अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 12
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यापरिहरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
इष्वा॒ ऋजी॑यः पततु॒ द्यावा॑पृथिवी॒ तं प्रति॑। सा तं मृ॒गमि॑व गृह्णातु कृ॒त्या कृ॑त्या॒कृतं॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइष्वा॑: । ऋजी॑य: । प॒त॒तु॒ । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । तम् । प्रति॑ । सा । तम् । मृ॒गम्ऽइ॑व । गृ॒ह्णा॒तु॒ । कृ॒त्या । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । पुन॑: ॥१४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्वा ऋजीयः पततु द्यावापृथिवी तं प्रति। सा तं मृगमिव गृह्णातु कृत्या कृत्याकृतं पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठइष्वा: । ऋजीय: । पततु । द्यावापृथिवी इति । तम् । प्रति । सा । तम् । मृगम्ऽइव । गृह्णातु । कृत्या । कृत्याऽकृतम् । पुन: ॥१४.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 12
भावार्थ -
हे (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी ! राजा और प्रजा ! (इष्वा) बाण के समान (ऋजीयः) अत्यन्त सीधी होकर विना चूके वह (कृत्या) पीड़ा (तं प्रति पततु) उसी करने वाले पर आकर पड़े और (सा) वह (तं) उस अपराधी को (मृगम् इव) मृग के समान (गृह्णातु) पकड़ ले। अर्थात् ताक कर निशाना लगाने से जिस प्रकार शिकारी का बाण हरिण पर ही जाता है और नहीं चूकता उसी प्रकार राजा का दण्ड भी अपराधी पर वैसे ही विना चूक पड़े और इस प्रकार (कृत्याकृतं पुनः कृत्या गृह्णातु) पीड़ाकारी पुरुष को वह पीड़ा पुनः २ पकड़ ले।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
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