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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    अग्ने॑ पृतनाषा॒ट्पृत॑नाः सहस्व। पुनः॑ कृ॒त्यां कृ॑त्या॒कृते॑ प्रति॒हर॑णेन हरामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । पृ॒त॒ना॒षा॒ट् । पृत॑ना: । स॒ह॒स्व॒ । पुन॑: । कृ॒त्याम् । कृ॒त्या॒ऽकृते॑ । प्र॒ति॒ऽहर॑णेन । ह॒रा॒म॒सि॒ ॥१४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने पृतनाषाट्पृतनाः सहस्व। पुनः कृत्यां कृत्याकृते प्रतिहरणेन हरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । पृतनाषाट् । पृतना: । सहस्व । पुन: । कृत्याम् । कृत्याऽकृते । प्रतिऽहरणेन । हरामसि ॥१४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे (अग्ने) राजन् ! हे (पृतनाषाट्) सेनाओं और प्रजाओं को वश करने वाले ! तू (पृतनाः सहस्व) समस्त सेनाओं को वश कर। (पुनः) तब (कृत्याकृते) राष्ट्रवासियों पर विपत्तियों को लाने वाले पर (प्रतिहरणेन) प्रतिहरण विधि से (कृत्यां) उस घातक्रिया को हम (हरामसि) उसी पर डालते हैं अर्थात् यदि सेनापति अपनी सेनाओं को वश करके बाहर की सेनाओं पर वश कर ले तो भीतरी षड्यन्त्रकारियों को पकड़ कर उनको वही दण्ड भुगतावे जो कष्ट वे औरों पर डालना चाहते हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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