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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रसूक्त

    परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्वापी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒चीर्वसू॑नि॒ चारु॒र्वि भ॑जासि॒ जीव॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑। इ॒दम् । वासः॑। अ॒धि॒थाः॒। स्व॒स्तये॑। अभूः॑। वा॒पी॒नाम्। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपाः। ऊं॒ इति॑। श॒तम्। च॒। जीव॑। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। वसू॑नि। चारुः॑। वि। भ॒जा॒सि॒। जीव॑न् ॥२४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्वापीनामभिशस्तिपा उ। शतं च जीव शरदः पुरूचीर्वसूनि चारुर्वि भजासि जीवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि। इदम् । वासः। अधिथाः। स्वस्तये। अभूः। वापीनाम्। अभिशस्तिऽपाः। ऊं इति। शतम्। च। जीव। शरदः। पुरूचीः। वसूनि। चारुः। वि। भजासि। जीवन् ॥२४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 24; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे राजन् ! (इदम् वासः) तू इस वस्त्र को (परि अधिथाः) धारण कर और (वापीनाम्) अपने बीज वपन द्वारा खेतियों को बोने वाले कृशक प्रजाओं या (वापीनाम्) अपने बीजवपन द्वारा सन्तानों को उत्पन्न करने वाली प्रजाओं के (अभि-शस्तिपाः उ) ऊपर चारों ओर से होने वाले हिंसामय चोर डाकुओं के आघातों से रक्षा करने वाला होकर ही तू उनके (स्वस्तये) सुख कल्याण के लिये (अभूः) हो। और (पुरूचीः) पुरु-नाना अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले अनेक भोग्य पदार्थों से परिपूर्ण (शरदः शतम्) सौ बरसों तक (जीव) प्राण धारण कर। और (जीवन्) अपने जीते हुए ही तू (चारुः) पृथ्वी के उत्तम जीवन सुखों को यथावत् भोगता हुआ भी (वसूनि) प्रजा के जीवन और आवास के उपयोगी नाना धन सम्पत्तियों को (वि भजासि) विविध रूपों में बांटा कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः देवता। १-३ अनुष्टुप, ४-६, ८ त्रिष्टुप, ७ त्रिपदाआर्षीगायत्री।

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