अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 137/ मन्त्र 8
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १३७
67
द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो अंशु॒मत्याः॑। नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्य॑: । अं॒शु॒ऽमत्या॑: ॥ नभ॑: । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । व॒: । वृ॒ष॒ण॒: । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१३७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः। नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥
स्वर रहित पद पाठद्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्य: । अंशुऽमत्या: ॥ नभ: । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । व: । वृषण: । युध्यत । आजौ ॥१३७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(द्रप्सम्) घमण्डी को (अंशुमत्याः) विभागवाली [सीमावाली] (नद्यः) नदी के (उपह्वरे) समीप में (विषुणे) विरुद्ध आचरण [अन्याय] के बीच में (चरन्तम्) विचरते हुए, (नभः) आकाश से (अवतस्थिवांसम्) उतरे हुए (कृष्णम् न) कौवे के समान (अपश्यम्) मैंने देखा है, (वृषणः) हे ऐश्वर्यवाले वीरो ! (वः) तुमको (इष्यामि) प्रेरणा करता हूँ, (आजौ) संग्राम में (युध्यत) युद्ध करो ॥८॥
भावार्थ
राजा लुटेरे शत्रु को सीमा पर आते देखकर अपने वीरों को भेजकर उसे रोक दे ॥८॥
टिप्पणी
८−(द्रप्सम्) म० ७। गर्ववन्तम् (अपश्यम्) अदर्शम् (विषुणे) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।। विष विप्रयोगे-उनन् कित्। विषुणस्य विषमस्य-निरु० ४।१९। विरुद्धाचरणे। अन्याये (चरन्तम्) विचरन्तम् (उपह्वरे) अथ० २०।२२।९। समीपे (नद्यः) नद्याः (अंशुमत्याः) म० ७। विभागवत्याः। सीमायुक्तायाः (नभः) विभक्तेर्लुक्। नभसः। आकाशात् (न) यथा (कृष्णम्) म० ७। काकम् (अवतस्थिवांसम्) अवस्थितम् (इष्यामि) इष गतौ। प्रेरयामि (वः) युष्मान् (वृषणाः) अथ० ११।१।२। हे ऐश्वर्यवन्तः। वीराः (युध्यत) संप्रहरत (आजौ) अ० २०।१६।२। संग्रामे ॥
विषय
नभः न [सूर्य की भाँति]
पदार्थ
१. (द्रप्सम्) = प्रभु के उस छोटे रूप [अंश] जीव को (विषुणे) = [विष्वग् अञ्चने, विस्तृते देशे] चारों ओर गति-[व्याप्ति]-वाले प्रभु में (अपश्यम्) = मैं देखता हूँ। प्रभु की गोद में स्थित जीव को अनुभव करता हूँ। यह (अंशुमत्याः नद्यः) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञाननदी [सरस्वती] के (उपहरे) = अत्यन्त गूढ स्थान में (चरन्तम्) = गति कर रहा है। २. (नभः न) = आदित्य के समान (अवतस्थिवांसम्) = स्थित (कृष्णम्) = वासनाओं के क्षीण [कृश] करनेवाले को (इष्यामि) = चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं वासनामय वृत्र को विनष्ट करके सूर्य की भाँति चमकूँ। हे (वृष्ण:) = शक्तिशाली मरुतो [प्राणो]! (व:) = तुम (आजौ) = संग्राम में (युध्यत) = वासनारूप शत्रुओं के साथ युद्ध करो। इन्हें पराजित करके ही तो मैं चमक सकूँगा।
भावार्थ
जीव अपने को व्यापक प्रभु में स्थित देखे। सदा ज्ञान में विचरने का प्रयत्न करे। प्राणसाधना द्वारा वासनाओं का विनाश करके सूर्य की भाँति चमके।
भाषार्थ
(अंशुमत्याः) प्रकाश-सम्पन्न सात्विक-चित्तवृत्तिवाली (नद्योः) चित्त-नदी के (उपह्वरे) एकान्त प्रदेश में, (विषुणे) विषम परिस्थिति में (चरन्तम्) छिपकर विचरते हुए, (द्रप्सम्) खट्टी लस्सी के सदृश वर्तमान काले तमोगुण को, (अपश्यम्) मैं=परमेश्वर ने देख लिया है, जो कि (कृष्णम्) काले (नभः न) मेघ के सदृश (अवतस्थिवांसम्) स्थित हो गया है। (वृषणः) हे भक्तिरस की वर्षा करनेवाले शक्तिशाली उपासको! (वः इष्यामि) मैं परमेश्वर तुम्हें चाहता हूँ, कि तुम (आजौ) इस देवासुर-संग्राम में (युध्वत) इस काले असुर के साथ युद्ध में डट जाओ।
टिप्पणी
[चित्त का वर्णन योग-भाष्य में नदी रूप में भी हुआ है। यथा—“चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी। वहति कल्याणाय वहति पापाय च” (योग १.१२) उपह्वर= A solitary or lonely place (आप्टे)।]
विषय
राजपद।
भावार्थ
मैं (द्रप्सम्) कुत्सित चांचरण करने और प्रजा के माल खाजाने वाले, (कृष्णम्) प्रजा के पीड़क पुरुष को (नद्यः) नदियों के समान जलवत् धन से भरी हुई. धनको पानी के समान बहाने वाली (अंशुमत्याः) परस्पर के विभाग और फूट से भरी प्रजा के (उपह्वरे) समीप (विषुणे) विषम, सब और फैले अति विषम व्यवहार में (चरन्तम्) विचरते हुए और (नद्यः) नदी के तट पर मेघ के समान (अवतस्थिवांसम्) गुप्त रूप से छिपकर बैठे को मैं (अपश्यम्) देखता हूं। हे (वृषणः) वीर बलवान् पुरुषो ! आप लोग (आजौ) युद्ध में (युध्यत) युद्ध करो, जूझ जाओ। (इष्यामि) मैं यही चाहता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१. शिरिम्बिठिः, २ बुधः, ३, ४ ६, ययातिः। ७–११, तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा मारुत ऋषयः। १, लक्ष्मीनाशनी, २ वैश्वीदेवी, ३, ४-६ सोमः पत्र मान इन्द्रश्च देवताः। १, ३, ४-६ अनुष्टुभौ, ५-१२-अनुष्टुभः १२-१४ गायत्र्यः।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
I have seen the dark devil of passion and pride roaming around widely and variously on the banks of the vibrant stream of life. O mighty energies of prana and divine potential, I wish you fight in the battle and, like unfailing agents of cleansing of dirt, throw out the dark evil standing out and working boldly as well as surreptitiously.
