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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 137

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 8
    सूक्त - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १३७

    द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो अंशु॒मत्याः॑। नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्य॑: । अं॒शु॒ऽमत्या॑: ॥ नभ॑: । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । व॒: । वृ॒ष॒ण॒: । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१३७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः। नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्य: । अंशुऽमत्या: ॥ नभ: । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । व: । वृषण: । युध्यत । आजौ ॥१३७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    मैं (द्रप्सम्) कुत्सित चांचरण करने और प्रजा के माल खाजाने वाले, (कृष्णम्) प्रजा के पीड़क पुरुष को (नद्यः) नदियों के समान जलवत् धन से भरी हुई. धनको पानी के समान बहाने वाली (अंशुमत्याः) परस्पर के विभाग और फूट से भरी प्रजा के (उपह्वरे) समीप (विषुणे) विषम, सब और फैले अति विषम व्यवहार में (चरन्तम्) विचरते हुए और (नद्यः) नदी के तट पर मेघ के समान (अवतस्थिवांसम्) गुप्त रूप से छिपकर बैठे को मैं (अपश्यम्) देखता हूं। हे (वृषणः) वीर बलवान् पुरुषो ! आप लोग (आजौ) युद्ध में (युध्यत) युद्ध करो, जूझ जाओ। (इष्यामि) मैं यही चाहता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १. शिरिम्बिठिः, २ बुधः, ३, ४ ६, ययातिः। ७–११, तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा मारुत ऋषयः। १, लक्ष्मीनाशनी, २ वैश्वीदेवी, ३, ४-६ सोमः पत्र मान इन्द्रश्च देवताः। १, ३, ४-६ अनुष्टुभौ, ५-१२-अनुष्टुभः १२-१४ गायत्र्यः।

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