॒रि॒ऽकृत्य॑ । परि॑ । त्व॒च: । कृ॒त्याम् । कृ॒त्या॒ऽकृते॑ । दे॒वा॒: । नि॒ष्कम्ऽइ॑व । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒त॒ ॥१४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रिश्यस्येव परीशासं परिकृत्य परि त्वचः। कृत्यां कृत्याकृते देवा निष्कमिव प्रति मुञ्चत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रिश्यस्यऽइव । परिऽशासनम् । परिऽकृत्य । परि । त्वच: । कृत्याम् । कृत्याऽकृते । देवा: । निष्कम्ऽइव । प्रति । मुञ्चत ॥१४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (रिश्यस्य) जिस प्रकार हिंसक जन्तु के (त्वचः परि) त्वचा के चारों ओर (परिशासं) चारों ओर से उसको चुभने वाली बर्छियां सी (परि कृत्य) लगा कर या (परिशा सं) उसको चारों तरफ़ से चोट पहुंचाने वाले छड़ लगाकर वश कर लिया जाता है उसी प्रकार (कृत्या-कृते) दूसरों की जीवहत्या करने वाले पुरुष के (कृत्यां परि कृत्य) चारों ओर भी उसी प्रकार का कष्टदायी उपाय करके उसको (निष्कम् इव) नीचे दबा कर, निश्चेष्ट सा करके (अव मुञ्चत) छोड़ो। अर्थात् मारे मृत्यु के और कष्टों की पीड़ा के उसे दबा कर सिर मत उठाने दो, अथवा उसके गले में।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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