Translation
I, the ruler see the arrogant tyrant king facing a critical situation and sitting in the valley of the river dividing boundry. O men of bravety, you fight him in the battle, this I desire.
Translation
I, the ruler see the arrogant tyrant king facing a critical situation and sitting in the valley of the river dividing boundry. O men of bravery, you fight him in the battle, this I desire.
Translation
O brave warriors, capable of raining death into the lines of the enemy, I see the haughty foe, moving about stealthily and busy in inimical action, all along the bank of the partitioning river, coming down like a crow from the sky, I wish that you should give battle to him and crush him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(द्रप्सम्) म० ७। गर्ववन्तम् (अपश्यम्) अदर्शम् (विषुणे) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।। विष विप्रयोगे-उनन् कित्। विषुणस्य विषमस्य-निरु० ४।१९। विरुद्धाचरणे। अन्याये (चरन्तम्) विचरन्तम् (उपह्वरे) अथ० २०।२२।९। समीपे (नद्यः) नद्याः (अंशुमत्याः) म० ७। विभागवत्याः। सीमायुक्तायाः (नभः) विभक्तेर्लुक्। नभसः। आकाशात् (न) यथा (कृष्णम्) म० ७। काकम् (अवतस्थिवांसम्) अवस्थितम् (इष्यामि) इष गतौ। प्रेरयामि (वः) युष्मान् (वृषणाः) अथ० ११।१।२। हे ऐश्वर्यवन्तः। वीराः (युध्यत) संप्रहरत (आजौ) अ० २०।१६।२। संग्रामे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(দ্রপ্সম্) অহংকারীকে (অংশুমত্যাঃ) বিভক্তকারী [সীমান্তের] (নদ্যঃ) নদীর (উপহ্বরে) সমীপে (বিষুণে) বিরুদ্ধ আচরণের [অন্যায়ের] মাঝে (চরন্তম্) বিচরিত, (নভঃ) আকাশে (অবতস্থিবাংসম্) অবস্থিত/উড়ন্ত (কৃষ্ণম্ ন) কাকের মতো (অপশ্যম্) আমি দেখেছি, (বৃষণঃ) হে ঐশ্বর্যবান বীরগণ! (বঃ) তোমাদের (ইষ্যামি) প্রেরণা/প্রেরণ করি, (আজৌ) সংগ্রামে (যুধ্যত) যুদ্ধ করো॥৮॥
भावार्थ
রাজা লুটেরা শত্রুদের সীমান্তে আসতে দেখে নিজের বীর সৈনিকদের পাঠিয়ে তাঁদের রুদ্ধ করুক ।।৮॥
भाषार्थ
(অংশুমত্যাঃ) প্রকাশ-সম্পন্ন সাত্ত্বিক-চিত্তবৃত্তিসম্পন্ন (নদ্যোঃ) চিত্ত-নদীর (উপহ্বরে) একান্ত প্রদেশে, (বিষুণে) বিষম পরিস্থিতিতে (চরন্তম্) লুকিয়ে বিচরণশীল, (দ্রপ্সম্) টক দইয়ের সদৃশ বর্তমান কালো তমোগুণকে (অপশ্যম্) আমি=পরমেশ্বর প্রত্যক্ষ করে নিয়েছি, যা (কৃষ্ণম্) কালো/খারাপ (নভঃ ন) মেঘের সদৃশ (অবতস্থিবাংসম্) স্থিত হয়ে গেছে। (বৃষণঃ) হে ভক্তিরসের বর্ষণকারী শক্তিশালী উপাসকগণ! (বঃ ইষ্যামি) আমি পরমেশ্বর তোমাদের কামনা করি, তোমরা (আজৌ) এই দেবাসুর-সংগ্রামে (যুধ্বত) এই কালে অসুরের সাথ যুদ্ধ করো।
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