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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    पुनः॑ कृ॒त्यां कृ॑त्या॒कृते॑ हस्त॒गृह्य॒ परा॑ णय। स॑म॒क्षम॑स्मा॒ आ धे॑हि॒ यथा॑ कृत्या॒कृतं॒ हन॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । कृ॒त्याम् । कृ॒त्या॒ऽकृते॑ । ह॒स्त॒ऽगृह्य॑ । परा॑ । न॒य॒ । स॒म्ऽअ॒क्षम् । अ॒स्मै॒ । आ । धे॒हि॒ । यथा॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । हन॑त् ॥१४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनः कृत्यां कृत्याकृते हस्तगृह्य परा णय। समक्षमस्मा आ धेहि यथा कृत्याकृतं हनत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । कृत्याम् । कृत्याऽकृते । हस्तऽगृह्य । परा । नय । सम्ऽअक्षम् । अस्मै । आ । धेहि । यथा । कृत्याऽकृतम् । हनत् ॥१४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (कृत्या-कृते) पर-प्राणघाती उपाय करने वाले की (कृत्यां) कृत्या, साजिश को (पुनः) बार बार (हस्त-गृह्य) हाथों से पकड़ २ कर अर्थात् उन साजिश करने वालों को अपराध करते पकड़ कर (परा नय) उनको समाज से (पृथक) बन्दी-घर या दूर स्थान पर रख और (अस्मै) उसके (समक्षम्) आंखों के आगे (आ-धेहि) यह साफ तौर पर ला दिखा कि (यथा) किस प्रकार से (कृत्या-कृतं) साजिश करने वाले पर प्राणद्वेषियों को (हनत्) मारा जाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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