अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
स॒प्त जा॒तान्न्यर्बुद उदा॒राणां॑ समी॒क्षय॑न्। तेभि॒ष्ट्वमाज्ये॑ हु॒ते सर्वै॒रुत्ति॑ष्ठ॒ सेन॑या ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । जा॒तान् । नि॒ऽअ॒र्बु॒दे॒ । उ॒त्ऽआ॒राणा॑म् । स॒म्ऽई॒क्षय॑न् । तेभि॑: । त्वम् । आज्ये॑ । हु॒ते । सर्वै॑: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । सेन॑या ॥११.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त जातान्न्यर्बुद उदाराणां समीक्षयन्। तेभिष्ट्वमाज्ये हुते सर्वैरुत्तिष्ठ सेनया ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । जातान् । निऽअर्बुदे । उत्ऽआराणाम् । सम्ऽईक्षयन् । तेभि: । त्वम् । आज्ये । हुते । सर्वै: । उत् । तिष्ठ । सेनया ॥११.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
विषय - महासेना-संचालन और युद्ध।
भावार्थ -
हे (न्यर्बुद) महा सेनापते ! तू अपने (उदाराणाम्) विशाल, ऊपर उठने वाले या ऊपर से प्रहार करने वाले महायन्त्रों में से (सप्त) सात प्रकार के (जातान्) उत्पातों को (समीक्षयन्) दिखाता हुआ (आज्ये हुते) अग्नि में घी पड़ चुकने पर जैसे अग्नि प्रचण्ड हो जाती है उसी प्रकार युद्ध की अग्नि के प्रचण्ड हो जाने पर (तेभिः सर्वैः) उन सब महास्त्रों सहित (सेनया) अपनी सेना से (उत्तिष्ठ) उठ खड़ा हो।
अपनी सेना की धागे की दिशा में शत्रु है, उस दिशा को छोड़ शेष सातों दिशाओं में सात महास्त्रों की योजना करे और युद्ध छिड़ जाने पर सेना सहित महास्त्रों से लदे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥
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