अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
पुरं॑ दे॒वाना॑म॒मृतं॒ हिर॑ण्यं॒ य आ॑बे॒धे प्र॑थ॒मो दे॒वो अग्रे॑। तस्मै॒ नमो॒ दश॒ प्राचीः॑ कृणो॒म्यनु॑ मन्यतां त्रि॒वृदा॒बधे॑ मे ॥
स्वर सहित पद पाठपुर॑म् । दे॒वाना॑म् । अ॒मृतम् । हिर॑ण्यम् । य: । आ॒ऽवे॒धे । प्र॒थ॒म: । दे॒व: । अग्रे॑ । तस्मै॑ । नम॑: । दश॑ । प्राची॑: । कृ॒णो॒मि॒ । अनु॑ । म॒न्य॒ता॒म् । त्रि॒ऽवृत् । आ॒ऽवधे॑ । मे॒ ॥२८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरं देवानाममृतं हिरण्यं य आबेधे प्रथमो देवो अग्रे। तस्मै नमो दश प्राचीः कृणोम्यनु मन्यतां त्रिवृदाबधे मे ॥
स्वर रहित पद पाठपुरम् । देवानाम् । अमृतम् । हिरण्यम् । य: । आऽवेधे । प्रथम: । देव: । अग्रे । तस्मै । नम: । दश । प्राची: । कृणोमि । अनु । मन्यताम् । त्रिऽवृत् । आऽवधे । मे ॥२८.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 11
विषय - दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।
भावार्थ -
(देवानां) देवगण, इन्द्रियों महद् आदि २१ विकारों का (पुरं) पालन पोषण एवं निवास का स्थान (अमृतम्) अमृत, शुक्र है। अथवा वह अमर पद है इसका दूसरा नाम (हिरण्यम्) ‘हिरण्य’ या परम ज्योति या आत्मा है (यः) जो (प्रथमः) सबसे प्रथम या सबसे श्रेष्ठ है, (देवः) जो परमप्रकाश स्वरूप है, सर्व विजयी है, (अग्रे) जो सबसे पूर्व (आ-वेधे) सबको नियमों में बांधता है, (तस्मै) उसी परम प्रभु को मैं (दश प्राचीः) दशों दिशाओं में उत्कृष्ट रूप में व्यापक जान कर (नमः कृणोमि) नमस्कार करता हूं। वह (त्रिवृत्) त्रि-मात्र ओंकार, त्रिगुण शक्तिमय, प्रभु (अनु मन्यताम्) मेरे विनय को स्वीकार करे, उसी को (मे) मैं अपने लिये (आबधे) यज्ञोपवीत रूप में त्रिसूत्र करके बांधता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
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